भारत में बहुत कुछ…घटित हो रहा है ..!

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ध्रुवीकरण का उदय और पत्रकारिता पर इसका प्रभाव
ध्रुवीकरण का उदय और पत्रकारिता पर इसका प्रभाव

हृदयनारायण दीक्षित

भारतीय समाज पूर्वजों का प्रसाद है। वह हमारे पूर्वजो के सचेत और अचेत कर्म का परिणाम है। समाज प्राकृतिक रूप में सुचालक नही होते। उन्हे सुचालक बनाना पड़ता है। कुचालक समाज मे एक हिस्से का दुख दूसरे हिस्से को पता नही लगता। इसी तरह सुख भी है। यह भी संपूर्ण समाज मे व्यापक नही होता। पत्रकारिता सुख और दुख को एक कोने से दूसरे कोने तक ले जाती है। पत्रकारिता को जल्दबाजी मे लिखा साहित्य कहा जाता है। यह अल्पकालिक सृजन कर्म है। लेकिन भारतीय पत्रकारिता ने अल्पकालिक कर्म के दीर्घकालिक प्रभाव बनाए है। शब्द का प्रभाव गहरा होता है। भारतीय चिंतन मे शब्द को ब्रह्म कहा गया है। ब्रह्म सर्जक है। बाइबिल मे कहा गया है कि शब्द सबसे पहले था। पत्रकारिता समाज को संसूचित करती है। हम सूचना का सदुपयोग करते है और दुरूपयोग भी। सांस्कृतिक मूल्य ज्ञान और सूचना का उपयोग निर्धारित करते है। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम मे सांस्कृतिक मूल्यों की पक्षधरता थी इसकेे पक्ष मे पत्रकारिता ने सकारात्मक वातावरण बनाया था। राष्ट्रीय अस्मिता के बोध का जागरण देशव्यापी था। स्वाधीनता आन्दोलन के योद्धाओ ने वैचारिक क्रान्ति की। उन्होने पत्रकारिता को राष्ट्रवादी क्रान्ति का उपकरण बनाया था। लोकमान्य तिलक, गोपालकृष्ण गोखले, म॰ गांधी, मदन मोहन मालवीय, विपिन चंद्र पाल, राममनोहर लोहिया, गणेश शंकर विद्यार्थी, पराड़कर, माखन लाल चतुर्वेदी आदि अनेक महानुभावो ने पत्रकारिता को विचार प्रसार का प्रभावी माध्यम बनाया था।


30 मई को पत्रकारिता दिवस होता है। विचार गोष्ठियां होती हैं। इसी दिन कोलकाता से 1826 में ‘उदंत मार्तण्ड‘ नाम से हिन्दी का पहला अखबार प्रकाशित हुआ था। हिन्दी पत्रकारिता को ध्येयनिष्ठ बनाने के काम में हजारो महानुभावों ने तपस्या की है। गांधी जी दक्षिण अफ्रीका में थे। उन्होने वही पर इण्डियन ओपिनियन नाम से अपना समाचार पत्र निकाला था। वे राष्ट्रवादी पत्रकार थे। उनकी पत्रकारिता का लक्ष्य ब्रिटिशराज से संघष व स्वाधीन भारत के पक्ष मे वातावरण बनाना था । नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने ‘फारवर्ड ब्लाक‘ नाम से अखबार निकाला था। यह भी भारतीय राष्ट्रवाद का ध्वजवाहक था। पत्रकारिता को भारतीय जनतंत्र का चौथा स्तम्भ भी कहते है। पत्रकारिता का मूल उददेश्य लोकशिक्षण और अंततः लोक मंगल है। भारतीय चिन्तन दर्शन मे उपनिषदों की प्रतिष्ठा है। उपनिषद का अर्थ सत्य के समीप रहना है। ध्येय सेवी पत्रकारिता भी एक तरह से उपनिषद कर्म है। सत्य का अनुसंधान पत्रकारिता का कर्तव्य है। उपनिषदों का उददेश्य भी सत्य का अनुसंधान है। इसलिए पत्रकारिता राष्ट्रजीवन के उदान्त आदर्शों की संवाहक होनी चाहिए। वह समय की शल्य परीक्षा करती है। अशुभ से दूर रहने के तथ्य और तर्क देती है। पत्रकारिता मे केवल सत्य का दर्शन दिग्दर्शन ही नहीं होता। सत्य के साथ शिव भी होता है। शिव और लोकमंगल पर्यायवाची हैं।


पत्रकारिता ने स्वाधीनता आन्दोलन के ध्येय को घर घर पहुंचाया था। अनेक पत्रकार जेल भेजे गए थे। अनेक पत्रकारों को सजा हुई। लेकिन भारतीय राष्ट्रवाद की विचारधारा का क्रान्तिरथ सतत चलता रहा। पत्रकारों ने लेखन के नीति निर्देशक तत्वो का विकास किया। भारतीय संस्कृति की मूल धारा का स्वर कभी बाधित नहीं हुआ। अंग्रेजी राज के तमाम उत्पीड़न के बावजूद शब्द सत्ता का प्रवाह नहीं थमा। शब्द सत्ता ने जनसत्ता के विचार का संवर्द्धन किया। उन्होने विचार अभिव्यक्ति का सौन्दर्य बनाए रखा। विचार अभिव्यक्ति को संविधान मे मौलिक अधिकार बनाया गया। भारतीय जनतंत्र का मुख्य तत्व यही है। एक अध्ययन के अनुसार लगभग 50 हजार से ज्यादा समाचार पत्र पत्रिकाऐं हिन्दी मे प्रकाशित हो रही है। इनकी प्रसार संख्या 20 करोड़ अनुमानित है। अंग्रेजी अखबारों के पाठक कम है। इनकी प्रसार संख्या भी कम है। लेकिन अंग्रेजी की ठसक है। अंग्रेजी उनकी प्रियतम है। अंग्रेजी पाठकों का एक वर्ग भारत को प्राचीन राष्ट्र नही मानता। उनकी मान्यता है कि अंग्रेजो के भारत आने के पूर्व हम राष्ट्र नही थे। अंग्रेजो ने ही भारत को राष्ट्र बनाया। गांधी जी ने हिन्द स्वराज मे इस विचार का खण्डन किया है।


समाचार पत्र सरकार के प्रचार के लिए नहीं होते। वे आमजनो की कठिनाइयों को जगह देते है। सरकारी तंत्र को चाहिए कि जनसामान्य से जुड़े समाचारों पर कार्यवाई करे। संवेदनशील सरकारे ऐसा करती भी है। सरकार का पक्ष भी अखबारों में आना चाहिए। सम्प्रति समाचारपत्रों में नए शोध की जगह कम होती है। उत्खनन से प्राचीन इतिहास कि जानकारियां बढ़ती है। ज्यादातर मामलों मे ए0एस0आई0 द्वारा किये गए उत्खनन की खबरें महत्वपूर्ण स्थान नहीं पाती। राखीगढ़ी के उत्खनन से प्राचीन रथ मिले थे। सांस्कृतिक महत्व का यह समाचार प्रतिष्ठित स्थान नहीं पा सका । बेशक काशी की ज्ञानवापी के समाचार महत्वपूर्ण ढंग से प्रकाशित हो रहे हैं। पत्रकारिता के आधुनिक परिवेश मे राजनीतिक समाचारो की बाढ़ है । समाचार पत्र आरोपों प्रत्यारोपों से भरे रहते है। समाचार विश्लेषण की गुणवत्ता घट रही है । राजनैतिक घटनाओं मे शुक्ल पक्ष की वरीयता कम है, समाचारो मे कृष्ण पक्ष की बाढ़ है। समाचार लोकहित के लिए उत्साहित नहीं करते। ज्यादातर समाचार निराश करते है। राष्ट्रजीवन मे सब कुछ बुरा ही नहीं है। समाज मे बहुत कुछ अच्छा और अनुकरणीय भी घट रहा है। कायदे से अकरणीय की निन्दा व अनुकरणीय की प्रशंसा होनी चाहिए लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है।


भारत में बहुत कुछ प्रेरक भी घटित हो रहा है। उसका संवर्धन होना चाहिए । इसी तरह राष्ट्रजीवन के क्षतिकारी प्रसंगो को अतिरिक्त महत्व मिलना चाहिए। 1975-77 मे देश मे आपातकाल प्रवर्तित था। विचार अभिव्यक्ति के मौलिक अधिकार कुचल दिए गए थे। संवैधानिक संस्थाओं को तहस नहस किया जा रहा था। तमाम पत्रकार लड़े थे। यह स्मरणीय है। इसे भुलाया नहीं जा सकता। भारतीय जनतंत्र के मूल्य कुचले गए थे। उस समय भी समाचार पत्रों पर सेंसर था। आपातकाल पत्रकारिता के लिए नितांत बुरा समय था। उस बुरे समय का सटीक विवरण आज भी महत्वपूर्ण है। इस त्रासदी का स्मरण जब कब होते रहना चाहिए। आधुनिक पत्रकारिता तब से बहुत आगे बढ़ चुकी है। यह तकनीक से समृद्ध है। सूचनाओं का आदान प्रदान आसान हुआ है। ‘‘सबसे पहले‘‘ समाचार देने की प्रतिस्पर्धा है। ऐसे वातावरण में काम करना तनाव पैदा करता है। बावजूद इसके तमाम पत्रकार अपने मोर्चे पर सक्रिय हैं। पत्रकारिता सृजन कर्तव्य है। राष्ट्रजीवन के सभी क्षेत्रो में सृजन हो रहे है। वे उपयोगी है। समाचार माध्यमो मे उन्हे स्थान मिलना चाहिए। सांस्कृतिक क्षेत्र के सृजन की श्रेष्ठ प्रस्तुति की आवश्यकता है। भारत सांस्कृतिक राष्ट्र है। प्राचीन राष्ट्र भी है। इस प्राचीनता में आधुनिकता का सहज स्वीकार है। प्राचीनता की नीव पर आधुनिकता का विकास किया जाना चाहिए। आधुनिकता निरपेक्ष नहीं है। यह प्राचीनता की ही पुत्री है। पत्रकारिता में यह तथ्य आना चाहिए।