जीत की देहरी पर खड़े अखिलेश यादव

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2016 के थोड़े ठंढ़े थोड़ी गर्मियों के दिन थे. उत्तरप्रदेश अपने अगले भाग्यविधाता की बाट जोह रहा था. सियासी सर्कस के रिंगमास्टर अपने अपने करतबों की नुमाईश में लगे थे. सरकार जवाबदेही के मोर्चे पर थी तो सैफई परिवार अपने झगड़ों में. इन्हीं महीनों में मेरी समझ मजबूत हो रही थी कि अखिलेश सरकार दुबारा नहीं आने वाली. एक दिन परिणाम आए लेकिन अखिलेश नहीं आए.

पाँच साल बाद फिर वही महीने हैं. फिर मौसम ने वही करवट बदली है जो उस समय बदली थी. सियासी मौसम भी कम दिलचस्प नहीं है. स्वतंत्रदेवों, उपेंद्र तिवारियों वाले इस योगी निज़ाम का योग ठीक नहीं चल रहा है. लखनऊ दिल्ली का आपसी तनाव सार्वजनिक दिख चुका है. योगी सरकार, योगी सरकार के समर्थक कितने संवेदनशील और सहिष्णु हैं, ये गोरखपुर पुलिस द्वारा मुख्यमंत्री के शहर में ही क़त्ल कर दिए मनीष गुप्ता प्रकरण में साफ़ देखा जा सकता है. भाजपा नेता और केंद्रीय गृह राज्यमंत्री की कार से कुचले गए आंदोलनकारी किसानों की मौत पर जो असंवेदनशील सरकारी, गैर सरकारी रवैया अपनाया गया, उससे विदाई की पटकथा को मजबूत संवाद ही मिले हैं. ‘यूपी को ये साथ पसंद है’ से लेकर ‘योगी हैं तो यक़ीन है’ के जुमलों में बहुतेरे मुझसे असहमत थे, असहमत हैं. ख़ैर सबकी अपनी अपनी समझ है. परिणाम मायने रखते हैं, पूर्वाग्रह नहीं.

उत्तर प्रदेश का मौजूदा सियासी मानचित्र देखें योगी सरकार के विकल्प के रूप में अखिलेश यादव सबसे मज़बूत दिखते हैं. सियासी पर्यटन कहना थोड़ा आक्रामक और सियासी टिप्पणी हो जाएगी, इसलिए मैं प्रियंका गाँधी की राजनीतिक सक्रियता को मौसमी कहना ज़्यादा पसंद करूँगा. राजनीति बारह महीनों का काम है, इसमें आप अपनी सुविधानुसार आ जा नहीं सकते. लेकिन 10 जनपथ की अगली पीढ़ी निजी सुविधाओं का पूरा ख़याल रखती है. और यही सुविधा कांग्रेस पर भारी है और कांग्रेस राजनीतिक तौर पर लगातार हल्की होती जा रही है.

योगी सरकार की कृपा से प्रियंका गाँधी भले मीडिया की सुर्खियां बटोर रहीं हैं, लेकिन वोटों पर मज़बूत किलेबन्दी अखिलेश यादव की ही नज़र आती है. और यही मज़बूत किलेबन्दी सरकार के रणनीतिकारों पर बहुत भारी पड़ रही है. 2017 के चुनावों में मुलायम सिंह के लोगों और मुलायम सिंह की रणनीतियों से इतर चुनाव लड़ना भी अखिलेश सरकार के दुबारा ना आने की एक मजबूत वज़ह थी. 2021- 22 के अखिलेश यादव को देखें तो उनमें आपको आत्मविश्वास के साथ एक बेहद मज़बूत राजनीतिक रणनीतिकार दिखेगा. एक ऐसा रणनीतिकार जिसने अपनी गल्तियों से सीखा है, गल्तियों को सुधारा है. मुलायम सिंह की राजनीति की वापसी हुई है.

अखिलेश यादव की सधी चालों के परिणाम दिखने लगे हैं. विपक्षी पार्टियों के दिग्गज नेता जिस तरह से सपा शरणं गच्छामि हो रहे हैं, वो ये बताता है कि भरोसे की बात भईया के साथ स्थापित हो चुकी है.और ऐसा नहीं है कि आने वाले सारे लोगों को लिया जा रहा है. कई मौजूदा जनप्रतिनिधियों को विक्रमादित्य मार्ग से बैरंग वापस लौटना पड़ा है. बाकी चुनावों के ठीक पहले हिन्दुत्व के ढ़ेर सारे सिपाही समाजवाद का झंडा लेकर घूमते नज़र आने वाले हैं. वैसे भी भाजपाईयों का समाजवाद की तरफ पलायन कोई नहीं बात नहीं है. हिन्दू हृदय सम्राट माने जाने वाले कल्याण सिंह समाजवाद की लाल टोपी पहनकर समाजवादी सत्ता का सुख भोग चुके हैं.

जीत की देहरी पर खड़े दिखते अखिलेश यादव के लिए आख़िरी चुनौती पश्चिम और अपने घरेलू इलाके की रह गई है. पश्चिम में उनको अपने मित्र और स्वाभाविक सहयोगी जयन्त चौधरी से लंच की टेबल पर सियासी दुरूहता आसान करनी है तो घर और आस पड़ोस ठीक रखने के लिए चाचा शिवपाल को समझना है. सम्मान देना है. अखिलेश जिस तरह से मौके पर चौके मार रहे हैं, लगता नहीं कि वो सेंचुरी (सत्ता) के पहले आउट होने वाले हैं. बाकी राजनीति संभावनाओं का खेल है. अवसरों का खेल है. लाज़िम है हम भी देखेंगे.


डॉ0 अम्बरीष राय