हाईकोर्ट ने राज्य सूचना आयोग के आदेश पर लगाई रोक

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अतुल कुमार

लखनऊ। इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच ने राज्य सूचना आयोग के उस आदेश पर रोक लगा दी है, जिसमें राज्य सूचना आयोग ने उत्तर प्रदेश के मुख्य सविच के माध्यम से सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 के तहत यूपी राज्य में संचालित गैर सहायता प्राप्त निजी स्कूलों को किसी भी व्यक्ति के द्वारा माँगी गई जानकारी उपलब्ध कराने के लिए प्राइवेट विद्यालयों में जन सूचना अधिकारी की नियुक्ति करने का निर्देश दिया था। यह आदेश गैर-सहायता प्राप्त निजी स्कूलों के संघ, उत्तर प्रदेश प्राइवेट स्कूल एसोसिएशन के अध्यक्ष अतुल कुमार द्वारा दायर एक रिट याचिका पर न्यायमूर्ति राकेश श्रीवास्तव एवं न्यायमूर्ति शमीम अहमद की पीठ द्वारा पारित किया गया। इस याचिका में तर्क दिया गया कि निजी स्कूल किसी भी राज्य या स्थानीय प्राधिकरण से कोई अनुदान अथवा सहायता प्राप्त नहीं कर रहे हैं। अतः आरटीआई अधिनियम, 2005 के तहत परिभाषित ’लोक प्राधिकरण’ की परिभाषा के तहत नहीं आते हैं।


रिट याचिकाकर्ता की ओर से पेश अधिवक्ता रवि प्रकाश गुप्ता ने रिट याचिका में तर्क दिया है कि धारा 18 के तहत अपने मूल अधिकार क्षेत्र में शक्ति का प्रयोग करते हुए, मुख्य सचिव को धारा 19(8)(ए)(पप) के तहत ऐसा कोई सामान्य निर्देश नहीं दिया जा सकता है। इसी प्रकार, राज्य सूचना आयोग द्वारा किया गया ऐसा निर्देश भी उसके सलाहकार क्षेत्राधिकार से संबंधित धारा 25(5) के तहत नहीं दिया जा सकता है। श्री गुप्ता ने न्यायालय के समक्ष तर्क दिया कि न्यायमूर्ति श्री राजन राय और न्यायमूर्ति सुरेश कुमार गुप्ता की एक समन्वय पीठ ने 14.07.2021 को एक गैर सहायता प्राप्त सिटी मोंटेसरी स्कूल द्वारा दायर मामले में राज्य सूचना आयोग के इस आदेश के संचालन पर पहले ही रोक लगा दी है, जो रिट याचिकाकर्ता संघ के सदस्यों के लिए भी लागू किया जा सकता है क्योंकि राज्य आयोग के इस आदेश का उन पर भी प्रभाव पड़ेगा। याचिकाकर्ता उत्तर प्रदेश प्राइवेट स्कूल एसोसिएशन के सदस्य पूरे उत्तर प्रदेश राज्य में हैं, ऐसे में माननीय उच्च न्यायालय ने उक्त स्थगन आदेश का विस्तार करते हुए आरटीआई कार्यकर्ता और अन्य को नोटिस जारी किया है और यू.पी. और राज्य सूचना आयोग से रिट याचिका पर अपना जवाब दाखिल करने के लिए आदेश पारित किया है।


उत्तर प्रदेश प्राइवेट स्कूल एसोसिएशन द्वारा दाखिल रिट याचिका में यह तर्क दिया गया था कि राज्य सूचना आयोग ने गलती से देखा कि वंचित समूहों के छात्रों को 25 प्रतिशत मुफ्त प्रवेश के एवज में बच्चों के निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा अधिनियम, 2009 की धारा 12(2) के तहत निजी स्कूलों की प्रतिपूर्ति राशि राज्य द्वारा सहायता अनुदान के लिए जिसे ’वित्तपोषित’ माना जा सकता है, ऐसे स्कूल को आरटीआई अधिनियम, 2009 की धारा 2(एच) के तहत ’सार्वजनिक प्राधिकरण’ के दायरे में लाया जा सकता है। याचिकाकर्ता के अधिवक्ता ने बताया कि ख्ज्ींसंचचंसंउ ैमतण् ब्ववचण् ठंदा स्जकण् – ।दतण् अे ैजंजम व िज्ञमतंसं -व्ते ख्2013 ;16द्ध ैब्ब् 82, के केस में माननीय सुप्रीम कोर्ट नेयह स्पष्ट किया है कि केवल सहायक, अनुदान, छूट, विशेषाधिकार आदि को पर्याप्त मात्रा में धन उपलब्ध कराना नहीं कहा जा सकता है, जब तक कि रिकार्ड यह नहीं दिखाता है कि फंडिंग उस निकाय के लिए इतनी बड़ी थी जो व्यावहारिक रूप से उक्त निकाय को फंडिंग की सहायता से समुचित रूप से चला सके। परन्तु इस प्रकार की फंडिंग जैसे कि अनुदान, छूट आदि के बावजूद भी कोई भी संस्थान अपने अस्तित्व के लिए संघर्षरत रहेगा।

याचिकाकर्ता द्वारा यह तर्क दिया गया था कि प्रिमति एजुकेशनल एंड कल्चरल ट्रस्ट मामले में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने गैर-सहायता प्राप्त स्कूलों में 25 प्रतिशत मुफ्त प्रवेश की वैधता की जांच करते हुए यह स्पष्ट कर दिया कि आरक्षण (93वें संवैधानिक संशोधन के तहत संवैधानिक रूप से अनुमत) छात्रों के पक्ष में है। निजी स्कूलों में सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों को संविधान के अनुच्छेद 15 में खंड (5) डालने से गैर सहायता प्राप्त स्कूलों को सहायता प्राप्त स्कूलों के बराबर नहीं लाया जा सकता है। मुफ्त प्रवेश के बदले इस तरह की प्रतिपूर्ति गैर सहायता प्राप्त निजी स्कूलों को सहायता प्राप्त स्कूलों के बराबर नहीं बना देगी।