बाल गंगाधर तिलक और उनका राष्ट्रवाद
बाल गंगाधर तिलक और उनका राष्ट्रवाद

बाल गंगाधर तिलक और उनका राष्ट्रवाद

डॉ0 सीमा रानी
प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्षा,
डी.ए.के. कॉलिज, मुरादाबाद, उ0प्र0।

बाल गंगाधर तिलक को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का जनक माना जाता है। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। वह एक समाज सुधारक, स्वतंत्रता सेनानी, राष्ट्रीय नेता के साथ-साथ भारतीय इतिहास, संस्कृत, हिन्दू धर्म, गणित और खगोल विज्ञान जैसे विषयों के विद्वान भी थे। बाल गंगाधर तिलक ‘लोकमान्य’ के नाम से भी जाने जाते थे। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान उनके नारे ‘स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे ले कर रहूँगा’ ने लाखों भारतीयों को प्रेरित किया।

बाल गंगाधर तिलक का जन्म 23 जुलाई 1856 को महाराष्ट्र के रत्नागिरी के एक चित्पवन ब्राह्मण कुल में हुआ था। उनके पिता गंगाधर रामचन्द्र तिलक संस्कृत के विद्वान और एक प्रख्यात शिक्षक थे। तिलक एक प्रतिभाशाली विद्यार्थी थे और गणित विषय से उनको खास लगाव था। बचपन से ही वे अन्याय के घोर विरोधी थे और अपनी बात बिना हिचक के साफ-साफ कह जाते थे। आधुनिक शिक्षा प्राप्त करने वाले पहली पीढ़ी के भारतीय युवाओं में से एक तिलक भी थे।

जब बालक तिलक महज 10 साल के थे तब उनके पिता का स्थानांतरण रत्नागिरी से पुणे हो गया। इस तबादले से उनके जीवन में भी बहुत परिवर्तन आया। उनका दाखिला पुणे के एंग्लो-वर्नाकुलर स्कूल में हुआ और उन्हें उस समय के कुछ जाने-माने शिक्षकों से शिक्षा प्राप्त हुई। पुणे आने के तुरंत बाद उनकी माँ का देहांत हो गया और जब तिलक 16 साल के थे तब उनके पिता भी चल बसे। तिलक जब मैट्रिकुलेशन में पढ़ रहे थे उसी समय उनका विवाह एक 10 वर्षीय कन्या सत्यभामा से करा दिया गया। मैट्रिकुलेशन की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद उन्होंने डेक्कन कॉलेज में दाखिला लिया। सन् 1877 में बाल गंगाधर तिलक ने बी.ए. की परीक्षा गणित विषय में प्रथम श्रेणी के साथ उत्तीर्ण किया। आगे जा कर उन्होंने अपनी पढ़ाई जारी रखते हुए एल.एल.बी. डिग्री भी प्राप्त किया।

तिलक का राष्ट्रवाद स्त्री-जीवन के उत्थान के पक्ष में नहीं था। जब बंगाल में रबीन्द्रनाथ टैगोर की बहन स्वर्णकुमारी देवी ने ‘सखी समिति’ बनाकर उसके माध्यम से कलकत्ता की स्त्रियों को अंग्रेजी-शिक्षा देना शुरू किया, तो यह तिलक को सहन नहीं हुआ। यह संस्था कलकत्ता में विधवा स्त्रियों को शिक्षित करके उन्हें शिक्षिका के रूप में प्रशिक्षित करती थी। तिलक ने इसकी तीखी आलोचना की और घोषणा की कि स्त्रियों के लिए अंग्रेजी और पश्चिमी विज्ञान की शिक्षा देना हमारे धार्मिक मूल्यों को नष्ट करना है। हम प्रकृति और सामाजिक प्रथा को मानते हैं, हमने सामाजिक ढांचे में स्त्री को एक खास स्थान और कार्य सौंपा है। आने वाली पीढ़ियों तक घर ही स्त्रियों का मुख्य केंद्र और क्षेत्र रहेगा। वहां वे जो सर्वश्रेष्ठ काम करेंगीं, उसी से उनका नैतिक और सामाजिक स्तर ऊंचा उठेगा। घर ही उसके लिए विशाल नाट्यशाला है, जहां उसे सभी के लिए अपना श्रेष्ठ प्रदर्शन करना है। इससे हटकर भारत में कोई स्त्री-शिक्षा नहीं होनी चाहिए।

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स्नातक होने के पश्चात तिलक ने पुणे के एक प्राइवेट स्कूल में गणित पढ़ाया और कुछ समय बाद पत्रकार बन गये। वह पाश्चात्य शिक्षा व्यवस्था के पुरजोर विरोधी थे। उनके अनुसार इससे न केवल विद्यार्थियों बल्कि सम्पूर्ण भारतीय संस्कृति और धरोहर का अनादर होता है। उनका ये मानना था कि अच्छी शिक्षा व्यवस्था ही अच्छे नागरिकों को जन्म दे सकती है और प्रत्येक भारतीय को अपनी संस्कृति और आदर्शों के बारे में भी जागरूक कराना चाहिए। अपने सहयोगी आगरकर और महान समाज सुधारक विष्णु शास्त्री चिपुलंकर के साथ मिलकर उन्होंने ‘डेक्कन एजुकेशन सोसाइटी’ की स्थापना की जिसका उद्देश्य देश के युवाओं को उच्च स्तर शिक्षा प्रदान करना था

‘डेक्कन एजुकेशन सोसाइटी’ की स्थापना के पश्चात, तिलक ने 2 साप्ताहिक पत्रिकाओं, ‘केसरी’ और ‘मराठा’ का प्रकाशन शुरू किया। ‘केसरी’ मराठी भाषा में प्रकाशित होती थी जबकि ‘मराठा’ अंग्रेजी भाषा की साप्ताहिकी थी। जल्द ही दोनों लोकप्रिय हो गये। इनके माध्यम से तिलक ने भारतीयों के संघर्ष और परेशानियों पर प्रकाश डाला। उन्होंने हर एक भारतीय से अपने हक के लिए लड़ने का आह्वान किया। उनका मानना था समाज सुधार में विदेशी सत्ता का हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए, क्योंकि विदेशी सत्ता मात्र अधिनियम बना सकती है। जब ब्रिटिश सरकार ने 1890-91 में सहवास-वय विधेयक प्रस्तुत किया, तो तिलक ने इस विधेयक का घोर विरोध किया। तिलक अपने लेखों में तीव्र और प्रभावशाली भाषा का प्रयोग करते थे जिससे पाठक जोश और देश भक्ति के भावना से ओत-प्रोत हो जाये।

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बाल गंगाधर तिलक सन् 1890 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से जुड़े। अपने जीवन काल में वह पुणे म्युनिसिपल परिषद और बॉम्बे लेजिस्लेचर के सदस्य और बॉम्बे यूनिवर्सिटी के निर्वाचित ‘फैलो’ भी रहे। एक आंदोलनकारी और शिक्षक के साथ-साथ तिलक एक महान समाज सुधारक भी थे। उन्होंने बाल विवाह, सती-प्रथा, अस्पृश्यता निवारण, विधवा विवाह जैसी कुरीतियों का विरोध किया और इसे प्रतिबंधित करने की मांग की। वे विधवा पुनर्विवाह के प्रबल समर्थक भी थे। उनका मानना था लड़कियों का विवाह 14 वर्ष व लड़कों का विवाह 20 वर्ष की आयु के पूर्व नहीं किया जाए। यदि कोई व्यक्ति 40 वर्ष की आयु के बाद विवाह करें तो विधवा स्त्री से ही करें। मद्यनिषेध किया जाए। दहेज प्रथा का उन्मूलन हो।

बाल गंगाधर तिलक एक कुशल संयोजक भी थे। गणेश उत्सव और शिवाजी के जन्म उत्सव जैसे सामाजिक उत्सवों को प्रतिष्ठित कर उन्होंने लोगों को एक साथ जोड़ने का कार्य भी किया। बिना किसी भेदभाव के सवर्णों व हरिजनों को इसमें सम्मिलित होने का अवसर दिया।


सन् 1897 में अंग्रेज सरकार ने तिलक पर भड़काऊ लेखों के माध्यम से जनता को उकसाने, कानून को तोड़ने और शांति व्यवस्था भंग करने का आरोप लगाया। उन्हें डेढ साल की सश्रम कारावास की सजा सुनाई गयी। सजा काटने के बाद तिलक सन् 1898 में रिहा हुए और स्वदेशी आंदोलन को शुरू किया। समाचार पत्रों और भाषणों के माध्यम से उन्होंने महाराष्ट्र के गाँव-गाँव तक स्वदेशी आंदोलन का संदेश पहुँचाया। उनके घर के सामने ही एक ‘स्वदेशी मार्केट’ का आयोजन भी किया गया। वे पहले कांग्रेस नेता थे जिन्होंने देवनागरी लिपि को राष्ट्रभाषा बनाये जाने की बात कही।


इसी बीच कांग्रेस सन् 1907 में दो गुटों में विभाजित हो गयी – नरम दल और गरम दल। गरम दल में तिलक के साथ लाला लाजपत राय और विपिनचन्द्र पाल में शामिल हुए। सन् 1906 में अंग्रेज सरकार ने तिलक को विद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया। सुनवाई के पश्चात उन्हें 6 साल की सजा सुनाई गई और उन्हें मांडले (बर्मा) जेल ले जाया गया। जेल में उन्होंने अपना अधिकतर समय पाठन-लेखन में बिताया।

उन्होंने ‘गीता रहस्य’ तथा ‘आर्कटिक होम इन द वेदाज’ अपनी प्रसिद्ध पुस्तकें इसी दौरान लिखी। सजा काटने के पश्चात तिलक 8 जून 1914 को जेल से रिहा हुए। तत्पश्चात, वह कांग्रेस के दोनों गुटों को एक साथ लाने की कोशिश में जुट गए लेकिन उन्हें कामयाबी नहीं मिली। सन् 1916 में तिलक ने ‘होमरूल लीग’ की स्थापना की जिसका उद्देश्य स्वराज था। उन्होंने गाँव-गाँव और मुहल्लों में जाकर लोगों को ‘होमरूल लीग’ के उद्देश्य को समझाया। भारत का यह महान सपूत 1 अगस्त 1920 को परलोक सिधार गया।

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