सुप्रीम कोर्ट फैसले की अवमानना है ज्ञानवापी का सर्वे आदेश- शाहनवाज़ आलम

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असलम भूरा केस में सुप्रीम कोर्ट के फैसले की अवमानना है ज्ञानवापी का सर्वे आदेश।अदालतों का राजनीतिक दुरूपयोग लोकतंत्र को कमज़ोर कर रहा है।अवमानना से चिंतित अदालतों को सोचना चाहिए कि उनकी छवि संदिग्ध क्यों हो रही है।कांग्रेस नेता ने दिये 6 नज़ीर जिनसे अदालतों की विश्वसनीयता संदिग्ध हुई।



लखनऊ।
14 मार्च 1997 को मोहम्मद असलम भूरे वर्सेस भारत सरकार (रिट पिटीशन नंबर 131/1997) में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया था कि काशी विश्वनाथ मंदिर, ज्ञानवापी मस्जिद, मथुरा का कृष्ण जन्मभूमि मंदिर और शाही ईदगाह की स्थिति में किसी तरह का कोई बदलाव नहीं किया जा सकता। अपने पुराने निर्णय (रिट पिटीशन 541/1995) का हवाला देते हुए कोर्ट ने यह भी कहा था कोई भी अधीनस्थ अदालत इस फैसले के विरुद्ध निर्देश नहीं दे सकती। इसलिए बनारस की निचली अदालत द्वारा करवाया गया सर्वे न सिर्फ़ पूजा स्थल अधिनियम 1991 का उल्लंघन है बल्कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले की भी अवमानना है। जिसके खिलाफ़ सुप्रीम कोर्ट को बनारस अदालत के उक्त जज के विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाई करनी चाहिए थी। लेकिन आश्चर्यजनक रूप से कई बार ध्यान दिलाने के बावजूद सुप्रीम कोर्ट इस अनुशासनहीनता को प्रोत्साहित करती दिखी। ये लोकतंत्र के लिए अच्छे संकेत नहीं हैं। ये बातें अल्पसंख्यक कांग्रेस अध्यक्ष शाहनवाज़ आलम ने जारी प्रेस विज्ञप्ति में कहीं।

शाहनवाज़ आलम ने कहा कि पिछले कुछ वर्षों से जिस तरह एक खास राजनीतिक प्रवित्ति वाली याचिकाएं अदालतों द्वारा स्वीकार की जा रही हैं उससे यह संदेश जा रहा है कि न्यायपालिका का एक हिस्सा सरकार के साथ सांठगांठ में है और न्यायतंत्र के स्थापित मूल्यों के खिलाफ़ जा रहा है। ऐसा धारणा बन रही है कि जो काम सीधे सरकार नहीं कर पा रही है उसे न्यायपालिका के एक हिस्से से करवाया जा रहा है, ताकि विरोध न हो क्योंकि अदालतों के विरुद्ध बोलने का सामाजिक रिवाज अपने यहाँ नहीं है। जो दरअसल, एक औपनिवेशिक प्रवित्ति है। जबकि संविधान का आर्टिकल 19 (ए) अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ ही कांटेम्ट ऑफ कोर्ट एक्ट 1971 का सेक्शन 5 भी आलोचना का तार्किक आधार देता है। ?

उन्होंने ज्ञानवापी का उदाहरण देते हुए कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने कथित सर्वे की रिपोर्ट के लीक होने पर तो नाराज़गी जतायी लेकिन उस कथित सर्वे के आधार पर मीडिया द्वारा प्रसारित किए जा रहे सांप्रदायिक अफवाहों पर कोई रोक नहीं लगाई। जिससे उसकी मंशा पर संदेह उठना स्वाभाविक है कि कहीं यह कथित जन भावना के निर्माण की कोशिश तो नहीं है जिसके आधार पर बाद में इसे मंदिर घोषित कर दिया जाएगा।
शाहनवाज़ आलम ने कहा कि ऐसा देखा जा रहा है कि अदालतों के एक हिस्से के रवैय्ये से प्रोत्साहित हो कर देश भर के सांप्रदायिक तत्व ऐतिहासिक मुस्लिम इमारतों पर दावेदारी कर माहौल बिगाड़ रहे हैं। उन्होंने कहा कि किसी फैसले से अराजक तत्व प्रोत्साहित होते हैं या शांतिप्रिय लोग यह न्यायाधीशों के चरित्र को समझने के लिए अहम पैमाना होता है।

शाहनवाज़ आलम ने कहा कि अदालतों के खिलाफ़ बढ़ती अवमानना से चिंतित होने के बजाए न्यायपालिका को सोचना चाहिए कि ऐसा क्यों हो रहा है। उन्होंने हाल के 6 उदाहरण दिये जहाँ अदालतों का रवैय्या न्यायसम्मत नहीं कहा जा सकता-

1- जस्टिस लोया की हत्या की जांच की मांग प्रभावशाली ढंग से न्यायिक बिरादरी ने नहीं की।

2- वरिष्ठता में देश में दूसरे नंबर पर रहे  त्रिपुरा और राजस्थान के मुख्य न्यायाधीश रहे अकील कुरेशी को सुप्रीम कोर्ट में जज नियुक्त न किये जाने पर न्यायपालिका का बड़ा हिस्सा चुप रहा। गौरतलब है कि अमित शाह को जस्टिस कुरेशी ने ही सोहरबुद्दीन फ़र्ज़ी मुठभेड़ में दो दिनों के लिए सीबीआई की कस्टडी में दिया था।

3- 8 दिसंबर 2021 को जम्मू कश्मीर के मुख्य न्यायाधीश पंकज मित्तल ने सार्वजनिक तौर पर कहा कि संविधान की प्रस्तावना में पंथनिरपेक्ष शब्द होने से भारत की छवि धूमिल हुई है। सर्वाेच्च न्यायालय ने उनके खिलाफ़ स्वतः संज्ञान लेते हुए कोई अनुशासनात्मक कार्यवाई नहीं की।

4- संगीत सोम समेत कई भाजपा नेता कह रहे हैं कि 1992 में बाबरी मस्जिद के साथ जो हुआ 2022 ज्ञान ज्ञानवापी के साथ वही होना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट अपने फैसले में 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद के विध्वंस को अपराध बता चुका है। क्या न्यायपालिका को ऐसे बयानों पर स्वतः संज्ञान नहीं लेना चाहिए? क्या उसकी चुप्पी उसकी गरिमा के अनुरूप है?

5- भाजपा नेता बाबरी मस्जिद- राम जन्मभूमि पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को अपनी उपलब्धि बता कर नारा देते हैं कि जो राम को लाए हैं, हम उनको लाएंगे। क्या सर्वोच्च न्यायालय को अपने फैसले को किसी राजनीतिक दल द्वारा अपनी उपलब्धि बताने पर रोक नहीं लगानी चाहिए ?

6- जम्मू कश्मीर को भारतीय संघ का हिस्सा बनाने वाले आर्टिकल 370 को खत्म कर देने के खिलाफ़ सुप्रीम कोर्ट के समक्ष 23 याचिकाएं पिछले 3 साल से पड़ी हैं। लेकिन क़रीब डेढ़ करोड़ लोगों को व्यवस्थागत अनिश्चितताओं से निकालने के लिए ज़रूरी इन याचिकाओं पर फौरी सुनवाई से सुप्रीम कोर्ट क्यों बचता दिख रहा है।