मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा

133

 – वासुदेव प्रजापति

ज्ञानार्जन के सभी करण जन्म से ही हमें मिल तो जाते हैं, परन्तु जन्म से ये सभी करण सक्रिय नहीं होते, अक्रिय अवस्था में रहते हैं। एक शिशु में जन्म से ही सभी अंग होते तो हैं, परन्तु उनकी सक्रियता क्रमश: आती है। जैसे – जिह्वा होते हुए भी वह बोल नहीं पाता, पैर होते हुए भी वह चल नहीं पाता, हाथ होते हुए भी वह गेंद को उछाल नहीं पाता क्यों? क्योंकि अभी ये अंग अक्रिय हैं। जब हाथ, पैर व जिह्वा निश्चित आयु में सक्रिय होते हैं, तब वे भी ये काम सरलता से कर लेते हैं।

इसका अर्थ यह है कि जिस आयु में जो करण सक्रिय होता है, उस करण से ही ज्ञानार्जन होता है। ज्ञानार्जन के करण भी क्रमश: एक के बाद एक सक्रिय होते हैं। अत: आज हम यह जानेंगे कि किस आयु में कौनसा करण सक्रिय होता है, और उस आयु में किस करण के माध्यम से ज्ञान प्राप्त किया जाता है?

चित्त की सक्रियता

ज्ञानार्जन का सबसे प्रथम सक्रिय होने वाला करण है, “चित्त”। शिशु के गर्भाधान संस्कार के साथ ही उसका चित्त सक्रिय हो जाता है। तब से लेकर पाँच वर्ष की आयु तक अन्य करणों की अपेक्षा चित्त अधिक सक्रिय होता है। इसलिए पाँच वर्ष की आयु तक ज्ञानार्जन चित्त के माध्यम से होता है। चित्त का विषय संस्कार है, चित्त पर संस्कार होते हैं। चित्त की सक्रियता के कारण शिशु अवस्था अधिकतम संस्कार ग्रहण करने वाली होती है। अत: पाँच वर्ष की आयु तक ज्ञानार्जन संस्कार आधारित होता है। इस आयु में संस्कार देना सहज, सरल व स्वाभाविक है।

कर्मेन्द्रियों व ज्ञानेन्द्रियों की सक्रियता

कर्मेन्द्रियाँ व ज्ञानेन्द्रियाँ वैसे तो जन्म के बाद से ही सक्रिय होने लगती हैं, किन्तु पूर्ण सक्रिय नहीं हो पाती। पहले कर्मेन्द्रियाँ सक्रिय होतीं हैं, बाद में ज्ञानेन्द्रियाँ सक्रिय होतीं हैं। यह अवस्था पाँच वर्ष से लेकर लगभग दस वर्ष की आयु तक रहती है। अब तक मन, बुद्धि व अहंकार इतने सक्रिय नहीं होते जितने बहि:करण होते हैं। इसलिए दस वर्ष तक की आयु में ज्ञानार्जन बहि:करणों से होता है, अर्थात् क्रिया आधारित व अनुभव आधारित ज्ञानार्जन होता है। इस अवधि में वातावरण तथा क्रिया-कलापों का बहुत बड़ा योगदान होता है।

मन की सक्रियता

लगभग दस वर्ष की उम्र में मन सक्रिय होने लगता है। मन विचारों और भावनाओं का करण है। ज्ञानेन्द्रियाँ जो अनुभव प्राप्त करती हैं, मन उन अनुभवों को ग्रहण करता है। ग्रहण करके उन्हें विचारों में बदलता है। मन में भावनाएँ भी होती हैं, इन भावनाओं के कारण मन उपदेश ग्रहण करने योग्य बनता है। इस आयु में ज्ञानार्जन विचार और भावनाओं के आधार पर होता है। अत: बालकों को कथा-कहानी, प्रेरक प्रसंग, महापुरुषों की जीवनी इत्यादि तथा आदेश-निर्देश व प्रेरणा के द्वारा ज्ञानार्जन करवाना चाहिए।

बुद्धि की सक्रियता

लगभग बारह वर्ष में बुद्धि सक्रिय होती है। बुद्धि सक्रिय होते ही तर्क, तुलना, निरीक्षण-परीक्षण तथा संश्लेषण-विश्लेषण के आयाम खिलने लगते हैं। फलस्वरूप विवेक एवं निर्णय की क्षमता विकसित होती है। अत: इस आयु में ज्ञानार्जन बुद्धि आधारित होता है। अब केवल आदेश-निर्देश या प्रेरणा से काम नहीं चलता, बुद्धि की तर्क आदि शक्तियों के द्वारा उसके मन में उत्पन्न क्या, क्यों व कैसे? का समाधान करना आवश्यक होता है। क्यों? का समाधान होने पर ही ज्ञानार्जन सम्भव होता है।

अहंकार की सक्रियता

ज्ञानार्जन प्रक्रिया में अहंकार का कार्य कर्तापन, ज्ञातापन तथा भोक्तापन है। इन तीनों का बोध लगभग चौदह वर्ष की आयु में होने लगता है। यह किशोर अवस्था होती है। किशोरावस्था में कुछ कर दिखाने की भावना प्रबल होती है, उनमें दायित्व बोध पनपता है तथा कर्तृत्व का विकास होता है। अत: इस आयु के किशोरों को दायित्व बोध तथा कर्तृत्वभाव जगाने की शिक्षा देनी चाहिए। इस शिक्षा के लिए उन्हें घर एवं विद्यालय में उनके योग्य कार्य उनकी स्वतंत्र बुद्धि से करने के अवसर देने चाहिए।

इस प्रकार सोलह वर्ष की आयु तक एक-एक कर सभी करण सक्रिय हो जाते हैं। जब सभी करण सक्रिय होते हैं, तब सभी करण मिलकर ज्ञानार्जन करते हैं। अब सभी करणों के सम्मिलित प्रयत्न से होने वाली ज्ञानार्जन प्रक्रिया के स्वरूप को समझेंगे।

ज्ञानार्जन प्रक्रिया

ज्ञानार्जन के सभी करण एक दूसरे के साथ जुड़े हुए हैं। एक दूसरे की सहायता करते हैं और एक दूसरे पर आधारित है। इसलिए जब सोलह वर्ष तक सभी करण सक्रिय हो जाते हैं, तब ज्ञानार्जन की प्रक्रिया इस तरह होती है।कर्मेन्द्रियां जो क्रिया करती हैं तथा ज्ञानेन्द्रियाँ जो अनुभव प्राप्त करती हैं, मन उनका विचारों में रूपान्तरण करता है। मन विचार तो करता है, किन्तु वह किसी निष्कर्ष पर पहुँच नहीं पाता। इसलिए वह इन विचारों को बुद्धि के सामने प्रस्तुत करता है। बुद्धि अपनी शक्तियों का प्रयोग कर निश्चय पर पहुँचती है। बुद्धि द्वारा प्राप्त किये गए यथार्थ ज्ञान को अहंकार ग्रहण करता है। यह कर्मेन्द्रियों से लेकर अहंकार तक की विभिन्न क्रियाओं का समूह अर्थात् ‘संघात’ चित्त पर संस्कार बनाता है। जब इस संस्कार पर आत्मा का प्रकाश पड़ता है, तब वह ज्ञान बनता है। यह ज्ञानरूप संस्कार मनुष्य के व्यक्तित्व का, उसके व्यवहार का तथा उसके स्वभाव का अंग बन जाता है। यही ज्ञानार्जन प्रक्रिया है।शिक्षा की योजना करते समय करणों की क्षमता, सक्रियता तथा ज्ञानार्जन प्रक्रिया को समझना आवश्यक है। किन्तु आज हम इन मूलभूत बातों की उपेक्षा कर आधुनिक उपकरणों के पीछे भाग रहें हैं। परिणामस्वरूप जानकारी के बोझ तले दबे जा रहे हैं, परन्तु ज्ञान को पकड़ नहीं पा रहे हैं।

आओ! हम ज्ञान की महिमा बतलाने वाली कथा का रसपान करें।

लोक कल्याण के लिए ज्ञान

यह कथा है, रामानुज की। रामानुज का जीवन प्रारम्भ से ही घोर विपत्तियों में से गुजरा। इन विपत्तियों ने उनके जीवन को उज्ज्वल बना दिया। बहुत छोटी आयु में ही इनके पिता परलोक वासी हो गये। इन्होंने कांची जाकर यादवप्रकाश जी से  विद्याध्ययन किया और आचार्य रामानुज कहलाये। आपने ब्रह्मसूत्र, विष्णु सहस्रनाम एवं दिव्यप्रबन्धम् की टीका लिखी।

आचार्य रामानुज ने अपने गुरु श्रीयतिराजजी से संन्यास की दीक्षा ग्रहण की। तिरुकोट्टियूर के महात्मा नाम्बि ने इन्हें अष्टाक्षर मंत्र (ॐ नमो नारायणाय) की दीक्षा दी। दीक्षा के साथ ही चेतावनी भी दी कि यह गुरु मंत्र परम गोपनीय नारायण मंत्र है। अनधिकारी को इसका श्रवण नहीं करना चाहिए। इस मंत्र के श्रवण मात्र से अधम से अधम प्राणी भी बैकुण्ठ के अधिकारी हो जाते हैं।

गुरु के आदेशानुसार गुरु मंत्र किसी को भी बताना अपराध था। किन्तु आचार्य रामानुज तो उसी समय मंदिर के शिखर पर पहुँच गये और आवाज दे दे कर लोगों को जमा कर लिया। फिर जोर से बोलकर कहने लगे – सुनो-सुनो! सब लोग सुनो और याद कर लो। मैं तुम्हें भगवान नारायण का अष्टाक्षर मंत्र सुना रहा हूँ – “ॐ नमो नारायणाय।” इस मंत्र को सुनने से ही प्राणी बैकुण्ठ का अधिकारी हो जाता है। इस प्रकार हजारों लोगों को उन्होंने मंत्र सुना दिया।

गुरु को जब इस बात का पता चला तब वे बहुत क्रोधित हुए। रामानुज को बुलाया और कहा – तुमने यह क्या कर दिया? मेरी आज्ञा भंग करने का फल तुम जानते हो? इस तरह कोई मंत्र घोषणा की जाती है?

गुरुदेव! आपकी आज्ञा भंग करके मैं नरक में जाऊँगा, यही तो? परन्तु हजारों लोग यह मंत्र सुनकर श्री हरि के धाम पधारेंगे! मैं अकेला ही तो नरक की यातना भोगूँगा। इस अमूल्य ज्ञान को पाकर केवल मेरा कल्याण हो? इसके स्थान पर मुझे भले ही नरक मिले, किन्तु शेष सब लोगों का कल्याण होना अधिक श्रेष्ठ है।

गुरु ने रामानुज का उत्तर सुना तो गदगद हो गये। उन्हें अपने गले लगाते हुए कहने लगे, “तुमने तो मेरी आँखें खोल दी। सच में आचार्य तो तुम्हीं हो!” इन्हीं आचार्य ने आगे चलकर विशिष्टाद्वेत मत की स्थापना की और रामानुजाचार्य नाम से विख्यात हुए।

(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सह सचिव है।)