आख़िर क्यों समझ नहीं पा रहे हैं…..

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देश का सबसे बड़ा राज्य उत्तर प्रदेश जिसमें देश की सबसे बड़ी पार्टी हमेशा चुनाव के मूड में अपने संगठन को बल देती रहती है, लेकिन विलुप्त होता विपक्ष चुनाव आने पर ही सक्रिय होता है जिसका खामियाजा उसे चुनाव बाद उठाना पड़ता है। चुनाव बाद परिणामों की समीक्षा के बाद फिर उसकी सारी की सारी समीक्षाएं एक ठंडे बस्ते में रख कर कहीं गुम कर दी जाती है। जब पुनः चुनाव आता है तो फिर उस बसते को खोलकर रिवीजन स्टार्ट कर दिया जाता है, जबकि अब वह दौर उत्तर प्रदेश में है नहीं है । यहां आपको लगातार चुनावी मूड में रहकर जनता के बीच अपनी उपस्थिति दर्ज करानी पड़ेगी लेकिन ऐसा होता नजर कम आता है। जब किसी भी दल में अपने से वरिष्ठ नेताओं को साइडलाइन कर दिया जाता है तो आप उसका परिणाम देख सकते हैं आपके सामने हैं। हम बात कर रहे हैं उत्तर प्रदेश में विपक्ष के रूप में उभरा दल समाजवादी पार्टी की, समाजवादी पार्टी विधानसभा के नतीजे आने के बाद अब नए सिरे से संगठन की ओवरहालिंग करने में जुटेगी। देखना यह रहेगा कि अखिलेश यादव के नेतृत्व में यह ओवरहालिंग होने के बाद वह रुक जाती है या फिर उस पर नए सिरे से अर्थात नेताजी के समय पार्टी जिस स्तर से निचले स्तर पर काम करती है अखिलेश यादव उसको करने में सफल होते हैं या नहीं या फिर यह बातें भविष्य के गर्भ में ही रहेंगे,यह हम भविष्य पर छोडते हैं ।

जैसा पूर्व के चुनावों से अनुभूति होती रही है हमेशा उच्च सदन में पार्टी के लिए त्याग और योगदान देने वाले सीनियर को ही भेजा जाता रहा है लेकिन आज कि पार्टी जिसे हम आज समाजवादी कह सकते हैं इसमें नौनिहालों को भी उच्च सदन में भेजा गया जिसका परिणाम हम कह सकते हैं कि अनुभव हीनता के कारण ही उनके जनपदों में पार्टी को क्लीन स्वीप होना पड़ा या हम यह कह सकते हैं कि अपने शागिर्दों पर हद से ज्यादा विश्वास करना भी इस श्रेणी में आता है। जैसे कहा जा सकता है कन्नौज सपा का गढ़ रहा है लेकिन कन्नौज जनपद जैसी सीट से 2022 के विधानसभा चुनाव में एक भी सीट ना मिलना कहीं ना कहीं सोचने पर मजबूर करता है,कि आप हम पर ऊँगली उठावो उससे पहले हम आप पर ही ऊँगली उठा देते हैं। आगामी 21 मार्च को चुने हुए विधायक दल की मीटिंग होना तय हुआ है उस मीटिंग में देखना है कि पार्टी अपनी हार की समीक्षा किस प्रकार करती है। हम यहां आपका ध्यान इस तरफ भी आकर्षित करना चाहेंगे पार्टी उत्तर प्रदेश में हारी तो जरूर है लेकिन इस हार में भी उसकी जीत कहीं ना कहीं नजर आती है क्योंकि 47 से बढ़कर पार्टी 111 पर पहुंच गई है और उसका वोट बैंक भी विगत वर्ष की भांति 21.8 फ़ीसदी से बढ़कर 32 फ़ीसदी पर पहुंच गया है अर्थात कहीं न कहीं उसकी लोकप्रियता तो बड़ी है। हम यहां पर एक बात यह भी कहना चाहेंगे कि राष्ट्रीय पार्टी में जो भी नेता टूट कर आए हैं उनका पूरा उपयोग पार्टी ने अपने प्रत्याशियों की जीत में प्रचार-प्रसार के लिए किया ही नहीं।समाजवादी पार्टी सिर्फ एक चेहरे पर चुनाव लड़ती रही एक अकेला युवा आखिर कितना दौड़ लगाता। लगभग रैलियों अपनी एक ही बात को पुनरावृत्त करता रहा उस जनपद कि की समस्यों पर ध्यान नहीं दे पा रहा था।

अतिउत्साह के चलते समाजवादी पार्टी ने सत्ता दल से टूट कर आए मंत्रियों को भी प्रचार-प्रसार में नहीं लगाया। यही नहीं सपा संरक्षक नेता जी को भी पार्टी ने जीत के लिए प्रचार-प्रसार में अग्रसर नहीं किया जबकि आज भी नेता जी का सम्मान उत्तर प्रदेश की जनता करती है। देश हो या प्रदेश नेता जी के नाम से दो ही लोग जाने जाते हैं प्रथम नेता जी सुभाष चन्द्र बोस दूसरे नेता जी मुलायम सिंह यादव लेकिन अखिलेश यादव ने उन्हें प्रचार में ना भेज कर काफी क्षति की है। यही नहीं विगत वर्ष की भांति डिंपल यादव भी क्षेत्र में प्रचार करने ना के बराबर ही निकली है। शिवपाल यादव सब कुछ छोड़ते हुए समाजवादी पार्टी के भविष्य के लिए आए तो लेकिन उनका उपयोग समाजवादी पार्टी नहीं कर पाई। टिकट बंटवारा भी समाजवादी पार्टी के लिए नुकसानदायक रहा आखिर समय तक टिकट न देकर पार्टी ने प्रत्याशियों में अस्थिरता व्याप्त कर दी थी जहां सबसे बड़ी चूक हुई। मैं आपको बताना चाहूंगा कि सपा सुप्रीमो दावेदार की संख्या को देखते हुए जिसे भी टिकट दिया उसके साथ जिन्हें टिकट नहीं मिला उनसे मिलकर एक भी मीटिंग नहीं की ना ही उनसे बात की जो हार का सबसे बड़ा कारण रहा। सपा के शरथी रहे लोग निराश होकर बगावत पर मैदान में उतरे या दूसरी पार्टी में जाकर शामिल हुए अपनी दावेदारी ठोकी और पार्टी को कमजोर किया। अगर यहीं अखिलेश यादव और दावेदारों से बात कर लेते तो उनका मन भी हल्का हो जाता और पार्टी जीत के लिए भी कहीं न कहीं अग्रसर हो जाती। अखिलेश यादव युवा हैं आज भी युवावों उनका चेहरा धड़कता है जिस धड़कन को अखिलेश यादव अति उत्साह के कारण समझ नहीं पा रहे हैं। अर्थात हम कह सकते हैं कि अखिलेश यादव ने दावेदारों से बात ना कर पार्टी को काफी क्षति पहुंचाई है जिसकी जिम्मेदारी ख़ुद अखिलेश यादव की होती है। अब देखना होगा कि इसकी समीक्षा किस प्रकार अखिलेश यादव या पार्टी करती है। आखिर कब तक गठबंधन के सहारे चलेंगे अखिलेश। सपा का गठबंधन से नहीं कटने वाला है कलेश अब खुद ही लड़ें अखिलेश। बहुत हुआ गठबंधन अब तोड़ो सारे बंधन सिर्फ़ जनता से करो गठबंधन तो कभी नहीं टूटेगा बंधन। [/Responsivevoice]