भाजपा का कारपोरेट कल्चर

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प्रदेश -भाजपा में बुनियादी सुधार हो…


श्याम कुमार

भारतीय जनता पार्टी एवं कांग्रेस में मूलभूत अंतर है। कांग्रेस का जन्म अंग्रेज की कोख से अंग्रेजों के हितों की रक्षा के लिए हुआ था, जबकि भारतीय जनता पार्टी का जन्म राष्ट्रवाद की कोख से राष्ट्रवाद की रक्षा के लिए हुआ। कांग्रेस की स्थापना अंग्रेज नौकरशाह ओएच ह्यूम ने की थी तो भारतीय जनता पार्टी की स्थापना प्रखर राष्ट्रवादी नेता डाॅ0 श्यामा प्रसाद मुखर्जी द्वारा हुई। भाजपा को दीनदयाल उपाध्याय-जैसे महान नेता ने ‘ चाल, चरित्र और चेहरा ’ के दिव्य संस्कार दिए तथा लालकृष्ण आडवाणी ने पार्टी को शून्य से शिखर पर पहुंचाया। आज अडवाणी की बदौलत ही भारतीय जनता पार्टी विश्व की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी बन गई है।

भारतीय जनता पार्टी का व्यापक विस्तार तो हो गया, लेकिन इस बात की सावधानी नहीं बरती जा रही है कि भाजपा और कांग्रेस में राष्ट्रवाद को लेकर जो बुनियादी अंतर है, उसकी हर हाल में रक्षा होनी चाहिए। कांग्रेस में जब राश्ट्रवादी नेताओं का अंत होता गया, जिन्होंने अंग्रेजों के हितों की रक्षा के लिए स्थापित पार्टी को राष्ट्रवादी रूप दिया था तो पार्टी में जवाहरलाल नेहरू का वर्चस्व स्थापित हो गया। परिणाम यह हुआ कि कांग्रेस का पुनः ओएच ह्यूम वाला पाष्चात्य चरित्र बन गया। आम मत है कि भाजपा का नेहरू की नीतियों के विरोध वाला रवैया हर हाल में कायम रहना चाहिए।

प्रमोद महाजन ने भारतीय जनता पार्टी को आधुनिक रूप देने की शुरुआत की थी, लेकिन बाद में पार्टी के कर्णधारों ने सावधानी नहीं बरती तथा धीरे-धीरे उसका ‘कारपोरेट कल्चर’ वाला रूप बनता गया। इस समय लखनऊ में प्रदेश-भाजपा के मुख्ययालय का हाल देखकर तो ऐसा ही प्रतीत होता है। उसका विशाल भवन दो भवनों को मिलाकर बना है। एक तो उसकी पहले से अपनी इमारत थी, जिसके साथ दूसरा वह भवन मिला लिया गया, जिसमें मुख्यमंत्री कमलापति त्रिपाठी रहा करते थे। भवन का विशाल शरीर तो बन गया है, लेकिन उसमें अब जैसे आत्मा का लोप हो गया है। भाजपा पूरी तरह कोई ‘कारपोरेट आफिस’ लगने लगी है।

कोरोना ने किया अनाथ,कौन बनेगा नाथ..!

प्रदेश-मुख्यालय में पदाधिकारियों के बैठने के लिए छोटे-छोटे दरबे-जैसे केबिन बनाए गए हैं, ताकि वहां किसी पदाधिकारी के पास अधिक लोग न बैठ सकें। सुना तो यह जाता है कि यह गुप्त आदेश है कि किसी भी पदाधिकारी के पास कोई आगंतुक अधिक देर तक न बैठे, जबकि राजनीतिक दल की विषेशता ही यह होती है कि वहां लोगों की भारी भीड़ हरसमय रहे। इससे पार्टी जीवंत एवं लोकप्रिय प्रतीत होती है। प्रदेश-भाजपा के मुख्यालय में सर्वत्र सन्नाटा पसरा दिखाई देता है।

प्रदेश-मुख्यालय में पदाधिकारियों के दर्षन दुर्लभ रहते हैं। पार्टी के मुख्यालय-प्रभारी भारत दीक्षित अवश्य मौजूद रहते हैं, जो अपने मृदु एवं मददगार स्वभाव के कारण लोकप्रिय हैं। उनसे पहले गणेशदत्त नैथानी मुख्यालय-प्रभारी थे और वह भी अपने अच्छे एवं मददगार स्वभाव के कारण बहुत लोकप्रिय थे। लेकिन भारत दीक्षित वाला कमरा भी छोटे दरबे-जैसा बनाया गया है, जहां लोगों के देर तक बैठने की मनाही है। वहां देर तक न बैठने का निवेदन करने वाली एक तख्ती लगी हुई है। इन बंधनों का नतीजा है कि लोगों को अनेक पदाधिकारियों का आज तक दीदार नहीं हो सका है।

जब कल्याण सिंह व राजनाथ सिंह प्रदेश-अध्यक्ष थे तो उनके कक्ष में हम पत्रकारों का जमावड़ा रहता था तथा उनसे बड़ा अपनापन महसूस होता था। लेकिन अब तो प्रदेश-अध्यक्ष का उपलब्ध हो पाना ही कठिन है। लक्ष्मीकांत वाजपेयी अवश्य बहुत सुलभ रहते थे तथा पत्रकारों का बड़ा सम्मान करते थे। उनकी बड़ी लोकप्रियता थी। जब केशव प्रसाद मौर्य पार्टी-अध्यक्ष बने तो वह लोगों के लिए दुर्लभ हो गए। स्वतंत्र देव सिंह भी दुर्लभता से ग्रस्त हैं। और तो और, पार्टी के महामंत्री सुनील बंसल से भेंट हो पाना भी टेढ़ी खीर है।

कार्यकर्ताओं का सबसे बड़ा दर्द यह है कि उन्होंने पार्टी के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया, लेकिन वहां उन्हें कोई महत्व या सम्मान नहीं दिया जाता है। कार्यकर्ता पार्टी की रीढ़ होते हैं, अतः इस ओर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए। उन्हें कुछ न कुछ छोटे-छोटे महत्वपूर्ण दायित्व सौंपे जा सकते हैं। मुष्किल यह है कि जब पार्टी के कर्णधार ही दुर्लभ हों तो कार्यकर्ताओं की ओर ध्यान कौन दे? पार्टी-मुख्यालय में नित्यप्रति प्रदेशभर से कार्यकर्ताओं का आगमन होते रहना चाहिए, जहां उनसे अपनत्व जताने वाले, उनके दुखदर्द को समझने वाले तथा उनकी समस्याओं को सुलझाने वाले मौजूद रहें। लेकिन पार्टी में जब कर्णधारों की अनुपस्थिति हो तो कार्यकर्ताओं का उपेक्षित रहना स्वाभाविक है।

दिल्ली से लखनऊ तक पार्टी में किसी को फुरसत नहीं है कि इस ओर ध्यान दे। कार्यकर्ताओं की मजबूरी यह है कि भारतीय जनता पार्टी अकेली राष्ट्रवादी पार्टी है, इसलिए अपने राष्ट्रवादी विचारों के कारण उन कार्यकर्ताओं के पास कोई और ठौर नहीं है। कभी शिवसेना में लोगों को आशा की किरण दिखाई देती थी, लेकिन वह कांग्रेस की गोद में बैठ गई।

जब प्रदेश-मुख्यालय में पार्टी-कार्यकर्ताओं की यह उपेक्षा है तो वहां आम जनता को कौन पूछे! जबकि वहां यदि आम जनता को सम्मान मिले तो मनोवैज्ञानिक रूप से उसका पार्टी से जुड़ाव होगा। पार्टी-मुख्यालय में कार्यकर्ताओं की समस्याओं को सम्यक रूप से सुनकर उनके निवारण की ठोस व्यवस्था की जानी चाहिए, ताकि वे अपने वैचारिक परिवार के रूप में पार्टी को अपना संरक्षक समझ सकें। वहां पर प्रदेषभर से आने वाले कार्यकर्ताओं की बातें सुनने का तंत्र होना चाहिए तथा सरकार को भी कार्यकर्ताओं की समस्याओं के अविलम्ब निस्तारण की व्यवस्था करनी चाहिए।
पार्टी के एक समर्पित कार्यकर्ता हैं, योगी जी के गृहनगर गोरखपुर में रहने वाले राजीव द्विवेदी। उन्होंने मेरा ‘निर्विभागीय उपमुख्यमंत्री की जरूरत शीर्शक आलेख पढ़कर फेसबुक में इन शब्दों में अपना कश्ट बयान किया-‘‘गवर्नमेंट के तीन अवगुण हैं-ब्यूरोक्रेसी, ब्यूरोक्रेसी, ब्यूरोके्रसी। मैं मूलतः गोरखपुर से हूं, मेरे पूज्य पिताजी व चाचाजी महानगर भाजपा की रीढ़ रहे तथा पदाधिकारी थे। चाचाजी महानगर अध्यक्ष थे।

मैं स्वयं युवा मोर्चे का तेरह वर्श पूर्व महानगर अध्यक्ष रहा। मेरी स्वयं की जमीन कुछ चार सौ बीस लोग हथिया के बैठे हैं, पर आईजीआरएस पोर्टल पर लिखापढ़ी कर मामला टांय-टांय-फिस्स हो जाता है।’’ यह पार्टी के कर्णधारों के लिए बड़े शर्म की बात है कि उनका समर्पित कार्यकर्ता अन्याय का शिकार हो और उसकी मदद न की जाय। ऐसे असंख्य उपेक्षित कार्यकर्ता होंगे। पार्टी के कर्णधारों को इस दिशा में ध्यान देकर कार्यकर्ताओं के हित में तत्काल ठोस व्यवस्था करनी चाहिए। कार्यकर्ताओं की फरियाद सुनने की केंद्र से जिला स्तर तक बहुत पक्की व्यवस्था की जानी चाहिए। किन्तु जब तक प्रधानमंत्री मोदी इस ओर ध्यान नहीं देंगे और पार्टी के कर्णधारों को कार्यकर्ताओं की ओर ध्यान देने के लिए कड़ाई से निर्देश नहीं देंगे, निष्चित है कि कोई सुधार नहीं होगा।

प्रदेश-मुख्यालय में कार्यकर्ताओं की ही नहीं, आम जनता की भी सुनवाई की बहुत कारगर व्यवस्था होनी चाहिए। कुछ वर्श पूर्व प्रदेष-मुख्यालय में नित्य जनसुनवाई की व्यवस्था की गई थी, जिसमें कोई वरिश्ठ मंत्री मौजूद रहता था। लेकिन बाद में वह व्यवस्था समाप्त कर दी गई। उक्त व्यवस्था और भी कारगर ढंग से पुनः शुरू की जानी चाहिए तथा इस बात की पूरी निगरानी रखी जाय कि जो शिकायतें आएं, उनका अनिवार्य रूप से निर्धारित अवधि में संतोशजनक ढंग से निस्तारण हो जाय।