मण्डल कमीशन का संक्षिप्त इतिहास

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चौ.लौटनराम निषाद

भारत के पिछड़े वर्ग के लिए पहला पिछड़ा वर्ग आयोग 29 जनवरी,1953 में काका कालेलकर की अध्यक्षता में स्थापित किया गया था। आयोग ने लगभग दो वर्ष में 2399 जातियों को इसमें शामिल किया जो आर्थिक, सामाजिक, शैक्षिक, सांस्कृतिक एवं राजनैतिक रूप से पिछड़ी थीं।पं0 नेहरू के प्रधानमंत्रित्व काल में काका कालेलकर ने 30 मार्च,1955 को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत कर दी।3 सितम्बर, 1956 को रिपोर्ट लोकसभा में पेश की गई तो तत्कालीन गृहमंत्री पं0 गोविन्द बल्लभ पंत ने विरोध किया और मई 1961 में केन्द्रीय मंत्रिमण्डल ने यह निर्णय लिया कि पिछड़ी जातियों की जगह आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों को आरक्षण दिया जाये।मण्डल आयोग- उसके बाद जनता पार्टी की सरकार में 1 जनवरी, 1979 को बिन्देश्वरी प्रसाद मण्डल सांसद की अध्यक्षता में एक नये पिछड़े वर्ग आयोग की घोषणा कर दी, जिसका नाम मण्डल आयोग पड़ा। इस आयोग ने 31 दिसम्बर,1980 को अपनी रिपोर्ट दी जिसमें सरकारी व सार्वजनिक क्षेत्र में 27.5 प्रतिशत आरक्षण पिछड़ी जातियों को देने की सिफारिश की तथा सभी स्थितियों में प्रमोशन पर भी लागू होने की सिफारिश की।


अनुसूचित जातियों की तरह आयु सीमा में भी छूट दी जाने की भी सिफारिश की। जनवरी 1980 से 30 अप्रैल 1982 तक इन्दिरा गांधी के शासन में देशभर में असंख्य प्रदर्शन,सत्याग्रह, धरने, आन्दोलन पिछड़े वर्ग की तरफ से किये गये।अन्त में संसद सदस्यों ने संसद नहीं चलने दी जिसमें पिछड़े वर्ग के अनेकों सांसद थे जिनमें श्री शरद यादव, राम विलास पासवान,रघुनाथ सिंह वर्मा लोधी, जयपाल सिंह कश्यप, चौधरी मुलतान सिंह यादव, दयाराम शाक्य आदि संसद सदस्य थे।इन्दिरा सरकार ने मजबूरी में संसद के पटल भर मण्डल आयोग की रिपोर्ट को रखा। लेकिन 1982 से 1984 तक इन्दिरा गाँधी ने अपने जीवनकाल में लागू नहीं की। दिसम्बर 1984 में राजीव सरकार आयी। तब 1984 से 1989 तक देशभर में लगातार आन्दोलन, सत्याग्रह, प्रदर्शन आदि मण्डल आयोग की रिपोर्ट लागू करने हेतु हुए परन्तु राजीव सरकार ने भी यह रिपोर्ट लागू नहीं की।


वर्ष 1989 के अन्त में श्री विश्वनाथ प्रताप सिंह को प्रधानमंत्री चुना गया। उन्होंने अपनी पार्टी जनता दल के चुनाव घोषणा पत्र के वादे के अनुसार 7 अगस्त, 1990 को भारत सरकार के प्रधानमंत्री की हैसियत से 27.5 प्रतिशत आरक्षण पिछड़े वर्ग की जातियों के लिए अधिसूचना जारी कर आरक्षण लागू करने का निर्णय लिए और 13 अगस्त को अधिसूचना जारी कर दी गयी। असामाजिक व सामन्ती वर्ग को यह घोषणा एक दम नागवार लगी और उन्होंने अपने बच्चों से आरक्षण विरोधी आन्दोलन राष्ट्रव्यापी स्तर पर हिंसात्मक एवं तोड़-फोड़ एवं भयंकर
आगजनी के रूप में चलाया जिससे देश में अरबों रूपये की राष्ट्रीय सम्पत्ति स्वाहा हो गई।
1 अक्टूबर,1990 को सुप्रीम कोर्ट में आरक्षण विरोधी पार्टियों के लोगों द्वारा दायर याचिका के आधार पर आरक्षण पर रोक अगली सुनवाई तक सुप्रीम कोर्ट ने लगा दी।
16 नवम्बर ,1992 को सुप्रीम कोर्ट ने अपने ऐतिहासिक निर्णय में आरक्षण को वैध माना और 4 महीने के अन्दर इस आयोग की रिपोर्ट को मानने का आदेश दिया। पी.वी.नरसिंहराव की सरकार ने एक नया आयोग ‘क्रीमीलेयर’ (मलाई वाली परत) के लोगों का पता लगाने, जो पिछड़ी जातियों में आते हैं उनको आरक्षण से वंचित रखने हेतु एक अलग से प्रसाद समिति बना दी।
8 सितम्बर, 1993 को समाज कल्याण मंत्री सीताराम केसरी ने यह घोषणा भारत सरकार की तरफ से की। जिसमें निम्न लोगों को जो पिछड़ी जातियों में उच्च आय वाले हैं उनको आरक्षण की सुविधा लेने से वंचित कर दिया गया है।
(1) हरबंदी कानून के तहत 85 प्रतिशत सिंचित कृषि भूमि रखने वालों तक इससे कम कृषि वालों को ही आरक्षण का लाभ मिलेगा।

(2) सरकारी अधिकारियों में जिनके माता-पिता या एक कोई भी प्रथम श्रेणी की सेवा में हैं या माता-पिता दोनों द्वितीय श्रेणी की सेवा में हैं, उनके लड़के तथा लड़कियों को आरक्षण की सुविधा से वंचित रखा गया है।
9 न्यायाधीशों में 6 ने समर्थन में तथा 3 न्यायाधीशों ने विपक्ष में मत दिया।


पक्ष में मत देने वाले माननीय न्यायाधीश
1.मा. मुख्य न्यायाधीश श्री एम.एच. कानिया

  1. मा. न्यायाधीश वेंकट चलैया
    3.मा. न्यायाधीश ए.एम. अहमदी
    4.मा. न्यायाधीश पी.वी.सावंत
  2. मा. न्यायाधीश एस.आर.पाण्डियान
    6.मा. न्यायाधीश जीवन रेड्डी

विरोध में मत देने वाले न्यायाधीश

1.मा. न्यायाधीश टी.के. धामेन
2.मा. न्यायाधीश कुलदीप सिंह

  1. मा.न्यायाधीश आर.ए. सहाय