एक प्रोफेसर एवं वैज्ञानिक का राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का एक स्वयंसेवक बनना….!

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डा0 मुरली धर सिंह


एक राजकुमार का, एक प्रोफेसर का, एक वैज्ञानिक का राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का एक स्वयंसेवक बनना कितनी अनोखी घटना, सम्पूर्ण पारिवारिक, वैभव, एैश्वर्य आदि को त्याग कर एक मिशाल पेश करना आज मैं 1925 में स्थापित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के चौथे सरसंघचालक प्रो0 राजेन्द्र सिंह उर्फ रज्जू भैय्या जी के पुण्यतिथि 14 जुलाई 2022 को नमन करते हुये सभी को इस लेख को समर्पित करता हूं।रज्जू भैय्या जी के सम्बंध में जो भी कहा जाय वह छोटा है उस विराट पुरूष के लिए मेरे मन में कुछ लिखने का विचार आना प्रभु की कृपा है।जब आदमी राष्ट्र को ईश्वर को समर्पित करता है तो उसे अचल सत्ता प्राप्त होती है तथा उसका जन्म जीवन पूरे राष्ट्र का हो जाता है ऐसे में धु्रव महाराज, महर्षि विश्वामित्र, राजा जनक, भगवान गौतम बुद्व, भगवान महावीर की कड़ी में प्रो0 राजेन्द्र सिंह का नाम याद किया जायेगा।जब वर्ष 2025 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपनी शताब्दी वर्ष मनायेगा तो देश के गौरवशाली प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी होंगे एवं उत्तर प्रदेश के यशस्वी मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जी होंगे।

देश में आजादी का आंदोलन चल रहा था, महाराष्ट्र भूमि अपनी वीरता एवं ओजस्वियता के लिए जानी जाती है। आधुनिक भारत में उस भूमि पर भगवान श्री गणेश के अलावा और किसी की पूजा होती है तो वह छत्रपती शिवाजी महाराज की होती है। उन्हीं की वीरता, बहादुरी व राष्ट्र वाद से प्रेरित होकर विजय दशमी के दिन सन् 1925 को डा0 केशव बलिराम हेडगेवार जी द्वारा राष्ट्रीय स्वयंसेवक की स्थापना की गयी थी, जिसमें किसी व्यक्ति की पूजा का प्रावधान नही है जबकि इसमें ‘भगवा ध्वज‘ का पूजन होता है और इसी को लोग प्रणाम करते है। जिसको लोग ध्वज प्रणाम कहते है। इसमें मुख्य त्यौहार रक्षाबंधन, दशहरा एवं गुरू पूर्णिमा को मनाया जाता है। आज मेरे लेख लिखने का मुख्य उद्देश्य यह है कि आज ‘गुरू पूर्णिमा‘ है जिसमें हिन्दुस्तान में अनेक कार्यक्रम आयोजित हो रहे है तथा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के चौथे सरसंघचालक प्रो0 राजेन्द्र सिंह जी की पुण्यतिथि 14 जुलाई को पड़ रही है। 14 जुलाई 2003 को प्रो0 राजेन्द्र सिंह ‘रज्जू भैय्या‘ द्वारा अपने इस नाश्वर शरीर को त्याग कर साकेत गमन हुआ था। जो महाराष्ट्र की पुण्य भूमि एवं त्रेता युग कालीन दण्डकारण का हिस्सा था जो आधुनिक भारत में पुणे के नाम से जाना जाता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के चौथै सरसंघचालक प्रो0 राजेन्द्र सिंह एक कुलीन एवं जमीदार परिवार तथा तत्कालीन समय में नौकरशाही में प्रतिष्ठित परिवार तथा भगवान श्रीकृष्ण के क्षत्रिय चन्द्रवंशीय शाखा के जादौन परिवार में उत्तर प्रदेश के जनपद बुलन्दशहर के ‘बनैल‘ गांव में कुंवर बलवीर सिंह के ज्येष्ठ पुत्र के रूप में 29 जनवरी 1922 को हुआ था। इनके दादा का नाम कुंवर ठाकुर मेहताब सिंह था और इनकी माता का नाम ज्वाला देवी था जो अनन्दा माता के नाम से प्रसिद्व थी। इनके पिता 1916 के रूड़की इंजीनियर कालेज से सिविल इंजीनियर थे जो बाद में अंग्रेजी शासन के उत्तर प्रदेश के मुख्य अभियन्ता हुये। इनकी बड़ी बहन सुशीला का जन्म 1918 में, दूसरी बड़ी बहन चन्द्रावती का जन्म 1920 में तथा स्वयं रज्जू भैय्या का जन्म 1922 में तथा इनके दो छोटे भाईयों श्री बिजेन्द्र सिंह का 1926 में और दूसरे छोटे भाई यतीन्द्र सिंह का 1932 में हुआ था। जो भारतीय प्रशासनिक सेवा के राजस्थान कैडर के अधिकारी थे।

प्रो0 राजेन्द्र सिंह (रज्जू भैय्या) के पुण्य तिथि पर विशेष लेख (14 जुलाई 2022 पर विशेष लेख)।प्रो0 राजेन्द्र सिंह का अवतरण 29 जनवरी 1922 एवं साकेत गमन 14 जुलाई 2003।


प्रो0 राजेन्द्र सिंह के प्रारम्भिक शिक्षण की शुरूआत गांव में व दिल्ली माॅडल स्कूल में हुई थी। प्रारम्भिक जीवन शरीर से कमजोर थे तथा इनकी आंख में ‘टैªकोमा‘ नामक बीमारी थी जिसके कारण इनकी शिक्षा विदेश में नही हुई। जबकि छोटे भाईयों की शिक्षा इंग्लैंड में हुई थी। रज्जू भैय्या के जीवन पर इनके दादा ठाकुर मेहताब सिंह का ज्यादा प्रभाव पड़ा। इनके दादा के सादा जीवन उच्च विचार, कठोर परिश्रम के आचारण के कारण रज्जू भैय्या पूर्ण रूप से प्रभावित होग गये तथा इन्होंने परम्परागत भारतीयता को अपना जीवन आदर्श मान लिया। जरा पाठकगण सोचे एक व्यक्ति जो जमीनदार घर में पैदा हुआ हो तथा मुख्य अभियन्ता का ज्येष्ठ पुत्र हो और इसके दो छोटे भाई इंग्लैण्ड में शिक्षा प्राप्त कर रहे हों और वह स्वयं धोती कुर्ता पहनना ज्यादा पसंद करता है जबकि अंग्रेजियत के शासन में टाई सूट का ज्यादा महत्व था। 1934 का एक उदाहरण पेश करना चाहता हूं। 1934 में बिहार और नेपाल में बहुत बड़ा भूकम्प आया था जिसमें नेपाल के तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री शमशेर जंग बहादुर राणा ने सरकार ने मदद की अपील की थी। सरकार द्वारा इनके पिता कुंवर बलवीर साहब को नेपाल जाने के लिए नामित किया गया था। रज्जू भैय्या अपने पिता के साथ नेपाल गये और अपने निजी स्तर पर सरकार के सहयोग के रूप में प्रधानमंत्री श्री राना जी को एक रूपये का चांदी का सिक्का रूमाल में रखकर उपहार दिया। इससे प्रधानमंत्री अभिभूत हो गये तथा इनके पिता से कहा कि आपका यह बेटा बहुत बड़ा आदमी बनेगा और यदि आपकी अनुमति हो तो इनके नेपाल में बसने तथा शिक्षण की पूरी व्यवस्था करूंगा। इस प्रस्ताव को इनके पिता ने विनम्रता पूर्वक अस्वीकार कर दिया। इनके पिता जी की जब इलाहाबाद में तैनाती हुई तो वहां के प्रसिद्व डाक्टरों में प्रमुख डा0 अशोक सिंघल जी के पिता डा0 महावीर सिंघल जी थे। उनके परिवार से इनका लगाव हो गया तथा प्रसिद्व हिन्दू के स्तम्भ के रूप में प्रो0 राजेन्द्र सिंह व अशोक सिंघल उभरे, जिसको पूरा हिन्दुस्तान जानता है।


वर्ष 1939 में रज्जू भैय्या जी का इलाहाबाद विवि में डा0 अमरनाथ झा के प्रस्ताव पर दाखिला हुआ तथा डा0 अमरनाथ झा इनके मेरिट से इतने प्रभावित थे कि इनके बीच अध्यापक एवं शिष्य का रिश्ता न होकर पिता पुत्र समान रिश्ता हो गया तथा इनके सहपाठियों में प्रो0 रामचरण मेहरोत्रा राजर्षि टण्डन जी के पुत्र श्री दयानन्द जी गणितज्ञ हरिश्चन्द्र जी आदि प्रमुख थे। 1939 से लेकर 1945 तक इलाहाबाद की भूमि विशेषकर स्वराज एवं आनन्द भवन राजनीति का प्रमुख केन्द्र था। वहां पर महात्मा गांधी, नेता जी सुभाषचन्द्र बोस, राजा जी, बाबा आप्टे, पद्मजा नायडू, विजय लक्ष्मी पंडित, मदन मोहन मालवीय आदि हिन्दुस्तान के चोटी नेताओं का आगमन होता रहता था। उनसे रज्जू भैय्या का आना जाना, मिलना जुलना, प्रमुख था। रज्जू भैय्या ने अपने सामाजिक जीवन एवं शिक्षा को उच्च स्थान दिया। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बीएससी एवं एमएससी में प्रथम में प्रथम स्थान प्राप्त किया। 17 जुलाई 1943 को इनको भौतिक विज्ञान का अध्यापक नियुक्त किया गया। वहां इन्होनंे 23 वर्षो तक सेवाकाल के दौरान विभागाध्यक्ष तक की भी सेवाएं दी। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से इन्हंे जोड़ने का श्रेय श्री बापू राव मोघे को जाता है। श्री मोभे उम्र में इनसे लगभग 2 साल बड़े थे तथा वह भी काशी विश्वविद्यालय में विज्ञान के प्रखर विद्यार्थी थे इनके सहयोगियों में श्याम नारायण श्रीवास्तव प्रमुख थे। बाद में अशोक सिंघल एवं अन्य लोग जुड़ने लगे। उस समय प्रयाग में 1943-1945 में लगभग राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की 10 से 15 शाखाएं लगती थी। इनके जुड़ने से प्रयाग में 1946 में लगभग 40 शाखाएं हो गयी तथा 1946 में ही इलाहाबाद के पड़ोसी जनपद प्रतापगढ़ में भी शाखाएं शुरू करायी थी।


रज्जू भैय्या पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक प्रतिष्ठित जमीदार, अधिकारी परिवार से आते थे, जिसके कारण पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सभी सम्मानित लोग इनका आदर सम्मान करते थे जिसमें प्रमुख नेताओं में श्री चैधरी चरण सिंह से इनका परिवारिक रिश्ता था। चैधरी चरण सिंह की पत्नी गायत्री देवी इनको पुत्र की तरह मानती थी। 1975 में इमरजेंसी लगने के बाद भी यह सक्रिय रहे तथा 1977 में विपक्षी पार्टियों को एक मंच पर लाने में अपने निजी प्रभाव के कारण महत्वपूर्ण भूमिका निभाई जिसमें एक मंच पर चैधरी चरण सिंह, मोरार जी देसाई, जार्ज फर्नाडीस, चन्द्रशेखर एवं तत्कालीन आंदोलन के प्रणेता जयप्रकाश नारायण जी को बैठाया। इस कुशलता के कारण इनको राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ 1977 में सहसरसंघकार्यवाह बनाया गया तथा एक साल के अंदर ही 1978 में सरसंघकार्यवाह बनाया गया। 1978 में पटना के सदागत आश्रम में जयप्रकाश नारायण के बुलावे पर तत्कालीन सरसंघचालक श्री बाला साहब देवरस का अप्रैल माह में पटना आगमन हुआ। श्री देवरस जी के साथ रज्जू भैय्या जी उनके भाई के रूप में हमेशा साथ रहते थे। उस बैठक में श्री जयप्रकाश नारायण अस्वस्थ हो गये थे, लेकिन फिर भी संवाद हुआ। उस बैठक में मोरार जी देसाई, जार्ज फर्नाडीस, चन्द्रशेखर जी भी आये हुये थें उसमें निर्णय लिया गया कि रज्जू भैय्या जी को केन्द्रीय सरकार की कैबिनेट में लिया जाय, जिसका समर्थन सभी ने किया तथा तत्कालीन जनता पार्टी के महासचिव श्री नाना जी देशमुख ने भी जोरदार वकालत की, पर रज्जू भैय्या ने बताया कि राजनीति एक सेवा का माध्यम है इसी प्रकार नौकरशाही भी सेवा का माध्यम है। इसे राजनीति के माध्यम से नौकरशाही के माध्यम से पूरी क्षमता के साथ सेवा करनी चाहिए। मैं पूज्य देवरस जी के साथ लगा हूं मुझे इसमें लगा रहने दिया जाय। इस प्रकार इन्होंने विनम्रता पूर्वक अस्वीकार कर दिया। यह बात जयप्रकाश नारायण ने वर्तमान में राष्ट्रपति पद के विपक्षी उम्मीदवार जसवन्त सिन्हा से कही थी जो इनकी जीवनी में उल्लिखत है। जयप्रकाश नारायण ने राजनीति एवं नौकरशाही के सम्बंध में कहा था कि राजनेता एवं नौकरशाह को अपने वेतन के कमाई के पैसो से जीविकोपार्जन करना चाहिए तथा उसी पैसे को अपने बच्चों की शिक्षा मंे लगाना चाहिए तथा उनको सादगी भरा जीवन जीने की प्रेरणा देनी चाहिए। इस महान प्रोफेसर राजेन्द्र सिंह ‘रज्जू भैय्या‘ का साकेतगमन/देहावसान महाराष्ट्र के पुणे शहर के कौशिक आश्रम में 14 जुलाई 2003 को हुआ था। यह भूमि पुण्य भूमि कही जाती है तथा यहां भूमि भगवान श्री विट्ठल/श्रीकृष्ण एवं मां रूकमणि जी विदर्भ की धरती है जहां पर इन्होंने अंतिम सांस लगभग दोपहर लगभग 12ः30 बजे लिया था। वही पर इनका अगले दिन दाहसंस्कार किया गया था। इनका समाजसेवियों, तत्कालीन राजनेताओ के अलावा नौकरशाही में भी व्यापक सम्पर्क था। इसका कारण था कि इनके पिता का उस समय सरकार के प्रमुख अभियन्ता के पद पर तैनाती हुई। इससे अधिकारी भी इनका बड़ा सम्मान करते थे।


जरा सोचिए कोई भी व्यक्ति जो प्रतिष्ठित जमीदार परिवार एवं जिसका पिता उच्च श्रेणी का अधिकारी हो और वह स्वयं प्रोफेसर हो और उसका निजी जीवन बिल्कुल सादगी पूर्ण हो। ज्यादातर वह धोती कुर्ता पहनते थे और कभी कभी पैन्ट शर्ट भी पहनते थे वह अपने वेतन का लगभग 85 प्रतिशत हिस्सा गरीब छात्रों को बांट देते थे। सादगी की प्रतिमूर्ति इससे भी देखी जाती थी कि एक प्रोफेसर एक छोटा सा झोला अपने कन्धे में लटकाये हुये इलाहाबाद विवि के छात्रावासों में प्रतिदिन शाम को छात्रों से जाकर मिलता था और शाखा में आने के लिए विचार के माध्यम से प्रेरित करते थे। उदाहरण के तौर पर लगभग 100 छात्रों से मिलते थे तो 20-25 छात्र तैयार होते थे। रज्जू भैय्या जी का राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में सफर अनोखा था क्योंकि एक जमीदार का पौत्र एक अधिकारी का लड़का और स्वयं एक प्रोफेसर अपने जीवन के वैभव विलास को छोड़कर राष्ट्र के लिए साधारण जीवन जीना पसंद किया और इनकी विनम्रता की पराकाष्ठा अद्वितीय थी। मेरी इनसे मुलाकात जुलाई 1983 में हुई थी जो इनका निजी आवास था। जो प्रयाग में यात्रिक होटल के पास ही मिलती है। अनन्दा जो इनकी मां के नाम से बना था उसमें हुई थी, जहां पर वर्तमान में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कार्यालय है एवं सरस्वती शिशु मंदिर का स्कूल भी संचालित है। इनसे सम्बंध आजीवन बना रहा तथा मैं छात्रसंघ में छात्र नेता एवं विज्ञान के विद्यार्थियों को बहुत अपनापन देते थे। मैं उनको जब भी पत्र लिखता था तो उत्तर उनके सचिव पोस्टकार्ड पर शिव प्रसाद जी देते थे।  


प्रोफेसर राजेन्द्र सिंह का जन्म 29 जनवरी 1922 को श्रीमती ज्वालादेवी (उपाख्य अनंदा) व श्री कुंवर बलवीरसिंह जी के यहाँ उत्तरप्रदेश के बुलंदशहर जिले के बनैल गाँव में हुआ था, श्री बलवीरसिंह जी स्वतंत्र भारत में उत्तर प्रदेश के प्रथम भारतीय मुख्य अभियंता नियुक्त हुए, अत्यंत शालीन, तेजस्वी और ईमानदार अफसर के नाते उनकी ख्याति थी। पिताजी की सादगी, मितव्ययता और जीवन मूल्यों के प्रति सजगता का विशेष प्रभाव राजेन्द्र सिंह जी पर पडा। रज्जू भैय्या की प्रारंभिक पढाई बुलंदशहर, नैनीताल, उन्नाव और दिल्ली में हुई। बी.एस.सी. व एम.एस.सी. परीक्षा प्रयाग से उत्तीर्ण की। कोलेज में एक एंग्लोइंडियन से गांधी जी को लेकर वादविवाद हो गया। एंग्लोइंडियन गांधी जी को गलत ठहरा रहा था, जबकि रज्जू भैय्या गांधी जी को सही बता रहे थे। इस पर एंग्लोइंडियन ने उन्हें दो घूंसे लगा दिए। रज्जू भैय्या ने बदला लेना तय किया और व्यायाम शुरू किया। प्रतिदिन दो दो घंटे व्यायाम करते फिर एक दिन जब पुनः उस एंग्लोइंडियन से विवाद का मौका आया तो उसे एक मजबूत घूँसा जड़ दिया। रज्जू भैय्या का सम्बन्ध संघ से भले ही 1942 के बाद बना, किन्तु उनका समाज कार्य के प्रति रुझान प्रारम्भ से ही था जब वे बी.एस.सी. फाईनल में थे तभी 20 वर्ष की आयु में ही बिना उन्हें बताये उनका विवाह तय कर दिया गया। लड़की के पिता सेना में डॉक्टर थे, उनकी एम-एस.सी. की प्रयोगात्मक परीक्षा लेने नोबेल पुरस्कार विजेता डा. सी.वी.रमन आये थे। वे उनकी प्रतिभा से बहुत प्रभावित हुए तथा उन्हें अपने साथ बंगलौर चलकर शोध करने का आग्रह कियाय पर रज्जू भैया के जीवन का लक्ष्य तो कुछ और ही था। प्रयाग में उनका सम्पर्क संघ से हुआ और वे नियमित शाखा जाने लगे। संघ के तत्कालीन सरसंघचालक श्री गुरुजी से वे बहुत प्रभावित थे। 1943 में रज्जू भैया ने काशी से प्रथम वर्ष संघ शिक्षा वर्ग का प्रशिक्षण लिया। वहाँ श्री गुरुजी का ‘शिवाजी का पत्र, जयसिंह के नाम’ विषय पर जो बौद्धिक हुआ, उससे प्रेरित होकर उन्होंने अपना जीवन संघ कार्य हेतु समर्पित कर दिया। अब वे अध्यापन कार्य के अतिरिक्त शेष सारा समय संघ कार्य में लगाने लगे। उन्होंने घर में बता दिया कि वे विवाह के बन्धन में नहीं बधेंगे। प्राध्यापक रहते हुए रज्जू भैया अब संघ कार्य के लिए अब पूरे  उ.प्र.में प्रवास करने लगे। वे अपनी कक्षाओं का तालमेल ऐसे करते थे, जिससे छात्रों का अहित न हो तथा उन्हें सप्ताह में दो-तीन दिन प्रवास के लिए मिल जायें। पढ़ाने की रोचक शैली के कारण छात्र उनकी कक्षा के लिए उत्सुक रहते थे। रज्जू भैया सादा जीवन उच्च विचार के समर्थक थे। वे सदा तृतीय श्रेणी में ही प्रवास करते थे तथा प्रवास का सारा व्यय अपनी जेब से करते थे। इसके बावजूद जो पैसा बचता था, उसे वे चुपचाप निर्धन छात्रों की फीस तथा पुस्तकों पर व्यय कर देते थे।


1994 में संघ के तीसरे सरसंघचालक बालासाहेब देवरस ने अपने जीवनकाल में ही दिनांक 11 मार्च 1994 को प्रो0 राजेन्द्र सिंह का सरसंघचालक पद पर अभिषेक कर दिया। यह संघ में पहली घटना थी। उनकी प्रसिद्धि और विनम्र व्यवहार के कारण लोग उन्हें प्यार से रज्जू भैया कहते थे। उनके संबंध विभिन्न राजनीतिक दलों और विभिन्न विचारधारा के राजनेताओं और लोगों से थे। सभी संप्रदाय के आचार्यों और संतों के प्रति उनके मन में गहरी श्रद्धा थी। इसके कारण सभी वर्ग के लोगों का स्नेह और आशीर्वाद उन्हें प्राप्त था। देश-विदेश के वैज्ञानिक, खासकर सर सी.वी. रमण जैसे श्रेष्ठ वैज्ञानिक का रज्जू भैया से गहरा लगाव था। रज्जू भैया संघ के साथ 60 सालों तक जुड़े रहे और विभिन्न प्रकार के दायित्वों का निर्वाह करते रहे। इस तरह 1943 से 1966 तक वे प्रयाग विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य करते हुए भी अपने प्रचारक के दायित्वों का निर्वाह भ्रमण करके करते रहे। प्रथम वर्ष का प्रशिक्षण उन्होंने सन् 1943 में लिया। इस दौरान वे नगर कार्यवाह का दायित्व निभा रहे थे। द्वितीय वर्ष का प्रशिक्षण उन्होंने 1954 में लिया। इस दौरान भाऊराव उन्हें पूरे प्रांत का दायित्व सौंपकर बाहर जाने की तैयारी कर चुके थे। तृतीय वर्ष का प्रशिक्षण उन्होंने 1957 में लिया और उत्तर प्रदेश के दायित्व का निर्वहन करने लगे।


संघ यात्रा रज्जू भैया की संघ यात्रा असामान्य है। वे बाल्यकाल में नहीं युवावस्था में सजग व पूर्ण विकसित मेधा शक्ति लेकर प्रयाग आये। सन् 1942 में एम.एस.सी. प्रथम वर्ष में संघ की ओर आकर्षित हुए और केवल एक-डेढ़ वर्ष के सम्पर्क में एम.एससी. पास करते ही वे प्रयाग विश्वविद्यालय में व्याख्याता पद पाने के साथ-साथ प्रयाग के नगर कायर्वाह का दायित्व सँभालने की स्थिति में पहुँच गये। 1946 में प्रयाग विभाग के कार्यवाह, 1948 में जेल-यात्रा, 1949 में दो तीन विभागों को मिलाकर संभाग कार्यवाह, 1952 में प्रान्त कार्यवाह और 1954 में भाऊराव देवरस के प्रान्त छोड़ने के बाद उनकी जगह पूरे प्रान्त का दायित्व सँभालने लगे। 1961 में भाऊराव के वापस लौटने पर प्रान्त-प्रचारक का दायित्व उन्हें वापस देकर सह प्रान्त-प्रचारक के रूप में पुनः उनके सहयोगी बने। भाऊराव के कार्यक्षेत्र का विस्तार हुआ तो पुनः 1962 से 1965 तक उत्तर प्रदेश के प्रान्त प्रचारक, 1966 से 1974 तक सह क्षेत्र-प्रचारक व क्षेत्र-प्रचारक का दायित्व सँभाला। 1975 से 1977 तक आपातकाल में भूमिगत श्री गौरव सिंह बनकर लोकतन्त्र की वापसी का आन्दोलन खड़ा किया। 1977 में सह-सरकार्यवाह बने तो 1978 मार्च में श्री माधवराव मुले का सर-कार्यवाह का दायित्व भी उन्हें ही दिया गया। 1978 से 1987 तक इस दायित्व का निर्वाह करके 1989 में हो० वे० शेषाद्रि को यह दायित्व देकर सह-सरकार्यवाह के रूप में उनके सहयोगी बने।

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