क्या अतिपिछड़ी जातियाँ राजनीतिक दलों के लिए महज वोटबैंक..?

98
चौ0 लौटनराम निषाद

उत्तर प्रदेश में अति पिछड़ों के पास राजनीतिक परिवर्तन की ताकत है। अति पिछड़ा वर्ग जिस राजनीतिक दल के पाले में गया, वही दल सबसे बड़े दल के रूप में उभरा। शुरुआती दौर में पिछड़े अति-पिछड़े मुलायम के साथ मजबूती से जुड़े थे, लेकिन मंदिर आन्दोलन के दौरान जब पिछड़े वर्ग के कल्याण सिंह मुख्यमंत्री बने तो अति पिछड़े वर्ग के निषाद, लोधी, बिन्द, कश्यप के साथ-साथ मौर्य, कुशवाहा, पाल, बघेल, राजभर, चौहान, किसान, साहू, प्रजापति आदि भाजपा के साथ मजबूती से जुड़ गए। 2002 के विधान सभा में पुनः अति पिछड़ा वर्ग समाजवादी पार्टी के साथ आया, लेकिन अपने को उपेक्षित महसूस करते हुए 2007 के विधान सभा चुनाव में अतिपिछड़ा वर्ग मायावती के पाले में चला गया और इस तरह लम्बे समय के बाद उत्तर प्रदेश में बसपा की पूर्ण बहुमत की सरकार बनी। 17 अति पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल करने के विरोध के कारण ये जातियां बसपा से खार खा गईं और 2012 के विधानसभा चुनाव में सपा के साथ मजबूती से जुड़ गईं और अखिलेश यादव के नेतृत्व में सपा की पूर्ण बहुमत की सरकार बनी।

लोकसभा चुनाव 2014 से पूर्व भाजपा के प्रदेश प्रभारी अमित शाह ने प्रदेश में अति पिछड़ा कार्ड को बड़ी तेजी से उभारा और सामाजिक न्याय मोर्चा व मछुआरा प्रकोष्ठ के माध्यम से अति पिछड़ों के मुद्दों को धारदार बनाया।27 जून 2013 को मछुआरा प्रकोष्ठ के तत्कालीन प्रदेश संयोजक लौटन राम निषाद ने प्रदेश कार्य समिति की बैठक में राजनाथ सिंह व अमित शाह के सामने एक प्रस्ताव रखा था कि भाजपा पिछड़ा वर्ग प्रकोष्ठ का नाम बदल कर सामाजिक न्याय मोर्चा रखा जाए, जिसे अनुमति प्रदान कर दी गई है और यह मोर्चा भाजपा के लिए वोट बैंक की ताकत बनाने में काफी कारगर साबित हुआ।

अखिलेश यादव की सरकार में भी अतिपिछड़ों को किसी तरह का सम्मान नहीं मिला।अखिलेश कैबिनेट में जहाँ 5 ब्राह्मण,6-6 मुस्लिम व राजपूत,7 यादव को स्थान दिया गया,लेकिन अतिपिछड़े उपेक्षित ही रह गए।निषाद/कश्यप,लोधी/किसान,कुशवाहा/शाक्य,राजभर जैसी जातियों को रजनीतिक रूप से नजरअंदाज करने का भाजपा को बड़ा लाभ मिला।


लोकसभा चुनाव-2014 में भाजपा उत्तर प्रदेश में 40 सीटें जीतने का लक्ष्य बनाकर काम कर रही थी. राजनाथ सिंह, अमित शाह, वेंकैया नायडू आदि कहते थे कि प्रदेश में हमें 40 सीटें जीतनी हैं। जबकि अति-पिछड़ों को ज्यादा से ज्यादा भागीदारी देने पर उत्तर प्रदेश में 65 से 70 तथा बिहार व झारखंड मिला कर सौ से अधिक सीटें जीतने का दावा मोर्चा द्वारा किया गया था, जो आखिरकार सत्य साबित हुआ।

उत्तर प्रदेश की ग्रामीण आबादी में लगभग 17 फीसद से अधिक अति पिछड़े हैं। प्रदेश में 17 अति पिछड़ी जातियों में 13 उपजातियां- मछुआ, मल्लाह, बिन्द, केवट, धीमर, धीवर, गोड़िया,कहार , कश्यप, रैकवार, मांझी, तुरहा, बाथम आदि निषाद समुदाय की हैं। जिनकी संख्या 12.91 प्रतिशत है। भर, राजभर 1.31 प्रतिशत व कुम्हार, प्रजापति 1.84 प्रतिशत हैं। उत्तर प्रदेश की ग्रामीण जनसंख्या में 17 अतिपिछड़ी जातियों की संख्या 17 प्रतिशत से अधिक है, जो चुनावी दृष्टिकोण से खासी महत्वपूर्ण है। 2007 में ये बसपा के साथ थीं तो 2012 में सपा की तरफ मुड़ गयीं। 2017 में तो इन जातियों सहित अधिकांश गैर यादव पिछड़ी जातियां भाजपा की खेवनहार बन गईं। 2004 से 17 अतिपिछड़ी जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल करने का मुद्दा गर्म है। राजनीतिक दलों के लिए ये महज वोटबैंक बनकर रह गयी हैं। राष्ट्रीय निषाद संघ के राष्ट्रीय सचिव ने कहा कि सपा, बसपा की पूर्ववर्ती सरकारों ने केंद्र सरकार को पत्र व प्रस्ताव भेजकर अनुसूचित जाति में शामिल करने की सिफारिश की। इसके बाद भी आजतक इन्हें अनुसूचित जाति का दर्जा नहीं मिला।


2022 के विधानसभा चुनाव में जीत किसे मिलेगी, यह तो समय ही बातएगा, लेकिन इतना तय दिखता है कि सपा ने अति-पिछड़ों को विश्वास में बनाए रखा तो सपा की सत्ता में वापसी हो सकती है।भाजपा व सपा दोनों पिछड़ी,दलित जातियों को अपने साथ जोड़ने के लिए हर जुगत बिठा रहे हैं।किसान आंदोलन से भाजपा हलकान है।इधर कांग्रेस की सक्रियता से सपा की परेशानी बढ़ सकती है।

उत्तर प्रदेश के सामाजिक व जातिगत समीकरण में सामाजिक न्याय समिति-2001 के आकलन के अनुसार ग्रामीण अंचल की जनसंख्या में सवर्ण-20.95, अन्य पिछड़ा वर्ग-54.05,अनुसूचित जातियाँ-24.94 व जनजाति-0.06 प्रतिशत थीं।अन्य पिछड़ा वर्ग में यादव-अहिर 10.48, अति-पिछड़ा (कुर्मी, लोधी,जाट,गूजर,कलवार,गोसाई अर्कवंशी,सोनार) – 10.22 प्रतिशत तथा अत्यन्त पिछड़ी जातियों की संख्या – 33.34 प्रतिशत है।अन्य पिछड़े वर्ग की 54.05% आबादी में कुर्मी – 7.46, लोधी-किसान- 6.06, पाल बघेल – 4.43, केवट-मल्लाह निषाद – 4.33, मोमिन – अंसार- 4.15, तेली – साहू – 4.03, जाट- 3.60,प्रजापति- 3.42, कहार-कश्यप- 3.31, काछी कुशवाहा – 3.25, हज्जाम-नाई- 3.01, राजभर- 2.44, बढ़ई विश्वकर्मा – 2.44, नोनिया-चौहान – 2.33, मुरांव-मौर्य – 2.00, फकीर – 1.93, लोहार – 1.81, गूजर – 1.71, कोयरी – 1.80, कन्डेरा – मंसूरी – 1.61, माली – सैनी – 1,44, भुर्जी- कांदू- 1.43, दर्जी- -1.041 प्रतिशत तथा अन्य अत्यन्त पिछड़े-12.97 प्रतिशत हैं।उत्तर प्रदेश मंत्रिमंडल में निषाद,लोधी,पाल,बिन्द, यादव,पासी,जाटव जैसी मजबूत आधार वाली जातियों का कोई भी कैबिनेट मंत्री नहीं है।

विधानसभा चुनाव-2017 में भाजपा ने टिकट वितरण में पिछड़ों को अन्य दलों से कहीं अधिक टिकट दिया था जिसमें 139 में 112 विधान सभा में पहुँचे।उल्लेखनीय है कि वर्ष 2001-02 में सामाजिक न्याय समिति की रिपोर्ट लागू करके तत्कालीन भाजपा सरकार ने पिछड़ों के एक बड़े वर्ग ही नहीं बल्कि दलित खेमे में भी हलचल पैदा कर दी थी। पिछड़ों व दलितों की राजनीति करने वाली सपा, बसपा में भी इस प्रयोग को लेकर काफी चिंता हो गई थी. पिछड़ों में अति पिछड़ों और दलितों में अति दलितों को आरक्षण का सवाल तब इतना मुखर हुआ था कि एक बार लोगों को लगने लगा था कि इस हथियार से भाजपा प्रदेश की राजनीति में कोई बड़ा उलटफेर न कर दे, लेकिन ऐसा नहीं हो पाया। विधानसभा चुनाव में इस मुद्दे को कैश करने वाले चेहरे की कमी के कारण भाजपा को इसका फायदा नहीं मिला था।लेकिन 2014, 2017 व 2019 में भाजपा को अतिपिछडों को थोक में समर्थन मिला।2022 के लिए भाजपा नेतृत्व एक बार फिर अतिपिछड़ों को साधने की कवायद में चिंतन कर रहा है।निषाद वोटबैंक के लिए भाजपा,सपा व कांग्रेस काफी हाथ पैर मार रहे हैं।निषाद जातियों को अनुसूचित जाति का आरक्षण देने व पिछड़ा वर्ग के उपविभाजन करने का निर्णय लेने में भाजपा गम्भीरता से विचार कर रही है।


अति पिछड़ों और अति दलितों को तरजीह देने का असर हर बार दिखाई पड़ता है।सभी राजनीतिक दलों में अब अति पिछड़ों व अति दलितों को प्राथमिकता दिए जाने का सवाल सता रहा है। भाजपा के सामने 2002 की तरह इस मुद्दे को अति पिछड़ों व अति दलितों के बीच ठीक से रखने वाले विश्वसनीय चेहरे का सवाल अब भी वैसे ही खड़ा है। पिछड़ों के नाम पर जो नेता भाजपा के पास हैं उनका अपने वर्ग के बीच एक तरह से सीमित क्षेत्र में ही असर है और जो दलित नेता भाजपा के पास हैं, वह उनका इस्तेमाल नहीं कर पा रही है। जिलों से प्रदेश और प्रदेश से लेकर दिल्ली तक मुख्य संगठन में इन वर्गों के लोग कहां-कहां महत्वपूर्ण पदों पर हैं यह देख कर भी इन वर्गों से जुड़े लोगों को निराशा ही होती है।योगी मंत्रिमंडल में जो भी पिछड़े,दलित मंत्री व विधायक हैं,शासन-प्रशासन में उनकी कोई सुनवाई नहीं होने से वे समाज में कोई प्रभाव नहीं छोड़ पा रहे हैं।