प्रतीक्षा एक साधना है…

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हृदयनारायण दीक्षित

प्रतीक्षा अस्तित्व पर विश्वास है। आस्तिक की श्रद्धा है प्रतीक्षा। प्रतीक्षा का परिणाम स्वयं सिद्ध है। शुभ की प्रतीक्षा करना मानव-स्वभाव है। वर्तमान परिस्थिति से प्रायः सभी पीडि़त-व्यथित रहते हैं। ऐसी परिस्थिति में भविष्य का आलम्बन सहायक होता है। प्रगाढ़ प्रतीक्षा में सुखद भविष्य की आश्वस्ति होती है। अच्छे दिन आने की पुलक होती है। प्रकृति जड़ नहीं है। प्रकृति का प्रत्येक अंश गतिशील है। यह गतिशीलता ऋजु- सीधा मार्ग नहीं अपनाती। यह चक्रीय है। पूर्वजों ने संभवतः इसीलिए कालगति के प्रतीक को चक्र कहा है। इस चक्रीय गति का अंत व प्रारम्भ एक ही होते हैं। सुख-दुःख बारी-बारी आते हैं। अस्तित्व में दोनो की उपस्थिति है। कवि रहीम ने ठीक गाया है, “रहिमन चुप ह्वै बैठिए, देखि दिनन का फेर/ जब नीके दिन आइहैं/बनत न लगिहैं देर।” रहीम ने चुप रहकर प्रतीक्षा करने का संदेश दिया है। प्रतीक्षा व्यर्थ नहीं जाती। अस्तित्व के घर में प्रतीक्षारत रहने वाले आस्तिकों के लिए भी विशेष स्थान है। वेटिंग रूम यहाँ भी है। सभी मनुष्यों के चित्त में प्रतीक्षा होती है।


प्रतीक्षा एक साधना है। प्रतीक्षा सहारा लेने वाला व्यक्ति यह मानकर चलता है कि उसकी प्रतीक्षा उसे कर्मफल अवश्य दिलाएगी। प्रतीक्षा की साधना में ध्यान जैसी एकाग्रता जरूरी है। यह सचेत मन से घटित होती है। उसका ध्यान विषय-विशेष पर ही केन्द्रित रहता है। यह एकाग्रता कर्म की प्रेरक है। यही कर्मफल सुनिश्चित करती है। ध्यान-एकाग्रता प्रतीक्षा को कर्मफलदाता भी बनाती है। प्रतीक्षा अकर्मण्य होकर चुप बैठने का आचरण नहीं है। प्रतीक्षा में सतत् कर्म नहीं रूकते। कर्मफल के प्रति सक्रिय वैराग्य भी घटित होता है। प्रतीक्षा का परिणाम है कर्मफल की प्रतिभूति है। प्रतीक्षा का मूलभाव राज्य-योग की समाधि जैसा है। अंकगणित की तरह यहाँ दो और दो, चार ही होते हैं। प्रतीक्षा करने वाले के मनोभाव सकारात्मक होते हैं। चित्त् में शुभ प्राप्ति की गहरी संभावना होती है। प्रतीक्षा का चरित्र अन्तर्संगीत जैसा है। दुनिया के सभी साधकों ने प्रतीक्षा की मनोभावना में रहकर इच्छित कर्मफल प्राप्त किए है।

प्रतीक्षा एक सात्विक मनोकामना है। मैंने स्वयं अपनी मनोअभिलाषा के लिए लम्बे समय तक प्रतीक्षा की है। प्रतीक्षा में शुभ घटित होने के लिए अस्तित्व की शक्ति पर विश्वास की आवश्यकता होती है। मुझे अस्तित्व पर विश्वास है। सन् 1975 में संवैधानिक आपातकाल था। मौलिक अधिकार निलम्बित थे। लाखों लोगों को असहमति के कारण जेल में डाल दिया गया था। सब पर फर्जी मुकदमे थे। मैं भी अपनी विचारधारा की प्रतिबद्धता के कारण जेल में था। लोग सहमे हुए थे। भयभीत थे। जेल से छूटने की आशा नहीं थी। ऐसा बन्दी-जीवन अंधकारपूर्ण था। हमलोगों को दूर-दूर तक प्रकाश की किरण नहीं दिखाई पड़ती थी। देश की सभी जेलों में बन्द सामाजिक कार्यकर्ताओं के मन में निराशा थी। परिस्थितियाँ विपरीत थीं। मैंने और मेरे जैसे अनेक लोगों ने अस्तित्व की गतिविधि पर विश्वास किया। हमलोगों ने प्रतीक्षा की। प्रतीक्षा से आत्मविश्वास बढ़ा। अंततः लोकसभा के चुनाव आए। चुनाव के समय सभी विपक्षी नेता जेल में थे। जो बाहर थे उन्हें चुनाव-प्रचार में हिस्सा लेने से रोका गया। किसी को भी विश्वास नहीं था कि एकतरफा चुनाव-प्रचार के बावजूद सत्तापक्ष पराजित होगा। लेकिन 1977 के लोकसभा चुनाव में सत्तापक्ष पूरी तरह से पराजित हुआ। प्रतीक्षा का चमत्कार मैंने स्वयं अनुभव किया है। सत्तापक्ष की पराजय के बाद आपातकाल हटाया गया और जेल में बन्द सभी राजनैतिक बन्दी रिहा हुए।


प्रतीक्षा और आशा दोनो परिजन जान पड़ते हैं। आस्तिकता से पूर्ण आशा में आत्मबल बढ़ता है। आशा आत्मविश्वास बढ़ाती है। ऐसा आत्मविश्वास प्रतीक्षा की समयावधि में धैर्य देता है और प्रतीक्षा का अंतर्संगीत भीतर-ही-भीतर अपना काम करता है। यह निरााश् नहीं होने देता। भारतीय पुराणों में धैर्यपूर्ण प्रतीक्षा की अनेक कथाएँ हैं। उनके प्रयत्न, प्रतीक्षा की शक्ति पाकर फलदाता रहे। प्रतीक्षा एक अंतर्भावना है। यह संपूर्ण व्यक्तित्व को सकारात्मक रूप में प्रभावित करती है और गहन जिजीविषा की शक्ति बढ़ाती है। प्रतीक्षा में संयम होता है, आशा होती है। धैर्य होता है। आत्मविश्वास होता है लेकिन निराशा नहीं होती। अस्तित्व की सकारात्मक शक्तियों पर विश्वास रहता है और अस्तित्व कभी गलती नहीं करता। संसार में सबको अपने-अपने हिस्से का यश सिद्धि और प्रसिद्धि मिलती ही है। चीनी दार्शनिक लाउत्सु के निष्कर्ष भी यही हैं।

प्रतीक्षा हमारे अंतरमन का उत्सव है। इस उत्सव का अपना आनन्द है। प्रतीक्षा में विचलन नहीं होता है। पराजय का भाव भी नहीं होता है। संसार का गणित प्रायः नियतिवादी है। नियतिवादी मानकर चलते हैं कि सबकुछ पहले से निर्धारित है। यहाँ हाथ- पैर मारने का कोई लाभ नहीं, लेकिन प्रतीक्षारत लोग नियतिवादी नहीं होते। उन्हें अपनी प्रतीक्षा पर और प्रतीक्षा के कारण स्वयं पर आत्मविश्वास होता है। वह सुखद परिणाम की प्रतीक्षा करते हैं। कर्म व्यक्तित्व की प्रतीक्षा-शक्ति पाकर ही परिणाम देते है। गंभीर और असाध्य बीमारियों में कुछलोग निराश हो जाते हैं। वह स्वस्थ होने की प्रतीक्षा नहीं करते हैं और निराश होकर पराजय स्वीकार कर लेते हैं। लेकिन आस्तिकता से पूर्ण प्रतीक्षा में चमत्कार घटित होते हैं और लोग आश्चर्यजनक ढंग से स्वस्थ हो जाते हैं।


मैंने शरीर की सामान्य जरूरतों की उपेक्षा की। भोजन की भी नहीं। भोजन शरीर का निर्माता है। ऐसा जानते हुए भी मेरी दिनचर्या अस्त-व्यस्त रही है। उपनिषद् मेरे प्रिय हैं। उपनिषदों में अन्न की प्रशंसा है। अन्न न मिले तो प्राण साथ छोड़ देते हैं। अन्न भी अध्यात्म का भाग है। मैने अन्न की प्रतीक्षा नहीं की। जीवन कर्म प्रधान रहा है। तमाम तरह की व्यस्तताएं रही हैं। सो जीवन अस्त व्यस्त रहा है। मैंने स्वस्थ शरीर के साथ वृद्धावस्था में प्रवेश नहीं किया। वृद्धावस्था में शरीर वैसे भी जीर्ण होता है। मन के तल पर अवसाद-विषाद बढ़ते हैं। इनका प्रभाव शरीर पर पड़ता है। शरीर ही भोग, रोग, योग, संयोग, वियोग का उपलब्ध है। वृद्धावस्था में शरीर स्वयं ध्यानाकर्षण करता है। हम अच्छे स्वास्थ्य की प्रतीक्षा करते हैं। लेकिन मेरा मन सत्य, शिव और सुंदर की प्रतीक्षा में चंचल रहता है। मैंने पूरे जीवन शरीर की चिंता नहीं की। अब काफी देर हो चुकी है। नियति खुलकर खेल रही है। मैं तटस्थ द्रष्टा हूँ। पूर्ण संतुष्ट। हमारा अध्यात्म अनुभवों का प्रसाद हैं। जीवन गीत जारी है।