G-20 की बैठक भारत सार्थक सुधारों से चूका

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भारत ने 01 दिसंबर 2022 को इंडोनेशिया से G-20 की सालाना बदलने वाले क्रम में अध्यक्षता संभाली। इस जिम्मेदारी के हिस्से के बतौर, भारत नवंबर 2023 में जी20 शिखर सम्मेलन की मेज़बानी करेगा। नवंबर 2023 में शिखर सम्मेलन के रन-अप में, भारत ने 13-14 दिसंबर 2022 को बेंगलुरु में पहली G-20 वित्त और FCBD (सेंट्रल बैंक डेप्युटी) बैठक की मेज़बानी की। 13-16 दिसंबर 2022 को मुंबई में जी20 डेवलपमेंट वर्किंग ग्रुप की एक बैठक भी हुई। G-20 की बैठकें क्रमशः आने वाली भारतीय सरकारों के बदलते रंग को सामने लाती हैं। “वैश्विक नेता” होने की बयानबाजी के तहत दब गई है बांडुंग स्पिरिट! भारत सार्थक सुधारों के प्रस्ताव का अवसर चूक गया।

बी सिवरामन

मुंबई में विकास कार्य समूह की बैठक के एजेंडे में हरित विकास जैसा प्रमुख मुद्दा शामिल था, जिसमें जलवायु कार्रवाई और वित्तपोषण और ऊर्जा संक्रमण (जीवाश्म ईंधन से नवीकरणीय ऊर्जा तक) शामिल थे। भारत अपने एजेंडे में शामिल (लाइफस्टाइल फॉर एनवायरनमेंट, वह फैंसी शब्दावली, जिस पर भारत ने मूल रूप से मिस्र COP27 में जोर देना शुरू किया था) के अपने चहेते एजेंडे को प्राप्त करने में कामयाब रहा है। इस विकास कार्य समूह के एजेंडे में एक अन्य महत्वपूर्ण आइटम संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्यों (SDG) को प्राप्त करने के प्रयासों में गति लाना भी था। इनके अलावा, डिजिटल ट्रांज़िशन, जिसमें डिजिटल पब्लिक गुड्स का प्रश्न और डेटा संबंधी मुद्दे भी शामिल हैं, एजेंडे में थे। बाली और टोक्यो में G-20 के पिछले दौरों में डेटा से संबंधित मुद्दे- डेटा सुरक्षा, विशेष रूप से कॉर्पोरेट हाथों में नागरिकों के व्यक्तिगत डेटा की सुरक्षा पर केंद्रित थे। लेकिन ड्राफ्ट डेटा प्रोटेक्शन बिल 2022 में डेटा स्थानीयकरण पर अमेरिकी दबाव के सामने भारत के आत्मसमर्पण के बाद, वह एक नए गैर-विवादास्पद लेबल ‘डेटा फॉर डेवलपमेंट’ के तहत एजेंडे को मोड़ने में कामयाब रहा। इसमें स्कूल पाठ्यपुस्तक की तरह का उपदेश है कि डेटा कैसे विकास के लिए उपयोगी हो सकता है! इसके अलावा, कम आय वाले देशों,जो विशेष रूप से महामारी के तनाव के कारण बढ़े संप्रभु ऋण संकट के कगार पर हैं, के ऋण संकट जैसे मुद्दे, विश्व बैंक और आईएमएफ जैसे विकास वित्तीय संस्थानों के पुनर्गठन और पुन: प्रयोजन के प्रश्न एजेंडे में थे; एशियाई विकास बैंक आदि जैसे क्षेत्रीय वित्तीय संस्थान भी इस विकास कार्य समूह के एजेंडे में शामिल रहे। हालांकि, विशिष्ट और व्यावहारिक ठोस प्रस्तावों के बिना भी भारत अपने पेट विषय ‘महिला-नेतृत्व विकास’ को भी एजेंडे में शामिल करने में कामयाब रहा है।

बेंगलुरु की बैठक में वैश्विक स्वास्थ्य, विशेष रूप से महामारी की तैयारी के मुद्दे के अलावा खाद्य और ऊर्जा मूल्य मुद्रास्फीति जैसी मौजूदा वैश्विक आर्थिक चुनौतियों, जिससे कई देशों में खाद्य और ऊर्जा असुरक्षा पैदा हुई, पर चर्चा की गई। मुंबई की बैठक में चर्चा किए गए कुछ मुद्दों पर बेंगलुरु की बैठक में भी चर्चा हुई, लेकिन केवल जलवायु चुनौतियों आदि के मैक्रो-इकोनॉमिक आयाम के दायरे में। इन दो बैठकों ने G-20 में भारत की अध्यक्षता की शुरुआत को चिह्नित किया। उन्होंने नवंबर 2023 में होने वाले जी20 शिखर सम्मेलन से पहले आयोजित होने वाले 13 कार्यकारी समूहों की कुल ऐसी लगभग 40 बैठकों के लिए दिशा निर्धारित की। इन चर्चाओं के परिणाम अभी तक पूरी तरह से प्रकाशित नहीं हुए हैं। फिर भी, उपलब्ध रिपोर्ट्स इस बात का शुरुआती संकेत देती हैं कि भारत G-20 में अध्यक्षता करते हुए किस तरह की भूमिका निभाएगा।

वैश्विक उत्तर दक्षिण विभाजन और भारत का बदलता रवैया

सभी बहुपक्षीय मंच -चाहे वह WTO हो या फिर आईएलओ या जलवायु मुद्दों पर वार्षिक COP बैठकें हों- विकसित देशों और विकासशील देशों के बीच आर्थिक हितों के वैश्विक उत्तर बनाम दक्षिण संघर्ष द्वारा चिह्नित हैं। यह दुनिया में एक केंद्रीय, सर्वव्यापी, विरोधाभास है। अतीत में, भारत विवादास्पद अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर वैश्विक दक्षिण की एक मजबूत और तीक्ष्ण आवाज का प्रतिनिधित्व करता था। G-20 के संदर्भ में भी, कई विकासशील देश भारत से उनकी आवाज का प्रतिनिधित्व करने की अपेक्षा करेंगे। लेकिन भारतीय स्थिति हाल-फिल्हाल बदलती नज़र आ रही है। वैश्विक उत्तर-दक्षिण विभाजन और उनके आर्थिक हितों के टकराव को उजागर करने के बजाय, हाल ही में, भारत के G-20 नैरेटिव में ‘वसुधैव कुटुंबकम’ पर जोर दिया गया है, मानो वैश्विक उत्तर और दक्षिण एक सामान्य हित समुदाय का निर्माण करते हों। यह बदलाव आंशिक रूप से भारतीय शासक अभिजात वर्ग के दोहरे मापदंडों का नतीजा है। जबकि वास्तविकता यह है कि भारत वैश्विक दक्षिण का हिस्सा है, भारतीय अभिजात वर्ग दिखावा करता है कि वह वैश्विक उत्तर का हिस्सा है। दरअसल, वह वैश्विक अभिजात वर्ग द्वारा स्वीकृति के लिए तरसता रहता है। उसे अफ्रीका के प्रति वास्तविक सहानुभूति रखने के लिए नहीं जाना जाता है, न ही वह लैटिन अमेरिका के देशों के साथ एकजुटता में खड़ा हुआ है, जब वे अमेरिका जैसी साम्राज्यवादी शक्तियों के हमलों का मुकाबला कर रहे थे। इसलिए कोई आश्चर्य नहीं कि भारत अब जी20 के संदर्भ में उत्तर-दक्षिण विरोधाभास को धुंधला करने की कोशिश में लगा है।

G-20 एक ‘टॉकिंग शॉप’ है

इसके अलावा, G7 के विपरीत, G-20 को गंभीर निर्णयों लेने वाले मंच के रूप में नहीं देखना चाहिए। इसके न्यूनतम निर्णय अधिकतर आम सहमति से होते हैं – ज्यादातर कार्यकारी समूहों के भीतर से आते हैं – न कि सदस्यों द्वारा बहुमत के वोट के आधार पर। जी20 की भूमिका और इसकी सीमित शक्तियों को समझने के लिए, यदि हम संक्षेप में याद करें कि यह अस्तित्व में क्यों आया और कैसे विकसित हुआ, तो यह अप्रासंगिक न होगा।

G-20 का जन्म पहली बार 1999 में एशियाई वित्तीय संकट की पृष्ठभूमि में हुआ था जिसने दक्षिण कोरिया, इंडोनेशिया, मलेशिया और थाईलैंड आदि जैसे पूर्वी एशियाई देशों को अपनी चपेट में ले लिया था। G7 देशों ने सोचा कि इसे रोकने के लिए विकासशील दुनिया के कुछ प्रमुख सदस्यों को शामिल करना बुद्धिमानी होगी, क्योंकि दुनिया के अन्य क्षेत्रों में भी संक्रमण का और फैलना रोका जा सकेगा। उस समय G-20 केवल 20 देशों के वित्त मंत्रियों का बहुपक्षीय मंच ही रह गया था।

केवल 2007 की वैश्विक वित्तीय मंदी और 2008 में आने वाले वैश्विक आर्थिक संकट के संदर्भ में, G-20 को राज्य के प्रमुखों के एक मंच में अपग्रेड किया गया और उनके वार्षिक शिखर सम्मेलन में संकट से निपटने और इससे उबरने के लिए आर्थिक नीतियों का समन्वय करने की कोशिश की गई थी। केवल 2009 में, इसे ‘वैश्विक आर्थिक समन्वय के लिए प्रमुख मंच’ के रूप में वर्णित किया गया था। इसके पहले जहां केवल मैक्रो-इकोनॉमिक मुद्दों पर ध्यान दिया जाता, व्यापार के अलावा, जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण, ऊर्जा, स्वास्थ्य और कृषि जैसे अन्य मुद्दों को कवर करने के लिए इसका दायरा बढ़ाया गया। और कुछ अन्य मुद्दों को मोटे तौर पर सतत विकास के मुद्दों के रूप में वर्णित किया गया- जैसे पर्यावरण के अनुकूल खनन और वनों की कटाई बन्द करना, आदि। यह अभी भी पूरी तरह से स्पष्ट नहीं है कि जी20 इन सभी मुद्दों पर डब्ल्यूटीओ,डब्ल्यूएचओ,यूएनईपी और यूएनसीटीएडी(प्रौद्योगिकी हस्तांतरण) आदि जैसे मंचों के काम को दोहराए बिना या उससे टकराए बिना कौन सी विशिष्ट मूल भूमिका निभाएगा।

कुल मिलाकर, इसे आर्थिक वृद्धि से उत्पन्न अधिकांश मुद्दों को कवर करने के लिए विस्तारित किया गया था। दूसरे शब्दों में, यह एक ‘क्राइसिस बेबी’ था, जो पूंजीवादी संकटों से बेहतर तरीके से निपटने के लिए पैदा हुआ था। लेकिन इस मामले में वह कभी कारगर नहीं रहा। वह अतिरिक्त सदस्यों के होने के बावजूद G7 से अधिक शक्तिशाली नहीं है, और शक्तिशाली राष्ट्रों के G7 समूह की शक्ति का एक अंश भी ताकत नहीं रखता।

उदाहरण के लिए, आर्थिक मंदी का संकट धीरे-धीरे सभी G-20 देशों में पैर पसार रहा है। वित्त वर्ष FY23 की पहली दो तिमाहियों (यानी, 2022-23) में प्रदर्शन से वार्षिक आधार पर अनुमान लगाने पर, जी20 देश 2022-23 में केवल 3.3% की वृद्धि करेंगे। प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं की बात करें तो, अमेरिकी अर्थव्यवस्था में 1.9% की वृद्धि होगी। चीनी अर्थव्यवस्था की विकास दर 3.2% तक धीमी होने की उम्मीद है। जर्मनी की वृद्धि दर 1.8% होगी जापानी अर्थव्यवस्था में 0.2% संकुचन होगा, ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था में 0.2% और तुर्की की अर्थव्यवस्था में 0.1 % की वृद्धि होगी। दक्षिण अफ्रीका में 1.6% और ब्राजील में 2.8% की वृद्धि होगी और युद्धग्रस्त रूस में 3.4% से 5.5% की नकारात्मक वृद्धि होगी। केवल भारत में 5.6% की वृद्धि होगी और सऊदी अरब में 9.3% की उच्च वृद्धि दर्ज करने की उम्मीद है क्योंकि यूक्रेन युद्ध ने अंतरराष्ट्रीय बाजारों में सऊदी तेल की कीमत बढ़ा दी है। ऐसे में, जी20 द्वारा संकट से निपटने और 2023-24 में और अधिक गिरावट को रोकने के लिए बेंगलुरु की बैठक से कोई सार्थक प्रस्ताव सामने नहीं आया है। अकादमिक मानकों के हिसाब से भी, वैश्विक आर्थिक संकट पर जी20 विचार-विमर्श किसी उच्च स्तर का नहीं है। कोई इसे गंभीरता से नहीं लेता।

फिर भी, वैश्विक उत्तर के बढ़ते आर्थिक आधिपत्य का विरोध करने के लिए G-20 को वैश्विक दक्षिण के देशों द्वारा एक मंच के रूप में उपयोग किया जा सकता है। प्रेसीडेंसी हो या न हो, भारत जैसे देश को विकासशील दुनिया के हितों और मांगों को बलपूर्वक उठाने में प्रमुख भूमिका निभानी चाहिए। लेकिन भारत असफल हो रहा है, और वह भी शायद सचेत रूप से। उदाहरण के लिए, बेंगलुरु और मुंबई कार्य समूह की बैठकें बाली शिखर सम्मेलन और COP-27 बैठक के बाद होती हैं। लेकिन भारत ने इस सवाल को उठाने से परहेज किया है कि कम आय वाले देशों को जलवायु संकट से निपटने और शुद्ध-शून्य कार्बन संक्रमण तक पहुंचने में मदद करने के लिए ग्लोबल नॉर्थ अभी तक $ 100 बिलियन अरब जलवायु कोष को मंजूरी देने के मामले में आगे क्यों नहीं आया?

यदि दुबई में कोई भारतीय प्रवासी कर्मचारी भारत में अपने परिवार को 1000 रुपये भेजता है, तो उसे 50 रुपये की लेनदेन लागत का भुगतान करना होगा। सऊदी अरब जैसे किसी अन्य देश से, लेनदेन की लागत 150 रुपये या उससे अधिक हो जाती है। श्रमिकों को खाड़ी देशों को ‘प्रेषण शुल्क’ (remittance fee) देना होता है। द्विपक्षीय या बहुपक्षीय रूप से यदि भारत सरकार लेन-देन की लागत को श्रमिकों द्वारा भुगतान किए जा रहे पैसे के एक अंश भी कम कर पाती, लाखों कर्मचारी औसतन अपनी आय के अरबों डॉलर बचा सकते हैं। लेकिन भारत कभी भी ऐसी मांग को लेकर दूसरे देशों से नहीं टकराता ।भारत न केवल सामूहिक निरस्त्रीकरण के लिए बल्कि हथियारों के उत्पादन और सैन्य खर्च में भारी कटौती के लिए भी उत्तर-दक्षिण सहयोग का प्रस्ताव रख सकता है ताकि भारी मात्रा में धन की बचत की जा सके और विकासात्मक खर्च के लिए इस्तेमाल किया जा सके।

विकसित देश चावल के निर्यात पर भारत के प्रतिबंधों के आलोचक हैं। लेकिन भारत कभी भी यूरोप और अमेरिका में किसानों को उच्च सब्सिडी पर डब्ल्यूटीओ विवाद नहीं उठाता। कोविड-19 से संबंधित दवाओं के लिए ट्रिप्स छूट की भारत की मांग को आंशिक रूप से ही पूरा किया गया है। अमरीकियों का कहना है कि भारत रूस से तेल खरीद सकता है, लेकिन यह कहने का दुस्साहस करता है कि भारत को अमेरिका द्वारा मूल्य सीमा के माध्यम से निर्धारित मूल्य पर ही ख़रीदना चाहिए! पवित्र “बाजार सिद्धांत”(market principle) का क्या हुआ? ऐसे कई मुद्दे हो सकते हैं जहां भारत अपने स्वयं के राष्ट्रीय हित के साथ-साथ विकासशील दुनिया के हितों को भी उठाते रह सकता है। लेकिन दुर्भाग्य से भारत विफल रहा।

विपक्षी दल भी बेशर्मी से सर्वदलीय बैठक में भाग लेते हैं और भारत के “वैश्विक नेता” होने की प्रशंसा के कोरस में शामिल होते हैं! लेकिन वे ग्लोबल साउथ के हितों के चैंपियन बनने के लिए ठोस सुझावों के साथ सरकार का सामना करने का कर्तव्य निभाने में बुरी तरह विफल रहे, खासकर यूरोप और अमेरिका के कृषि व्यवसाय दिग्गजों (agribusiness giants) से विकासशील देशों के किसानों का बचाव। संक्षेप में, G-20 की बैठकें क्रमशः आने वाली भारतीय सरकारों के बदलते रंग को सामने लाती हैं। “वैश्विक नेता” होने की बयानबाजी के तहत दब गई है बांडुंग स्पिरिट…….! [/Responsivevoice]

(लेखक श्रम और आर्थिक मामलों के जानकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)