सामाजिक परिवर्तन के प्रतीक हैं डॉ0 अम्बेडकर

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बाबा साहब अंबेडकर ने बड़े उद्योग लगाने की वकालत की, परंतु कृषि को समाज की रीढ़ की हड्डी भी माना,औद्योगिक क्रांति पर ज़ोर देने के साथ-साथ उनका यह भी कहना था की कृषि को नज़र अंदाज़ नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि कृषि से ही देश की बढ़ती आबादी को भोजन और उद्योगों को कच्चा माल मिलता हैं।डॉ0 अंबेडकर की आर्थिक समस्याओं के प्रति व्यवहारिक सोच थी। वे मानते थे कि भारत के पिछड़ेपन का मुख्य कारण भूमि-व्यवस्था के बदलाव में देरी है, इसका समाधान लोकतांत्रिक समाजवाद है जिससे आर्थिक कार्यक्षमता एवं उत्पादकता में वृद्धि होगी तथा ग्रामीण अर्थव्यवस्था का कायापलट संभव होगा।

मधुकर त्रिवेदी

स्वतंत्र भारत के नवनिर्माण में दो महापुरुषों के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता है।अंग्रेज जाते-जाते देशी रियासतों को यह कहकर स्वतंत्र कर गए थे कि वे चाहें तो पाकिस्तान के साथ रहें या भारत के। तब भारत के गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने सूझबूझ के साथ तमाम रियासतों को भारतीय संघ राज्य से जोड़ा और हैदराबाद जैसी रियासतों को अपनी कूटनीति से पाकिस्तान की ओर जाने से रोका। राष्ट्रीय एकता के प्रति उनके महान योगदान को देते हुए उन्हें भारत का लौहपुरुष और एकता पुरुष माना गया। आजाद भारत में देश का प्रशासन चलाने के लिए जब संविधान निर्माण का प्रश्न उठा तो उसके लिए सबकी निगाहें डॉ0 भीमराव अम्बेडकर पर पड़ी। राष्ट्रीय एकता को संवैधानिक स्वरूप देकर और समता मूलक समाज की आधारशिला रखकर नए भारत के निर्माण में अपना अमूल्य योगदान देने के लिए डॉ0 भीमराव अम्बेडकर को हमेशा ‘निर्माण पुरुष‘ के रूप में याद किया जाएगा। वैसे उन्हें पूरा देश संविधान निर्माता का सम्मान देता है।


जब भारत के संविधान निर्माण का दायित्व डॉ0 साहब ने सम्हाला तब उनका स्वास्थ्य साथ नहीं दे रहा था। फिर भी उन्होंने इस कठिन कार्य को पूरी लगन के साथ पूरा किया। 25 नवम्बर 1949 को देश का संविधान बनकर तैयार हुआ। उन्होंने सभी को एक वोट का अधिकार दिया। उन्होंने अस्पृष्यता, मौलिक अधिकार और नारी सशक्तिकरण के कानूनों की नीवं रखी।बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर अपने दलित भाइयों को बराबर समझाते थे कि वे शिक्षित हो, संगठित हों और संघर्श करे। इसलिए वे अपने लोगों को जगाने के काम को तरजीह देते थे। गांधी जी छुआछूत को पाप मानते थे लेकिन आंबेडकर जी उसे ऐसी बीमारी मानते थे जिससे समाज में सडाध्ं ा पैदा हो गई है। उन्होंने जाति प्रथा पर जोरदार हमला किया। उनकी राय थी कि हिन्दुस्तानी समाज की व्यवस्था जब तक नहीं बदलेगी तब तक कोई तरक्की नहीं होगी।डॉ0 आंबेडकर यों तो शुरू से ही छुआछूत के खिलाफ झंडा उठाए हुए थे किन्तु उनका सबसे ज्यादा नाम सन्1927 में महाड़ आंदोलन से हुआ जब एक तालाब से दलितों के पानी लेने पर रोक की खिलाफत करने में उन पर हमला हुआ। सन्1930 में नासिक के कालाराम मंदिर में अछूतों के अंदर जाने के लिए आंदोलन चला। इन आंदोलनों से दलितों में नई चेतना जागी।


पहली गोलमेज कांफ्रेंस में, जो सन्1930 के जाड़ो में हुई,कांग्रेस शामिल नहीं हुई जबकि मुसलमानों, सिखों, ईसाई और अछूतों के डेलीगेषन तथा हिन्दू महासभा के मेम्बरों ने इसमें हिस्सा लिया। इस सम्मेलन में डॉ0 आंबेडकर ने कहा कि दलित वर्ग अपने आप में एक अलग वर्ग है। वह हिन्दू समाज का हिस्सा नहीं है। उन्होंने अलग से निर्वाचक मंडल की मांग की। दूसरी गोलमेज कांफ्रेंस में गांधीजी और डॉ0 आंबेडकर में और ज्यादा तल्खी नज़र आई। ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैमसे मैकडोनाल्ड ने चुनाव में दलित को अलग निर्वाचन क्षेत्र (कांस्टीच्युएंसी) भी बांट दिया। इसे कम्युनल एवार्ड कहा गया।


गांधी जी कम्युनल एवार्ड के खिलाफ थे। उनका बेबाक बयान था कि इससे हिन्दू समाज में बंटवारा हो जाएगा। उन्होंने कहा कि मैं इस अलगाव का विरोध करूंगा चाहे इसकी कीमत मुझे जान देकर ही क्यों न चुकानी पड़े। गांधीजी उस समय यरवदा जेल में बंदी थे। उन्होंने 20 सितम्बर 1932 की दोपहर से अपना अनशन शुरू कर दिया।गांधी जी के इस एलान के बाद पूरे देश में उनके समर्थन के संदेश मिलने लगे। एक तरह की इमोशनल उथलपुथल पूरे देश में सामने आने लगी।आखिरकार डॉ0 आंबेडकर यरवदा जेल में गांधीजी से मिलने आए। गांधीजी की जान बचाने के लिए और अछतूों के हक हकूकों की सलामती के लिए डॉ0 आंबेडकर ने 24 सितम्बर 1932 को एक समझौते पर हस्ताक्षर किए जो ‘पूना पैक्ट‘के नाम से जाना जाता है। इस समझौते पर गांधीजी ने दस्तखत नहीं किए। हिन्दू पक्ष से महामना मदन मोहन मालवीय ने इसमें पहल की। दलित नेताओं ने भी दस्तखत किए। गांधीजी ने तब 26 सितम्बर को अपना अनशन खत्म किया।


पूना पैक्ट को लेकर काफी कुछ उसके पक्ष-विपक्ष में लिखा जा चुका है। एक बात तो साफतौर पर कहीं जा सकती है कि गांधीजी ने अगर अपनी जिंदगी दांव पर लगाकर सवर्ण (हिन्दू समाज) पर दबाव न बनाया होता तो षायद इतनी आसानी से सामाजिक कलंक नहीं मिटता और अगर डॉ0 आबं डे कर ने लगातार राजनीतिक दबाव
न बनाया होता तो षायद अछूत समाज को पार्लियामेंट, असेम्बली और दूसरे पब्लिक प्लेटफार्म तथा संस्थाओं में जगह नहीं मिलती। रिजर्वेशन भी उसी का एक नतीजा है।
आंबेडकर जी ने इसलिए समझौता किया क्योंकि वे जानते थे कि गांधीजी की मौत से दलित-सवर्ण दंगे होते और समाज की खाई पाटने के प्रयासों को पलीता लग जाता। अफसोस कि शुरूआत में भाईचारे का जो माहौल बना था वह बाद में बिगडता गया। डॉ0 आबंडेकर का धीरज तब जवाब देने लगा। 13 अक्टूबर 1935 को बाबा साहेब ने बेबसी में एलान किया कि गोकि वे जन्म से हिन्दू थे फिर भी मरते समय हिन्दू नहीं रहेंगे। उन्होंने धर्म बदलने का भी इरादा जताया जिस पर देष में काफी खलबली मच गई थी।


डॉ0 अम्बेडकर को 05 जून 1952 को कोलम्बिया विश्वविद्यालय ने एक विषेश दीक्षांत समारोह में ‘विधि ज्ञान‘ के सम्मानार्थ उन्हें एलएलडी की उपाधि प्रदान की गई। उनके सम्मान में कहा गया कि ‘ डॉ0 भीमराव अम्बेडकर‘ भारत के ही नहीं विश्व के महान नागरिक हैं। वह एक महान सुधारक होने के साथ-साथ महान मानवतावादी तथा मानव अधिकारों के सबल पक्षधर भी है। उनकी लड़ाई हिन्दू धर्म से नहीं, ‘लड़ाई तो छुआछूत और नफरत से थी‘ एक अन्य विद्धान प्रो0 ई0 वेलेंटाइन डेनियल का कहना है- ‘‘डॉ0 अम्बेडकर ने अपनी महानता किसी सकारात्मक कार्य के कारण प्राप्त नहीं की थी बल्कि असीम कष्टों और दुराग्रहों के खिलाफ संघर्श करके प्राप्त की थी।‘‘डॉ0 बाबा साहब अम्बेडकर का 6 दिसम्बर 1956 को नई दिल्ली में महापरिनिर्वाण हुआ। डॉ0 जवाहर लाल नेहरू ने लोकसभा में कहा था-हिन्दू समाज की जुल्म करने वाली सभी प्रवित्तियों के खिलाफ विद्रोह करने वाले व्यक्ति के रूप में डॉ0 अम्बडेकर का सदैव स्मरण रहेगा। पं0 अटल बिहारी बाजपेयी का कहना था कि ‘जैसे-जैसे समय बीतता जाएगा, डॉ0 अम्बेडकर की कीर्ति विश्व के आकाश में अधिकाधिक फैलती जाएगी। वे भारत के महारथी हैं जो काल के कपाल पर अपनी अमिट छाप छोड़ जाते हैं।‘


(लेखक- ‘यशभारती’ सम्मान एवं प्रभाश जोषी पुरस्कार प्राप्त वरिष्ठ पत्रकार है)