मैंने फिराक से कहा…..श्याम कुमार

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28 अगस्त, 1896 को फिराक साहब का जन्म गोरखपुर में हुआ था। रघुपति सहाय ‘फिराक गोरखपुरी’ साहित्य जगत का बहुत बड़ा नाम है। वह बहुत बड़े शायर थे। मेरे पिताजी भी शायरी करते थे, इसलिए फिराक साहब से उनकी मित्रता थी तथा मेरे गृहनगर इलाहाबाद(प्रयागराज) में हमारे घर परीभवन में उनका प्रायः आगमन होता था। मेरे पिताजी परीभवन के केसर सभागार में मुषायरों व नेषिस्तों के आयोजन किया करते थे। वे मुशायरे देशभर में मशहूर थे तथा खुमार बाराबंकी, दिल लखनवी आदि तमाम अखिल भारतीय स्तर के ख्यातिप्राप्त शायरों की शुरुआत हमारे यहां के मुशयरों से ही हुई थी। देश में परीभवन के मुशयरों का इतना अधिक महत्व था कि वहां आयोजित मुशायरों का आकाशवाणी केंद्र सीधा प्रसारण करता था। उस समय दूरदर्षन नहीं था, इसलिए रेडियो का बहुत महत्व था। आकाशवाणी केंद्र द्वारा परीभवन में केसर सभागार के बगल वाले कक्ष में सारे संयंत्र फिट कर दिए जाते थे तथा वहां से मुशयरों का सीधा प्रसारण हुआ करता था। वह प्रसारण पाकिस्तान तक में होता था, जिससे परीभवन के मुशायरे वहां भी बड़े मशहूर थे। आकाशवाणी का उद्घोशक अपने प्रसारण में सुसज्जित केसर सभागार की सोभा का वर्णन करता था। मुशायरों की ख्याति के कारण कुछ लोग परीभवन को ‘मुशायरा भवन’ कह देते थे। फिराक गोरखपुरी परीभवन के मुषायरों के प्रषंसक थे।

वर्ष 1961 के दो नवम्बर को प्रयागराज से मेरी पत्रकारिता आरम्भ हुई। किन्तु उससे पहले उसी वर्श जनवरी में मैंने ‘रंगभारती’ की स्थापना की थी। उस समय प्रयागराज पूरे देष का केंद्रविंदु था तथा देश का सबसे महत्वपूर्ण नगर माना जाता था। वह साहित्य, पत्रकारिता, राजनीति, कला, विधि आदि का देश में सबसे बड़ा गढ़ था। इलाहाबाद विश्वविद्यालय की अंतरराश्ट्रीय ख्याति थी तथा इलाहाबाद उच्चन्यायालय, प्रयाग संगीत समिति, हिन्दी साहित्य सम्मेलन आदि की देशव्यापी भारी प्रतिश्ठा थी। महादेवी वर्मा, निराला, पंत, रामकुमार वर्मा, फिराक, उपेंद्र नाथ अष्क, विद्यावती कोकिल, इलाचंद्र जोशी, नरेश मेहता आदि बड़ी संख्या में तमाम महान साहित्यकार प्रयागराज में निवास करते थे तथा दिनकर आदि अन्य बड़े-बड़े साहित्यकारों का प्रायः प्रयागराज आगमन हुआ करता था। विष्व में कोई ऐसा नगर नहीं हुआ है, जहां इतने महान साहित्यकार एक साथ निवास करते रहे हों। उस्ताद बड़े गुलाम अली खां, उस्ताद विलायत खां आदि बड़े-बड़े संगीतज्ञ एवं अन्य क्षेत्रों की नामीगिरामी हस्तियां भी अकसर इलाहाबाद आती रहती थीं।

‘रंगभारती’ की स्थापना के समय मेरी उम्र बीस वर्श थी तथा जोष व उत्साह चरम पर था। मैंने इलाहाबाद के सभी महत्वपूर्ण लोगों को तो ‘रंगभारती’ का सदस्य बना ही लिया था, बाहर से आती रहने वाली अन्य बड़ी हस्तियों को भी मैंने सदस्य बनाया। उसी क्रम में फिराक गोरखपुरी को भी ‘रंगभारती’ का सदस्य बनाया था।

फिराक साहब इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेजी विभाग में प्रोफेसर थे तथा विश्वविद्यालय के पीछे प्राध्यापकों के लिए बनी कॉलोनी के बंगले में रहते थे। मैं उनके पास अकसर जाता था। वह उर्दू के महान शायर माने जाते थे तथा उनका सबसे बड़ा योगदान यह था कि उन्होंने उर्दू षायरी में भारतीय संस्कृति और परम्पराओं का रंग भरा, हालांकि इसी कारणवष कट्टरपंथी मुसलमान उन्हें कम महत्व देते थे। उनकी सुनाने की स्टाइल अनोखी थी, जिससे वह मुशयरों में छा जाते थे। आज मंच पर कवियों की सुनाने की स्टाइलों का जो कब्जा हो गया है, उनका जनक फिराक साहब को माना जा सकता है। राहत इंदौरी ने फिराक साहब की ही स्टाइल की कॉपी की। फिराक साहब बहुत बड़े षायर के रूप में मशहूर थे, लेकिन मुझे उनकी शयरी से अधिक उनके दार्षनिक व्यक्तित्व ने प्रभावित किया था। वह उच्चकोटि के दाशनिक थे। किसी भी विशय पर उनका दार्षनिक ज्ञान महासागर की भांति होता था। मुझे उनकी दार्षनिक ज्ञान-गंगा में गोते लगाने में बड़ा आनंद मिलता था और उनकी बातें सुनते-सुनते दो-दो घंटे कब बीत जाते थे, पता नहीं लगता था। मामूली से मामूली विशय पर वह ऐसा ज्ञान उंडेलते थे कि आष्चर्य होता था। कूड़ा, वेष्या, सेक्स, बचपन, जवानी, बुढ़ापा, जीवन, मृत्यु, विवाह-संस्था आदि किसी भी विशय पर उनका अद्भुत दार्षनिक रूप प्रकट होता था।

फिराक साहब में एक बहुत बुरी बात यह थी कि वह हिन्दी को बहुत गालियां दिया करते थे और यह उनकी आदत बन गई थी। किन्तु गोस्वामी तुलसीदास के वह अनन्य प्रशसक थे। मैं जब भी उनके पास जाता था, मेरी कोषिष होती थी कि उनका ध्यान किसी अन्य विशय की ओर मोड़ दूं, ताकि वह हिन्दी को गाली देना भूल जाएं और मैं उनकी सारगर्भित बातें सुनूं। एक बार मैं उनके पास गया तो मेरे साथ एक विद्यार्थी था। फिराक साहब के पूछने पर जैसे ही उसने बताया कि वह हिन्दी में एमए कर रहा है, फिराक साहब का हिन्दी के विरुद्ध गाली-अभियान षुरू हो गया। मैं बार-बार कोषिष करने लगा कि बात को दूसरी ओर मोड़ दूं, लेकिन सफल नहीं हुआ। फिराक साहब काबू में नहीं आ रहे थे। हिन्दी के प्रति उनकी अभद्रता मेरे लिए बर्दाष्त से बाहर होने लगी और फिर वह हुआ, जिसकी स्वयं मुझे भी कल्पना नहीं थी। एक विस्फोट हुआ और मैंने गरजते हुए फिराक साहब को ‘षटअप’ कहकर गुस्से से कांपते हुए उनसे कहा-‘‘अब आपने हिन्दी को गाली दी तो जूते मार-मारकर दिमाग सही कर दूंगा। आपको हिन्दी के बारे में… भर जानकारी नहीं है और हर समय गाली बकते रहते हैं।’’ उसी रौ में मैंने आगे कहा-‘‘हिन्दी से ज्यादा समृद्ध और ताकतवर दुनिया की कोई भाशा नहीं है। अंग्रेजी के षब्दकोश में कुल जितने षब्द हैं, हिंदी के उतने षब्द तो बाहर बिखरे पड़े हैं, जिन्हें हिन्दी के षब्कोशों में अभी तक षामिल नहीं किया गया है। हिन्दी के षब्दों की षक्ति का आपको कुछ भी ज्ञान नहीं है, बकवास करते रहते हैं।’’

मैंने गुस्से में ही फिराक साहब से पूछा-‘‘आपकी ही काव्य-पंक्ति है-‘कन्या अब कामिनी है होने वाली, आंखों को नयन बनाने वाले दिन हैं।’ बताइए कि इसमें नयन का क्या अर्थ है?’ फिराक साहब बोले कि नयन का मतलब अच्छी आंख है। मैंने कहा-‘‘देख लीजिए, आपको हिन्दी की षक्ति के बारे में कुछ नहीं पता है। आपने ‘नयन’ षब्द इस्तेमाल तो किया है, किन्तु आपको ज्ञान नहीं है कि आपने कितनी ऊंची बात कह दी है। ‘नयन’ षब्द का ‘आंख’ से बढ़कर विषेश अर्थ है। नयन की संधि है, नियते$अनया’, अर्थात वह मादक आंख, जो दूसरे को आकृश्ट कर सके। आपकी काव्य-पंक्ति का गहरा अर्थ यह है कि कन्या अब जवान हो रही है, जिससे उसकी आंखों में आकर्शण-षक्ति उत्पन्न हो रही है।’’ मेरे गरजते हुए इन कथनों पर फिराक साहब उठ खड़े हुए और मेरा हाथ अपने हाथ में लेकर बोले-‘‘श्याम बाबू, आपने मेरी आंखें खोल दीं। मैं आपकी विद्वता का लोहा मान गया।’’ उन्होंने किसी को आवाज देकर कहा-‘‘श्याम बाबू, के सम्मान में कभी भी कोई कमी हुई तो तुम्हें निकाल बाहर करूंगा।’’ अब तक मेरा क्रोध षांत हो चुका था और मैं यह कहकर उनके पास से विदा हुआ-‘‘रहने दीजिए फिराक साहब, आप नहीं बदलने वाले। हिन्दी को गाली देना आपकी आदत है और वह कल से फिर षुरू हो जाएगी।’’