विनम्रता की होड़ में पत्रकारों का चुनाव

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श्याम कुमार

लखनऊ में राज्य-मुख्यालय से मान्यताप्राप्त पत्रकारों में इन दिनों विनम्रता का जबरदस्त ‘कम्पटीषन’ चल रहा है। उन्हें देखकर किसी कोने से नहीं लगता कि वे पत्रकार हैं। पत्रकार तो किसी भी जमात में बैठा हो, देखने से पता लग जाता है कि वह पत्रकार है। जिन पत्रकारों की गर्दन हमेषा ऐंठी हुई रहती थी तथा लालू यादव की तरह जिनका षरीर पीसा की मीनार की भांति पीछे की ओर झुकी मुद्रा में रहता था, आज उनके शरीर ने चोला बदल लिया है। अब वे हर समय सामने की ओर झुके हुए दिखाई दे रहे हैं। वे इतनी विनम्र मुद्रा में दिखाई देते हैं कि आष्चर्य होता है। इस चमत्कारपूर्ण परिवर्तन का कारण है राज्य-मुख्यालय से मान्यताप्राप्त पत्रकार समिति का चुनाव। वैसे तो मान्यताप्राप्त पत्रकारों के कई तरह के संगठन हैं, जिनमें राज्य-मुख्यालय से मान्यताप्राप्त वरिश्ठ एवं स्वतंत्र पत्रकारों का प्रतिश्ठापूर्ण संगठन भी है। लेकिन जिस मान्यताप्राप्त पत्रकार समिति का चुनाव हो रहा है, वह अनोखी कही जा सकती है।

वह प्रदेश सरकार की कभी दुलारी हो जाती है तो कभी नहीं। मायावती के मुख्यमंत्रित्व काल में वह पूरी तरह तिरस्कृत थी। अखिलेश यादव के मुख्यमंत्रित्वकाल में उसके दो फाड़ हो गए, जिनमें एक का नेतृत्व अध्यक्ष के रूप में हेमंत तिवारी ने किया तो दूसरी का नेतृत्व प्रांशु मिश्र ने। इस विभाजन का अखिलेष यादव ने खूब फायदा उठाया तथा अपना व अपने पिट्ठू पत्रकारों का जमकर उल्लू सीधा किया। उस समय मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने अपने प्रिय पत्रकारों को भरपूर नवाजा तथा उनके इर्द-गिर्द ऐसे ‘तत्वों’ का तगड़ा घेरा रहता था। लेकिन अखिलेश यादव ने शेष पत्रकार बिरादरी का भीशण नुकसान किया। बाद में समिति प्रमुख सचिव(अब अपर मुख्य सचिव) अवनीष अवस्थी की प्रिय बन गई थीै।


इस समय दो तरह के पत्रकार नजर आ रहे हैं, जिन्हें ‘घराती’ एवं ‘बराती’ का दर्जा दिया जा सकता है। षादियों में घराती पक्ष हमेषा विनम्रतम मुद्रा में रहता है तथा बराती पक्ष की मुद्रा अकड़वाली होती है। राज्य-मुख्यालय मान्यताप्राप्त पत्रकार समिति का नया चुनाव 21 मार्च को होने वाला है। इसमें जो पत्रकार विभिन्न पदों के लिए खड़े हैं, वे ‘घराती’ मुद्रा में हैं तथा मतदाता पत्रकार ‘बराती’ की मुद्रा में हैं। जैसे-जैसे चुनाव निकट आता जाएगा। विनम्र ‘घरातियों’ की भीड़ बढ़ती जाएगी। विनम्रता के ये दृष्य देखकर मुझे वरिश्ठ समाजवादी नेता एवं सांसद रहे स्वर्गीय मोहन सिंह का स्मरण हो रहा है। मैं जिस समय इलाहाबाद(अब प्रयागराज) में प्रमुख राश्ट्रीय दैनिक ‘भारत’ में स्थानीय समाचार सम्पादक एवं मुख्य संवाददाता था, उन दिनों मोहन सिंह इलाहाबाद विष्वविद्यालय में विद्यार्थी थे और इलाहाबाद विष्वविद्यालय छात्रसंघ चुनाव में अध्यक्ष पद के लिए खड़े थे।

उस समय यह चमत्कारिक घटना हुई थी कि मोहन सिंह ने कुछ खास धनराषि खर्च किए बिना ही अपने ‘गोड़े गिरे’ फारमूले से अध्यक्ष पद का चुनाव जीत लिया था। वह पूरे चुनाव-अभियान के दौरान बड़े विनम्रभाव से सबके चरणस्पर्ष किया करते थे और इस प्रकार उन्होंने सबका मन मोह लिया था।


इस समय उम्मीदवारों में विनम्रता का जो दौर चल रहा है, पिछले चुनावों का अनुभव बताता है कि वह सदा की तरह पूर्णरूप से दिखावटी व अस्थायी है। ऐसे-ऐसे लोग अपनापन दिखा रहे हैं, जो किसी से सीधे मुंह बात नहीं करते थे। मुझे भी पूर्व में ऐसे दो अनुभव हो चुके हैं। पिछले एक चुनाव में एक फाड़ के अध्यक्ष प्रांषु चुने गए थे।

प्रांशु ने चुनाव से पहले कभी मुझे नमस्कार तक नहीं किया था, किन्तु चुनाव के समय वह बड़े अदब से मुझसे जब वोट मांगने आए तो मैंने कह दिया था- ‘चलो, इस बहाने तुम मुझसे बोले तो।’ दूसरे फाड़ के मुखिया हेमंत तिवारी से मेरा बहुत पुराना सम्बंध था। वह जब दैनिक जागरण में थे, तब से मेरा बहुत अधिक सम्मान किया करते थे और मिलने पर मेरे चरण छूते थे। उस समय उन्होंने एक सज्जन की ‘जूता’ षीर्शक कविता मुझे सुनाई थी, जो बड़ी रोचक थी। लेकिन वही हेमंत तिवारी जब बहुत अधिक षक्तिमान एवं वैभवषाली हो गए तो उनकी वह विनम्रता घटती गई। पहले वह बात के बड़े पक्के हुआ करते थे, लेकिन बाद में उनकी भिन्न छवि हो गई।


जहां तक राज्य-मुख्यालय मान्यताप्राप्त समिति का प्रष्न है, मैं तो इस समिति को कायम रखने के पक्ष में ही नहीं हूं। मेरे-जैसे तमाम पत्रकारों का यह मत है कि यह समिति पत्रकारों का कल्याण करने के बजाय कुछ लोगों की स्वार्थसिद्धि का जरिया बनी हुई है। पत्रकारों का हित करने के मामले में उक्त समिति पूरी तरह फिसड्डी सिद्ध हुई है। जिस प्रकार हमारे सांसद व विधायक चुनाव के समय जनता को मालिक एवं अपने को जनता का सेवक कहते हुए नहीं थकते और चुनाव के बाद अपने को मालिक एवं जनता को अपना तुच्छ सेवक समझते हुए आचरण करने लगते हैं, बिलकुल वही स्थिति यहां भी दिखाई दिया करती है।

चुनाव जीतते ही विजेता प्रायः पत्रकारों का हित भूलकर अपने हित में लिप्त हो जाते हैं। चुनाव में खड़े उम्मीदवारों द्वारा इस समय बड़े-बड़े वादे किए जा रहे हैं, किन्तु देखना है कि विजयी होने पर कौन अपने वादों पर कितना टिकता है तथा पत्रकारों के हित के लिए कौन कितना संघर्श करता है! पिछले एक चुनाव में जब एक मठाधीश विजयी हुआ था तो उसने बाद में यह कहा था कि चुनाव की मजबूरी में उसने अपने स्वभाव के विपरीत पिछले दो महीने लोगों के बड़े नाज-नखरे व कश्ट सहे। उसके उस कथन पर मैंने एक कविता लिखी थी, जो यहां प्रस्तुत हैः-


दो महीने! हाय, ये दो महीने कैसे गुजरे !जैसे, जलती हुई भट्ठी पर शरीर जा पसरे।

खाना-पीना, सोना-जागना हराम हो गया गली-गली घूमना एकमात्र काम हो गया।