राष्ट्रवाद और राष्ट्रवाद में मौलिक अंतर….!

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हृदयनारायण दीक्षित

भारतीय राष्ट्रवाद और दुनिया के अन्य देशों के राष्ट्रवाद में मौलिक अंतर है। दुनिया के अन्य देशों में राष्ट्रवाद का विचार 10वीं शताब्दी के पहले नहीं था। इसके पहले राष्ट्र जैसी कल्पना भारत के अलावा दुनिया के किसी अन्य देश में नहीं दिखाई पड़ती है। यूरोपीय अपने राष्ट्रवाद को नैशनलिज्म कहते हैं। हम भारतीय राष्ट्रवाद को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद बताते हैं।यूरोप के पुनर्जागरण के समय यह विषय उभर कर आया था कि नेशन के लिए एक भूखण्ड जारी है। उस भूखण्ड में रहने वाले कुछ लोग भी जरूरी हैं। उन लोगों का स्टेट भी आवश्यक है। एक राजा या संवैधानिक राज व्यवस्था भी हो, तो नेशन बन जाता है। भारत में इस तरह नेशन नहीं बनता है। यहां भूमि के प्रति हमारा राग हो, प्रीति हो, श्रद्धा हो, आस्तिकता हो। उस भूमि पर रहने वाले जन समूह हों। उनका साझा इतिहास हो। पूर्वजों के प्रति साझा आदर हों। कह सकते हैं कि उनके नृत्य साझे हों। उनके स्वप्न साझे हों। उमंग, रीति, प्रीति, श्रद्धा एवं आस्तिकता, इतिहास भूगोल के प्रति साझा प्रेेम हो। एक समान संस्कृति हो। तीन घटक हुए। भूमि, जिसके प्रति श्रद्धा भाव। संस्कृति, जिसके प्रति हमारा लगाव। लोग, जो परस्पर एक दूसरे के साथ साझे मन के साथ व्यवहार करते हों। ऐसे लोगों से भारत में राष्ट्र का गठन हुआ। इसलिए भारतीय राष्ट्रवाद को सांस्कृतिक भी राष्ट्रवाद कहते हैं। इसका मूल घटक संस्कृति है। दुनिया के अन्य देशों में राष्ट्र के गठन का मुख्य घटक संस्कृति नहीं है। स्टेट, राजा, राजव्यवस्था है। भारत के लिए संस्कृति महत्वपूर्ण है। संस्कृति के आधार पर भारत में राष्ट्रभाव का उद्भव हुआ।


विश्व मानवता का प्राचीन ग्रन्थ ऋग्वेद है। यह प्राचीन कविता है। ऋग्वेद में राष्ट्र शब्द का कई बार प्रयोग हुआ है। अथर्ववेद में राष्ट्र के जन्म की कहानी है। अथर्ववेद सुन्दर मंत्र आया है। ऋषि कहते हैं कि हमारे पूर्वजों ने लोक कल्याण की इच्छा से तप किया। खूब परिश्रम किया है। उनके तप से राष्ट्र का जन्म हुआ है। अथर्ववेद में यह बात बिल्कुल सीधी लिखी हुई है ’’ततो राष्ट्रं बलं अजायत।राष्ट्र की एक धारणा भारत की है। एक धारणा दुनिया के अन्य देशों की है। भारतीय राष्ट्रवाद भिन्न प्रकार का है। यहां प्राचीनकाल से ही आकाश पिता धरती माता है। अथर्ववेद के भूमि सूक्त में बताते हैं कि हे धरती माता, आप जहां-जहां तक विस्तृत हैं, वहां-वहां तक उत्सव होते हैं। लोग आनंदित होते हैं। हे धरती माता हम जब रात में सोते हैं, तो करवट बदलते समय आपको चोट तो नहीं लगती है। हे माता यज्ञ, उत्सव, विवाह आदि अवसरों पर हम जमीन खेदते हैं। बांस गाड़ते हैं। हे माता आपसे मर्म स्थल को चोट तो नहीं लगती है। इस सब के लिए क्षमा करें। यह भारत के वैदिक वांग्मय का भाव है कि धरती हमारी माता है और हम उसके पुत्र हैं। इस अधिष्ठान पर भारतीय राष्ट्रभाव का विकास और जन्म हुआ। यह भाव ऋग्वेद, अथर्ववेद होता हुआ उत्तर वैदिक काल के उपनिषद काल के भीतर से अपनी यात्रा आगे बढ़ाता हुआ, रामकथा रामायण और महाभारत में भी उसी धारा के साथ आगे बढ़ा। यही बंकिमचन्द्र जी के वन्दे मातरम् में भी व्यापक है वर्तमान काल तक।


सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का विकास ऋग्वेद के समय और उसके पहले से रहा है। ऋग्वेद में दिखाई पड़ता है। वैदिक भाषा से लेकर आज तक की संस्कृत को भारतीय संस्कृति के जन्म संवर्धन पोषण का श्रेय देना चाहिए। ऋग्वेद में ऋषि सूर्य से पूछता है कि आपको बारंबार नमस्तकार है। आप निराधार कैसे लटके हैं? किसने पैर के नीचे की एडि़यों को भर दिया? किसने दो गांठों को जोड़ा? किसने कान बनाये? किसने दी आँखें? किसने नाक बनायी? यह जिज्ञासा अथर्ववेद में है। कठोपनिषद में भी नचिकेता ने यम से पूछा कि हमें आप ये बताइये कि धर्म और अधर्म के परे क्या है? संस्कृत वांग्मय में ही एक प्रश्नाकुल बैचेन परम्परा भारत की धरती पर खिली।

राष्ट्र की परिभाषा एक ऐसे जन समूह के रूप में की जा सकती है जो कि एक भौगोलिक सीमाओं में एक निश्चित देश में रहता हो, समान परम्परा, समान हितों तथा समान भावनाओं से बँधा हो और जिसमें एकता के सूत्र में बाँधने की उत्सुकता तथा समान राजनैतिक महत्त्वाकांक्षाएँ पाई जाती हों। राष्ट्रवाद के निर्णायक तत्वों मे राष्ट्रीयता की भावना सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है। राष्ट्रीयता की भावना किसी राष्ट्र के सदस्यों में पायी जानेवाली सामुदायिक भावना है जो उनका संगठन सुदृढ़ करती है।


प्रश्न को देवता कहने का साहस संस्कृत विद्वानों ने ही किया। ऋषियों ने कहा कि मैं प्रश्नों को नमस्कार करता हूूं। प्रश्न बहुत बड़े देवता है। यह संस्कृति आधारित राष्ट्रवाद का विकास इसी पर आधारित राष्ट्रवाद व संस्कृति का विकास ये संस्कृत के मनीषी कर रहे थे। मैं कभी-कभी बहुत प्यार में कह देता हॅंू कि संस्कृत माता है और संस्कृति उसकी पुत्री है। दोनों साथ साथ चलती हैं। दोनों अलग-अलग नहीं हैं। यह तो वैदिक साहित्य की बात है। यह वैदिक साहित्य की बात है। महाभारत काल में आते हैं। महाभारत में प्रश्न ही प्रश्न भरे हुए हैं। यक्ष और युधिष्ठिर के प्रश्न महत्वपूर्ण हैं। अर्जुन और श्री कृष्ण के प्रश्नोत्तर गीता में है। महाभारत में कहीं पक्षी प्रश्न करते हैं और पशु उत्तर देते हैं। कहीं पशु प्रश्न करते हैं पक्षी उत्तर देते हैं। आखिरकार हमारे साहित्य में पूरे वांग्मय में यह प्रश्न और उत्तर क्यों प्रत्येक स्थल पर दिखाई पड़ते हैं?

हम जिज्ञासु राष्ट्र हैं। हम अंधविश्वासी राष्ट्र नहीं हैं। हमारी सोच विचार,हमारी आस्था का केंद्र जिज्ञासा में हैं। दुनिया की अन्य आस्थाओं पर,पर तर्क नहीं हो सकता है। प्रश्न करने की परंपरा अन्य आस्थाओं में नहीं हैं। भारत में प्रश्न परम्परा है। आस्तिकता से भी संवाद है। उसको भी जांचने का कौशल है। उसके प्रति भी जिज्ञासा भाव यह हमारी संस्कृति में है। यहां दर्शन का विकास संस्कृत में हुआ। विज्ञान का विकास भी प्राचीन काल में संस्कृत में हुआ। उपनिषदों का विकास भी संस्कृत में हुआ। भौतिक, सांसारिक का विकास जैसे नाटक नौटंकी का विकास हुआ। नाटक का विकास भरतमुनि ने नाट्यशास्त्र में किया। नाट्यशास्त्र में भरतमुनि ने बताया है कि हमने इसको ऋग्वेद से ली है। फिर कोई प्रश्न करेगा कि यह अर्थशास्त्र भी सबसे पहले संस्कृत में ही कौटिलय ने लिखा। शब्द अनुशासन, डिसिप्लिन ऑफ वर्ड्स, यह आचरण दुनिया में सबसे पहले पाणिनि ने लिखा। संस्कृत में आया। उस पर पतंजलि ने महाभाष्य संस्कृत में लिखा। अयुर्विज्ञान पर चरक संहिता लिखी गई। उसके बाद सुश्रुत संहिता आयी। इन ग्रन्थों में तमाम प्रश्न हैं, तमाम उत्तर हैं। संस्कृत भाषा में हैं। हमारे राष्ट्रजीवन में आकाश छूने की आकांक्षा रही है और परम वैभवशाली होने की भी। राष्ट्रजीवन की अभीप्सा, धर्म-अर्थ-काम और उसके बाद मोक्ष पाने की इच्छा भी रही है। हम उसके कर्ता-धर्ता के रूप में विनम्रता से सहभागी बनें। ऐसी भारत की आकांक्षा अभीप्सा रही है। यह मधु अभिलाषा भारत के मन की है। इसकी भी अभिव्यक्ति संस्कृत में हुई है।