– : हिंदी का विकास :-

सीताराम गुप्ता

पिछले दिनों कुछ समाचार पत्रों में एक समाचार देखने में आया। शिवपुरी के एक मिशनरी स्कूल में पढ़ने वाले चौथी कक्षा के बच्चों को कक्षा में आपस में हिंदी में बातचीत करने पर सजा दी गई। अँग्रेज़ी माध्यम के प्रायः सभी पब्लिक स्कूलों में विद्यालय परिसर अथवा कक्षाओं में छात्रों के आपस में हिंदी में बातचीत करने को हतोत्साह किया जाता है। इसके लिए कई बार सज़ा भी दी जाती है। शिवपुरी के मिशनरी स्कूल में भी बच्चों को कक्षा में आपस में हिंदी में बातचीत करने पर सज़ा के तौर पर आठ पेज ‘‘आई विल नॉट स्पीक इन हिंदी’’ लिखने की सजा दी गई। इस प्रकार का प्रयास सार्थक अथवा उचित नहीं कहा जा सकता। यह व्यावहारिक ही नहीं है। ‘‘आई विल नॉट स्पीक इन हिंदी’’ ये लिखवाना ही मूर्खतापूर्ण है क्योंकि इसमें स्पष्ट रूप से हिंदी का विरोध तो झलकता है लेकिन अँग्रेज़ी का पक्ष बिल्कुल नदारद है।


हिंदी का विरोध करने या उसके प्रयोग को हतोत्साह करने से अँग्रेज़ी या अन्य कोई भी भाषा अच्छी तरह से नहीं आ सकती। वास्तव में हमारी अपनी भाषा अथवा मातृभाषा जितनी अच्छी होगी उतनी ही अच्छी तरह से हम दूसरी भाषाएँ अथवा अन्य विषय पढ़ सकते हैं। यदि हमारा माध्यम अँग्रेज़ी है तो हमें अच्छी अँग्रेज़ी भी आनी चाहिए। हम अँग्रेज़ी अच्छी तरह से सीखें और अच्छी अँग्रेज़ी बोलें इसमें कोई बुराई नहीं लेकिन अच्छी अँग्रेज़ी बोलने के लिए अँग्रेज़ी का अभ्यास अनिवार्य है न कि हिंदी का विरोध। इसी प्रकार से अच्छी हिंदी बोलने के लिए हिंदी का अभ्यास अनिवार्य है न कि अँग्रेज़ी का विरोध। यदि हम आई विल नॉट स्पीक इन हिंदी कहते हैं तो इस वाक्य में अँग्रेज़ी के लिए तो हमने कुछ कहा ही नहीं। हमने तो सारा ध्यान हिंदी पर ही केंद्रित कर दिया। वास्तव में हमारा सारा ध्यान तो जो हमें सीखना है अथवा पाना है केवल उस पर केंद्रित होना चाहिए।


आकर्षण के नियम के अनुसार हमें जो चीज़ें पानी हैं अथवा जो चीज़ें सीखनी हैं केवल उन पर ध्यान देना अनिवार्य है। जिस चीज़ से बचना हो उससे ध्यान हटाने के लिए उसी का नाम दोहराना पूरी तरह से ग़लत है। भाषाओं के संदर्भ में भी ये नियम उसी तरह से काम करता है। भारत के दक्षिणी राज्यों में कई बार हिंदी का प्रचंड विरोध होता है जिसके कारण वे लोग हिंदी नहीं सीख पाते लेकिन इससे हिंदी का कोई नुकसान नहीं होता। उनके विरोध के बावजूद हिंदी उत्तरोत्तर विकास की ओर अग्रसर है। वास्तव में नुकसान हिंदी का विरोध करने वालों का होता है। हिंदी सीखने से जो सुविधा मिलती उससे वंचित होना है। जिस प्रकार भारत के कुछ दक्षिणी राज्यों में कई बार हिंदी का विरोध होता है उसी प्रकार से हम हिंदी वाले भी कई बार अँग्रेज़ी का खूब विरोध करते हैं। क्या इससे अँग्रेज़ी को कोई क्षति पहुँचती है…..? बिलकुल नहीं। यदि इससे नुकसान होता है तो हमारा हिंदीवालों का होता है। अँग्रेज़ी अथवा अन्य किसी भाषा का विरोध करने से हमारी हिंदी थोड़े ही सुधर जाएगी…..?


यदि हमें हिंदी में सुधार करना है अथवा अच्छी हिंदी सीखनी है तो हमें अपना सारा ध्यान हिंदी पर केंद्रित करना चाहिए। मैं अँग्रेज़ी नहीं बोलता कहने की बजाय ये कहना चाहिए और बार-बार कहना चाहिए कि मेरी हिंदी बहुत अच्छी है। मैं हिंदी बोलता हूँ और हिंदी में अपना सारा कार्य करता हूँ। मुझे हिंदी से प्रेम है। आई लव हिंदी कह देंगे तो भी नुकसान नहीं लाभ ही होगा। जहाँ तक अँग्रेज़ी के विरोध का प्रश्न है वह भी सरासर गलत है। मेरे विचार से हिंदी भाषा के विकास में अँग्रेज़ी बाधक नहीं। यदि हमें अँग्रेज़ी अथवा दूसरी भाषाएँ अच्छी तरह से आती हैं तो उससे हमारे हिंदी के स्तर में भी सुधार ही होगा। हिंदी वालों की स्थिति ये है कि अधिकांश हिंदीभाषी अँग्रेज़ी अच्छी तरह जानते हुए भी अँग्रेज़ी बोल नहीं पाते। इसका एक ही कारण है अँग्रेज़ी का विरोध व उसमें कमियाँ निकालना। हम जिस चीज़ में कमियाँ निकालेंगे उसे मन से स्वीकार भी नहीं कर पाएँगे। ऐसे में अँग्रेज़ी भाषा को ठीक से समझना व बोलना कैसे संभव होगा……?


यदि अच्छी हिंदी सीखनी है अथवा हिंदी के प्रयोग अथवा हिंदी में काम-काज को प्रोत्साहित करना है तो अँग्रेज़ी अथवा दूसरी भाषाओं का विरोध करना छोड़कर अपना सारा ध्यान हिंदी पर केंद्रित करना ही श्रेयस्कर होगा क्योंकि अन्य कोई उपाय है ही नहीं। यदि हम प्रयास करके अपना सारा ध्यान किसी बात पर लगा देते हैं तो उसमें सफलता असंदिग्ध हो जाती है। आज हम केवल भाषाओं की ही बात करेंगे। पिछले दिनों मैं दिल्ली विश्वविद्यालय से पंजाबी भाषा का अध्ययन कर रहा था। मार्च के अंत या अप्रैल के प्रारंभ में परीक्षाएँ होनी थीं लेकिन कोरोना संकट के कारण ये संभव न हो सका। मार्च में कक्षाएँ भी ठीक से नहीं हो पाईं। विषम परिस्थितियों के कारण पंजाबी में कुछ भी करने का मन नहीं बन पा रहा था कि पहले लॉक डाउन की घोषण हो गई। लॉक डाउन के कारण भी कई समस्याएँ उत्पन्न हो गईं।


कई समस्याएँ थीं लेकिन इन समस्याओं के बीच मैंने एक कागज पर मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा कि पहले लॉक डाउन के पूरे इक्कीस दिन पंजाबी की नियमित रूप से पढ़ाई करनी है और ये लिखकर अपने सामने ऐसी जगह पर लगा दिया जहाँ से वो बार- बार दिखलाई पड़े। लेकिन इसके बावजूद मैं पंजाबी के पाठ्यक्रम से संबंधित कुछ नहीं पढ़ पाया। इक्कीस दिन के बाद फिर दूसरा, तीसरा और चौथा लॉक डाउन आ गया। इस दौरान भी पंजाबी के पाठ्यक्रम से मेरी दूरी बनी रही। पहले लॉक डाउन के पूरे इक्कीस दिन पंजाबी की नियमित रूप से पढ़ाई करनी है अब ये संकल्प बदल कर परीक्षाओं तक पंजाबी की नियमित रूप से पढ़ाई करनी है हो गया था लेकिन ऐसा कुछ होता दिख नहीं रहा था।


मैं हैरान-परेशान था कि पाठ्यक्रम के अनुसार पंजाबी क्यों नहीं पढ़ पा रहा हूं? हाँ इस दौरान मैं पंजाबी का समाचार पत्र व उपलब्ध दूसरी पंजाबी पुस्तकें अनायास ही नियमित रूप से पढ़ने का अभ्यास करता रहा। ये सिलसिला तब तक चलता रहा जब तक कि परीक्षाओं की तिथि निर्धारित नहीं हो गई। जैसे ही डेट शीट आई मैं विचलित सा हो गया क्योंकि अभी तक पाठ्यक्रम के अनुसार कुछ भी नहीं किया गया था। अब मैंने केवल पाठ्यक्रम के अनुसार कार्य करने का मन बनाया। पाठ्यक्रम पर दृष्टि गई तो मैं ये देखकर सुखद आश्चर्य से भर गया कि इस दौरान पाठ्यक्रम का भी अधिकांश भाग पूर्ण हो चुका था और जो पाठ्यक्रम पहले बहुत कठिन लग रहा था वो भी बहुत ही सरल लग रहा था। परीक्षाएँ प्रारंभ होने तक सारे पाठ्यक्रम की अच्छी तरह से पुनरावृत्ति हो गई और पेपर भी अपेक्षा से बहुत अधिक अच्छे हुए।


पंजाबी के अध्ययन के लिए यदि मैं ये संकल्प लेता कि मुझे हिंदी,अँग्रेज़ी अथवा उर्दू नहीं पढ़नी है तो पंजाबी के अध्ययन के संदर्भ में इसका कोई महत्त्व नहीं था। इससे पंजाबी के अध्ययन में कोई सहायता नहीं मिलती। संयोग से इन्हीं दिनों मुझे अपनी पुत्री व भतीजे को उर्दू भी पढ़ानी पड़ी और हिन्दी में लिखता भी रहा लेकिन फिर भी पंजाबी में अपेक्षा से अधिक सफलता मिली। वास्तव में इसका सारा श्रेय एक सकारात्मक विचार अथवा संकल्प को जाता है और वो विचार अथवा संकल्प है या था लॉक डाउन में अथवा परीक्षाओं तक पंजाबी की नियमित रूप से पढ़ाई करनी है। सफलता हम तक किस मार्ग से अथवा किस रूप में पहुँचेगी हमें इस पर माथापच्ची करने की जरूरत नहीं होती। जरूरत है तो केवल सही व सकारात्मक संकल्प लेने की। जिस प्रकार से मिट्टी में बीज बोने के बाद उनका उगना निश्चित है उसी प्रकार से सकारात्मक संकल्पों की पूर्णता भी निश्चित है। हिंदी के उत्थान के लिए भी हमें हिंदी के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण का विकास करके सही संकल्प लेने की आवश्यकता है।