आखिर कब तक जाति-जातिवाद का मकड़जाल..!

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आखिर कब तक जाति-जातिवाद का मकड़जाल..!

चुनाव आते ही हम जाति-जातिवाद,धर्म, ग्रंथ की बात में उलझ जाते हैं लेकिन शिक्षा की बात को आगे नहीं बढ़ते क्योंकि इन राजनेताओं को इस बात का आभास है कि जब समाज शिक्षित हो जाएगा तब वह अपने हक की बात करेगा इसलिए उसे जाति-जातिवाद,धर्म,ग्रंथ में उलझा कर रखो और शिक्षा से वंचित रखो।

राजू यादव

आज हमारा देश आजादी का 75 वां अमृत महोत्सव मना रहा है। शायद हम इन राजनीतिक मकड़जाल से कब निकलेंगे ऐसा कह पाना संभव नहीं है लेकिन आजकल जिस हिसाब से समाज में जातिगत जनगणना की मांग उठने लगी है उससे लगता है कि आजादी के हम सब 100 वर्ष पूर्ण करने पर जातिगत जनगणना के आधार पर हिस्सेदारी की बात कर पाने में शायद सफल हो पाए। अगर हम संख्या बल के आधार पर अपनी हिस्सेदारी की बात करें तो उसमें सबसे पीछे ओबीसी एससी एसटी निचले पायदान पर नजर आते हैं । जाति व्यवस्था क्षीण हो रही है, परन्तु राजनेता ‘जाति’ ‘जातिवाद’ का दोहन करने में आज भी अग्रसर है। यह एक विडंबना है कि जाति व्यवस्था में परिवर्तन के बावजूद जाति कायम है। धर्म और जाति की आड़ में वोट बैंक की राजनीति को पनपाने से हमारे प्रजातंत्र को गहरा आघात पहुंचाया जा रहा है। स्वतंत्रता के बाद हमारे शीर्षस्थ नेतृत्व ने जाति पर खुलकर प्रहार किए थे। आज की राजनीति में प्रहार तो दूर की बात है जातिवाद को खुलकर प्रोत्साहित किया जा रहा है।

जाति प्रथा मुख्यत: एक बुराई ही है। इसके कारण संकीर्णना की भावना का प्रसार होता है और सामाजिक,राष्ट्रिय एकता मे बाधा आती है जो कि राष्ट्रिय और आर्थिक प्रगति के लिए आवश्यक है। बङे पेमाने के उद्योग श्रमिको के अभाव मे लाभ प्राप्त नही कर सकते। जाति प्रथा में बेटा पिता के व्यवसाय को अपनाता है, इस व्यवस्था मे पेशे के परिवर्तन की सन्भावना बहुत कम हो जाती है। जाति प्रथा से उच्च श्रेणी के मनुष्यों में शारीरिक श्रम को निम्न समझने की भावना आ गई है। विशिष्टता की भावना उत्पन्न होने के कारण प्रगति धीमी गति से होता है। यह खुशी की बात है कि इस व्यवस्था की जङे अब ढीली होती जा रही है। वर्षो से शोषित अनुसूचित जाति के लोगो के उत्थान के लिए सरकार उच्च स्तर पर कार्य कर रही है। संविधान द्वारा उनको विशेष अधिकार दिए जा रहे है। उन्हे सरकारी पदो और शैक्षणिक सनस्थानो मे प्रवेश प्राप्ति मे प्राथमिकता और छुट दी जाती है। आज की पीढी का प्रमुख कर्त्तव्य जाति-व्यवस्था को समाप्त करना है क्योकि इसके कारण समाज मे असमानता,एकाधिकार,विद्वेष आदी दोष उत्पन्न हो जाते है। वर्गहीन एमव गतिहीन समाज की रचना के लिए अन्तर्जातीय भोज और विवाह होने चाहिए। इससे भारत की उन्नति होगी और भारत ही समतावादी राष्ट्र के रूप मे उभर सकेगा।चुनाव आते ही हम राजनीति के चंगुल में फँस कर जाति-जातिवाद हो कर अपने मार्ग का रोड़ा खुद बा खुद बन जाते हैं ।

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उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनावों में सफलता का एक प्रमुख कारण कम संख्या वाली जातियों को संगठित करना है।यह कहा जा रहा है कि भाजपा एवं सपा ऐसी पार्टी है जिसने सबसे पहले ‘माइक्रो कास्ट्स’ के प्रतिनिधियों से भेंटकर उनकी समस्याएं समझने का काम किया है,और हिस्सेदारी देने की बात भी कर रहा हैहम इस प्रकार के चुनावी ताने-बाने से प्रजातंत्र को जीवित नहीं रख पाएंगे। एक स्वच्छ राजनीति से प्रजातंत्र को बल मिलता है। आर्थिक सामाजिक प्रजातंत्र दृढ़ राजनीतिक प्रजातंत्र से प्राप्त किया जा सकता है। सत्ता की प्रतिस्पर्धा में राजनीतिक प्रजातंत्र को क्षीण कर आर्थिक सामाजिक बराबरी प्राप्त करने का उद्देश्य कभी साकार नहीं हो पाएगा। स्वच्छ राजनीति विरोधाभासों का हल ढूंढ़कर एक समतावादी समाज को दृढ़ बनाती है, कि नए विरोधाभासों को प्रोत्साहित करती है। ‘सूक्ष्म जातियों’ में सूक्ष्मता का भाव उत्पन्न कर, हम देश में अधिक संकीर्ण सोच उत्पन्न करने का कार्य कर रहे हैं।

यही नहीं हमारे देश और प्रदेश के शिक्षा मंत्री भी अपने चहेतों के लिए पत्र लिखते हैं किसी प्राइवेट संस्थान को यह हमारे चाहने वाले हैं जानने वाले हैं इनके बच्चे का प्रवेश अपने विद्यालय में कराएं।अब पूछिए प्रदेश के लिए कितने दुर्भाग्य की बात है कि शिक्षा मंत्री जो जिस विभाग का मुखिया है वही अपने विभाग की तोहीन किसी प्राइवेट संस्थान के सामने कराता है।आजादी के बाद से बहुत से कानून बने और बिगड़े लेकिन ऐसा कोई कानून नहीं बना कि सरकारी कर्मचारी के बच्चे सरकारी संस्थान में ही शिक्षा ग्रहण करेंगे अगर ऐसा कोई कानून बन जाता है तो देश एवं प्रदेश के शिक्षा का स्तर काफी उच्च हो जाएगा और हमारी शिक्षा का मूल्यांकन भी ऊपर जाता।हमारा स्तर कैसे सुधरेगा विचार करें।

आज जाति की तर्ज पर धर्म का दोहन किया जा रहा है। गत कुछ वर्षों में स्वछंद, स्वयंभू स्व-नियुक्त व्यक्तियों और उनके समर्थकों का तीव्रता से उभार हुआ है। वर्तमान राजनीतिक वातावरण ने एक नए ‘संस्कृतिवाद’ को प्रोत्साहित किया है। सांप्रदायिक तनाव खींचतान इसका परिणाम है। तथाकथित गोरक्षक इसका ज्वलंत उदाहरण है। देश के अनेक भागों में गोरक्षकों ने कानून को ताक में रखते हुए लोगों को यातनाएं दी हैं और कुछ को तो मौत के घाट भी उतारा है।

यह कैसी व्यव्स्था है? बच्चियों से बलात्कार उसके बाद हत्या,अपहरण,छीना-झपटी,एटीएम कार्डों की क्लोनिंग आदि आम आदमी के जीवन को दूभर किए हुए हैं। अतिक्रमण पैदल चलने वालों के लिए भी परेशानी बने हुए हैं। बेरोजगारों की भीड़ चारों ओर दिखाई देती है। यह अत्यन्त गंभीर प्रश्न है। शासन आधारभूत समस्याओं पर ध्यान क्यों नहीं देता? चुनावों से पूर्व घोषणाओं, शिलान्यासों और लोकार्पणों से क्या इन प्रश्नों के उत्तर मिल पाएंगे? क्षीण हो रही जाति-व्यवस्था को जातिभाव, जातिवाद जातिसूचक संबोधनों से जीवित रखने के प्रयास प्रजातंत्र के लिए घातक हैं। आम आदमी ‘मिथ्या चेतना’ से ग्रस्त है। राजनेता समाज के ठेकेदार इस मिथ्या जागरूकता के द्वारा अपना राजनीतिक स्वार्थ सिद्ध करने में लगे हैं।

आखिर कब तक जाति-जातिवाद का मकड़जाल..!