जवाबदेही से परे होती सरकारें….!

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डॉ0 अम्बरीष राय

एक जमात है मोटी मोटी क़िताब पढ़ने वालों की. इसमें कुछ इलाहाबाद अब का प्रयागराज से नौकरी की तलाश में पढ़ आए हैं. कुछ पढ़ रहे हैं. कुछ पढ़ने जाएंगे. कुछ पा गए. कुछ खो आए. कुछ के हिस्से में बस इतना आया कि वो आने वाली पीढ़ियों को कहानी सुना सकें कि वो एक जमाने में पूरब के ऑक्सफोर्ड में पढ़ आए हैं. बात आज उन इलाहाबादियों की, जो मूलतः इलाहाबादी नहीं हैं. बस घर का राशन लेकर शासन प्रशासन का हिस्सा बनने संगम शहर प्रयागराज पहुंच गए. या बिना किसी उल्लेखनीय उपलब्धि के संगम नगरी से प्रस्थान करने के मुहाने पर हैं. कुछ तो प्रस्थान करने के बावजूद बस परिचय भर के लिए परीक्षार्थी और शिक्षार्थी बने हुए हैं. इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हॉस्टल इतने नहीं हैं कि उम्मीदों की इतनी बड़ी फौज अपने में समेट ले. सस्ते लॉज भी भीड़ से ओवरफ़्लो कर रहे हैं. लिहाज़ा एक बहुत बड़ी तादाद इलाहाबाद के बिना धूप रौशनी के दड़बेनुमा कमरों में किताबों से दो चार है. अब दो चार है तो ज्ञान है. ज्ञान है तो फ्लो है. फ्लो है तो ओवरफ्लो भी है.

इस निज़ाम में नौकरी दूर की कौड़ी है. भगवा ब्रिगेड की सरकारें लगातार नौकरियों में कटौती कर रही हैं. नौकरी के अवसरों को कम किया जा रहा है. सरकारें जवाबदेही से परे होती जा रही हैं. ज़िम्मेदारी किस चिड़िया का नाम है, इस सवाल का जवाब ढूंढने में ना सरकार की कोई दिलचस्पी है और ना ही कोई मज़बूरी. ख़ैर बात मैं ज्ञान की कर रहा था. ज्ञान के ओवर फ्लो की कर रहा था. तो सरकारों की कार्यप्रणाली पर कुछ लोग टिप्पणीकार भी हो गए. तो इस जमात से भगवा सरकार की रीति नीति को लेकर कई बुद्धिजीवी और लेखक भी निकल आए हैं. भारी भरकम शब्दों के साथ ये तथ्यों का तिलिस्म भी बेहद खूबसूरती से सजा लेते हैं. एक कॉकस भी बना रखा है. जो एक दूसरे के बौद्धिक विमर्श की मार्केटिंग करता रहता है. इसमें समाज के तथाकथित संभ्रांत हिस्सों के लोग विमर्श में अपनी दावेदारी कर रहे हैं. दिल्ली विश्वविद्यालय जाने के पहले मैं इलाहाबाद विश्वविद्यालय में ही नामांकित था. इसलिए समझ और अनुभव आयातित नहीं है. इलाहाबाद की मेरी अपनी दिलचस्प यादें हैं, कभी मौका मिला तो साझा करूंगा. बहरहाल उत्तर प्रदेश ने 2017 में महंत जी की सरकार देखी.

आज जब मैं ये लिख रहा हूं तो महंत जी की सरकार जनमत के लिए जनता के दरवाजे पर है. अरसे से मेरे सम्पर्क में इलाहाबाद में तैयारी कर रहे लोग हैं. व्यक्ति विशेष, समूह विशेष का ज़िक्र ना करते हुए विषय का ज़िक्र कर रहा हूं. और विषय ये है कि महंत जी की सरकार ने प्रतियोगी छात्रों के लिए अवसर नहीं बनाए. और जो अवसर थे भी, इनको महंत जी की सरकार निगल गई. एक प्रतियोगी छात्र ने मुझसे कहा कि पिछली सरकारों में हम परीक्षाएं तो दे रहे थे. अपनी औक़ात समझ रहे थे. परीक्षाओं में भेदभाव को लेकर आंदोलन भी किए लेकिन इस सरकार में मौका ही ख़त्म हो गया. एक प्रतियोगी छात्र ने कहा कि उम्र के उस पड़ाव पर आ चुके हैं कि अब खाली हाथ घर ही लौटना पड़ेगा. उसने कहा कि ये सोचकर परेशान हूं कि जब छोटों को कुछ समझाने जाऊंगा तो वो कहीं ये कहकर चुप ना करा दे कि खूब जानते हैं बाबू जी के पैसे पर आपने इलाहाबाद में कितनी मस्तियां की हैं. इतने ही ज्ञानी होते तो कुछ कर लिए होते. कहानियां इतनी कि हासिल की ज़मीन दुःखों से गीली होती दिखती है. अभी हाल ही में रेलवे की परीक्षा को लेकर प्रतियोगी छात्रों का आक्रोश सड़कों की उत्तेजना बढ़ा गया. पुलिस के बटों और बूटों से चीखते चिल्लाते छात्रों से इलाहाबाद कराह उठा. इलाहाबादी छात्रों के बुद्धिजीवी लेखकों और टिप्पणीकार सोशल मीडिया में सरकार को चेताते दिखे. चुनाव की बिसात पर बिछते उत्तर प्रदेश के निज़ाम के लिए एक मुश्किल आ खड़ी हुई. लेकिन कहीं न कहीं निज़ाम मुतमईन भी था. वो जानता था कि बौद्धिक विलासिता की जुगाली करता ये वर्ग महज़ चंद लाईनों में आत्म संतोष ढूंढता है. फिर धर्म, क्षेत्र और जाति की राजनीतिक स्थापना में इसे दम ही तोड़ देना है.

भारतीय टेलीविजन्स से निकलती पूर्वाग्रही सरकारी सोच से राजनीतिक समझ बनाती इस जमात का इससे ज़्यादा हासिल भी कुछ नहीं है. चंद रोज़ बीते और नौकरियां खोजता, सरकार को घेरता ये काकस सरकार के समर्थन में अपनी ज़रूरतें भूल गया. मैं देख पा रहा हूं कि इनके सोशल मीडिया अकाउंट मौजूदा निज़ाम की पैरोकारी में बिछे जा रहे हैं. भारतीय लोकतंत्र की यही ख़ूबसूरती है कि उसे अपना पक्ष चुनने की सार्वभौमिक स्वतंत्रता है. इसी को मुकम्मल आज़ादी कहते हैं. और इसी लोकतंत्र की बदसूरती की बात करे तों अपना राजनीतिक पक्ष चुनती जमातें अपना पक्ष भूल जाती हैं. वो पक्ष जहां उसके अपने और अपने परिवार की खुशियां, परिवार की ज़रूरतें कातर भाव से देखती रह जाती हैं. इलाहाबाद में पिटते छात्रों को देखकर आवाज़ों के समूह ने जब पुलिसिया बर्बरता पर यह कहकर तंज किया कि यही लोग सरकार के समर्थक हैं, पिट रहे हैं तो ठीक ही हो रहा है तो कहीं कुछ टूट सा गया. सरकार की रस्मी आलोचना कर फिर उसी के खेमे में खड़े होने वालों को देखकर फिर कहीं कुछ टूट रहा है. टूटन के इस गहराते दौर की इंतिहा, लाज़िम है हम देखेंगे.