कर्मों का फल

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कर्म की सफलता का मूल मंत्र है.. “कर्म ही पूजा” “कर्म ही विश्वास”हमारे कर्मों के आधार पर ही हमारी दिशा और दशा तय होती है। कर्म बिन जीवन ऐसा है। जैसा “जल बिन मछली” इस सृष्टि में जितने भी मानव पशु-पक्षी आदि है।उन सभी को परमात्मा ने अलग-अलग कर्म हेतु। सृष्टि का सृजन करने का दायित्व दिया है। हम अति भाग्यशाली हैं, कि हमें मनुष्य रूप में जन्म मिला है। हमें अपने मानव धर्म और कर्म के आधार पर ही कर्म कर परिवार, समाज, देश को एक सही दिशा देने के लिए कर्म करना जरूरी है। और प्रत्येक व्यक्ति को कर्म के अनुरूप ही  सफलता की प्राप्ति होती है। सफलता का मूल मंत्र कर्म ही है। बिना कर्म के जीवन निर्जीव प्राणी की तरह होता है। जिसका कोई लक्ष्य,उद्देश्य नहीं होता। ऐसे प्रत्येक व्यक्ति को या हर प्राणी को अपने कर्मों के अनुरूप ही निहित सफलता प्राप्त होती है। कर्म ही सृष्टि सृजन  का एक अंग है।अतः सफलता का मूल मंत्र कर्म ही है।

एक बार जब भगवान बुद्ध  जेतवन  हार में जा रहे थे,  तो भिक्षुक चक्षु पाल भगवान से मिलने के लिए आए थे। उनके आगमन के साथ उनकी दिनचर्या व्यवहार और गुणों की चर्चा भी हुई।  भिक्षु चक्षुपाल अंधे थे। एक दिन  बिहार के कुछ भिक्षुओ  ने मरे हुए कीड़ों को चक्षु पाल की कुटी के बाहर पाया और उन्होंने चक्षुपाल  की निंदा करनी शुरू कर दी कि इन्होंने इन जीवित प्राणियों की हत्या की

 भगवान बुध में निंदा कर रहे उन भिक्षिको को बुलाया और पूछा कि तुमने भिक्षु को कीड़े मारते हुए देखा है। उन्होने उतर दिया की नहीं। इस पर भगवान बुध्द ने उनसे कहा कि जैसे तुमने इन कीड़ों को मारते हुए नहीं देखा वैसे ही शिशुपाल ने भी उन्हें मरते हुए नहीं देखा और उन्होंने कीड़ों को  जानबूझकर नहीं मारा है इसलिए उनकी भत्सर्ना  करना उचित नहीं है।भिक्षुओ ने इसके बाद पूछा कि  चाक्षुपाल अंधे क्यों  है ?  उन्होने  इस जन्म  में अथवा पिछले जन्म में क्या पाप किये।  भगवान बुद्ध ने चक्षुपाल  के बारे में कहा कि वे पूर्व जन्म में चिकित्स्क थे। एक अंधी स्त्री ने उनसे वादा किया था कि यदि वे उसकी आंखें ठीक कर देंगे तो वह और उसका परिवार उनके दास बन जाएंगे। स्त्री की आंखें ठीक हो गई। पर उसने  दासी बनने के भय से यह मानने से इंकार कर दिया। उसको पता था कि उस  स्त्री की आंखें ठीक हो गई है। वह  झूठ बोल रही है। उसे सबक सिखाने के लिए या बदला लेने के लिए चक्षु पाल  ने दूसरी दवा दी, उस दवा से महिला फिर अंधी हो गई वह कितना ही रोई -पीटी, लेकिन जब चक्षु पाल जरा भी नहीं पसीजा। इस पाप कर्म के फल स्वरुप अगले जन्म में चिकित्सक को अंधा बनना पड़ा।

कर्म ही सफलता का मूलमंत्र है गीता में भी कृष्ण ने अर्जुन से कर्म करते जाओ फल की इच्छा मत करो , कर्म पर पूरी गीता है हमारे जीवन में कर्म का ही महत्व है हमारे कर्म ही हमारा भाग्य लिखते है । व्यक्ति का आचरण एवं उसके कर्म ही उसकी पहचान होते हैं। यदि हम दूसरों के हृदय में स्थायी जगह चाहते हैं तो इसका आधार हमारे ईमानदारीपूर्ण कर्म ही हो सकते हैं। महज शब्दों द्वारा अपनत्व बताना रेत पर बनी लकीरों की तरह होता है जिन्हें हर आती-जाती सागर की लहर बनाती-मिटाती रहती है। पर कर्म पाषाण पर उकेरी आकृति की तरह होता, जो एक स्थायी स्मृति बन जाता है। हमेशा हमें कर्म के साथ साकारात्मकसोच को रखना होगा अंधेरे में रास्ता दिखाने हेतु एक दीपक पर्याप्त होता है। आशावाद के जहाज पर चढ़कर हम मुसीबतों एवं समस्याओं के तूफानों से उफनते असफलताओं के महासागर को भी पार कर सकते हैं। कर्म करते रहना ही सफलता की सिढी है । कोई भी व्यक्ति जीवन में सफल तभी होता है जब वो अपने लक्ष्य का निर्धारण करता है. बिना लक्ष्य साधे निशाना सही जगह नहीं लगता है और व्यक्ति को असफलता ही हाथ लगती है. लोभ-लोलच में आकर कई बार आदमी रास्ते से भटक जाता है. लेकिन जो व्यकित मेहनत के बल पर बिना लालच के कर्म करता है, सफलता उसी को मिलती है.कर्म ही सफलता का एक मात्र पर्याय है । कर्म करने वाला इंसान सफल होता है । 

कर्म की सफलता का मूल मंत्र‌ परिश्रम है ।परिश्रम के बिना कुछ भी संभव नहीं है कर्म और परिश्रम एक दूसरे के पूरक है जिस तरह खरे सिक्के सोने की तरह है जिनका मूल कभी नहीं घटता “जहां चाह वहां राह”  हिलेरी और तेनजिंग उदाहरण है ।  उन्होंने खतरनाक कठिनाइयों का सामना करते हुए संसार के सर्वोत्तम शिखर एवरेस्ट पर विजय प्राप्त की लगन के बल पर ही महामूर्ख कालिदास एक प्रकांड विद्वान महान साहित्यकार और विक्रमादित्य के दरबार में नवरत्न बने परिश्रम के बल पर ही चांद पर विजय संभव हुई हरित क्रांति , महामारी का विनाश ,संचार, चिकित्सा आदि क्षेत्रों में क्रांति हुई। कर्मवीर ही मानवता के कर्णधार होते हैं उनके पसीने को सुगंध से ही हमारी संस्कृति और सभ्यता में महक है।प्रकृति भी इसका उदाहरण है ।सूरज भी खुद जलकर औरों को रोशनी देता है।