कजली की रक्षा के लिए जुट गया मैं

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लोकगीतों से मुझे बचपन से बड़ा लगाव रहा है। मेरे घर में जब भी कोई छोटाबड़ा शुभ अवसर होता था, पासपड़ोस की महिलाएं उस अवसर पर एकत्र होकर मधुर लोकगीतों का ऐसा समां बांधती थीं कि बाहर तक सारा वातावरण गमक उठता था। मुहल्ले में किसी न किसी घर में जब कुछ न कुछ शुभ कार्य होता था तो उसमें लोकगीतों की महफिल सजती थी। इस प्रकार पूरे मुहल्ले में जबतब लोकगीतों की रसवर्षा होती रहती थी। हर शुभ अवसर के लिए अलग-अलग विशेष लोकगीत होते थे, लेकिन हमेशा सबसे पहले देवीगीत गाए जाते थे। हर घर में ढोलक, मजीरा, झांझ, घुंघरू, हारमोनियम अवश्य होते थे।


उस समय घरों में महिलाएं लोकगीतों में पारंगत तो होती ही थीं, गवनहारिनों की टोलियां भी हुआ करती थीं। उन गायक टोलियों में जो महिलाएं शामिल रहती थीं, उन्हें हर अवसर से सम्बंधित अनगिनत लोकगीत कंठस्थ होते थे। विभिन्न अवसरों पर जब गवनहारिनें आती थीं, उन्हें परम्परानुसार रुपये, खाद्य सामग्रियां, वस्त्र आदि नेग के रूप में भेंट किए जाते थे। इससे गवनहारिनों की तो आर्थिक मदद होती ही थी, इस प्रकार परम्परागत रूप में घरेलू लोकगीतों का अस्तित्व बना रहता था। आधुनिक सभ्यता के प्रकोप से घरेलू लोकगीतों का बहुत विनाश हुआ है तथा गवनहारिनों का अस्तित्व भी समाप्त हो गया है।


लोकगीतों की समाप्त होती जा रही परम्परा की रक्षा के लिए मैं वर्ष १९६१ से जुट गया था। जनवरी, १९६१ में मैंने अखिल भारतीय सांस्कृतिक, साहित्यिक एवं समाजसेवी संस्था ‘रंगभारती’ की स्थापना की और उसी के साथ मैंने नए-नए प्रयोगों एवं अभियानों की भी शुरुआत कर दी थी। उन अभियानों में लोकगीतों की रक्षा का अभियान भी शामिल था। ‘रंगभारती’ के इन सभी कार्याें में मेरी ही पूंजी लगा करती थी। किन्तु इतने संसाधन पास में नहीं थे कि उनसे लोकगीतों की रक्षा के अभियान को मनचाहा रूप दिया जा सके। अतएव इस दायित्व के निर्वाह के लिए मैंने उत्तर प्रदेश संस्कृति निदेशालय को घेरना शुरू किया। वर्ष १९६१ में मैं पत्रकारिता में आ गया था, अतः पत्रकारिता के माध्यम से भी मैंने लोकगीतों की रक्षा का अभियान चलाया। बाद में जब प्रयागराज में उत्तर-मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र की स्थापना हुई तो उससे भी मैंने नष्ट हो रहे लोकगीतों की रक्षा करने का बार-बार अनुरोध किया।

उत्तर प्रदेश संस्कृति निदेशालय बहुत कुछ करने में सक्षम था, किन्तु हाल के दशकों में उस निदेशालय का यह दुर्भाग्य हुआ कि वह लम्बे समय तक कुछ ऐसे वरिष्ठ अफसरों के शिकंजे में फंसा, जिन्होंने उसे चौपट कर डाला। परिणाम यह हुआ कि निदेशालय अपने वास्तविक उद्देश्यों से बिलकुल भटक गया। मुलायम सिंह यादव जब मुख्यमंत्री बने, तब तो निदेशालय का पूरी तरह बंटाधार हुआ। सपा के शासनकाल में संस्कृति निदेशालय मात्र ‘यशभारती निदेशालय’ बनकर रह गया। निदेशालय का धन भ्रष्टाचार की चलनी से छनकर तमाम जेबों में जाने लगा। मैंने जीजान से बड़ी कोशिश की कि संस्कृति निदेशालय लोकगीतों की रक्षा के अभियान में संलग्न हो। मैंने मुख्यमंत्री से लेकर विभागीय मंत्रियों व उच्च अधिकारियों को तमाम सुझाव लिखकर दिए। लेकिन मेरे सारे सुझाव एवं अनुरोध नक्कारखाने में तूती की आवाज होकर रह गए। संस्कृति विभाग कभी-कभी लोकगीतों का कोई छोटामोटा आयोजन कर अपने कर्तव्य की इति मान लेता था। न तो सरकार का लोकगीतों के प्रति कोई लगाव व समर्पण भाव था और न उसके अफसरों का। कभीकदा जो आयोजन किए भी जाते थे, उन पर भ्रष्टाचार की छाया पड़ जाती थी।


जब मैंने पहली बार मीरजापुर की कजली सुनी थी तो उन हृदयस्पर्शी धुनों पर ऐसा सम्मोहित हुआ था कि उनका दीवाना हो गया था। लेकिन बाद में जब मुझे पता लगा कि मीरजापुर व आसपास के क्षेत्रों में वहां की कजली धीरे-धीरे उपेक्षित एवं विलुप्त हो रही है तो बड़ी चिन्ता हुई। मैं अपने को रोक न सका तथा तत्कालीन मुख्यमंत्रियों, मंत्रियों व उच्चाधिकारियों के बहुत पीछे पड़ा कि वे मीरजापुर की कजली के संरक्षण का बीड़ा उठाएं। लेकिन मुझे निराश होना पड़ा। संस्कृति विभाग ने बस इतना किया कि मीरजापुर के एक-दो कजली गायकों को बुलाकर कभी उनका कार्यक्रम करा देता था। लेकिन मात्र इतना करने से कोई अंतर नहीं पड़ सकता था। मैंने प्रदेश सरकार को अनेक बार यह सुझाव दिया कि वृहत स्तर पर लोकगीत अकादमी का गठन करे, जो लोकगीतों की रक्षा, शोध एवं प्रशिक्षण के ठोस कार्य करे। घरेलू लोकगीतों की रक्षा करना भी उस अकादमी का विशेष दायित्व हो।


मैं सरकार से जब यह कार्य नहीं करा सका तो चूंकि लोकगीतों के प्रति मेरे मन में बहुत अधिक अनुराग था, इसलिए मैं संसाधनों के अभाव के बावजूद लोकगीतों, विशेष रूप से मीरजापुरी कजली की रक्षा के अभियान में स्वयं जुट गया। सबसे पहले मैंने मीरजापुर में जगह-जगह कजली के कार्यक्रम आयोजित किए। हर साल पूरे सावन-भादों मैं यह कार्यक्रम करने लगा। यद्यपि उन कार्यक्रमों के आयोजन में काफी व्यय हो जाता था, लेकिन मेरे इस प्रयास से कजली के प्रति जनमानस का रुझान बढ़ा तथा मेरी तरह कुछ अन्य लोग भी कजली के आयोजन करने लगे।

मेरे अनुरोध पर जिला प्रशासन ने भी घंटाघर पर आयोजन शुरू किया।
एक बार मीरजापुर के बदलीघाट मुहल्ले में कजली के प्रकांड विद्वान एवं शोधकर्ता अमरनाथ पांडेय की अध्यक्षता में हमारी ‘रंगभारती’ संस्था द्वारा कजली-उत्सव का आयोजन किया गया। उसमें घंटों तक कजली की मधुर रसधार बही, जिससे वह कजली-उत्सव एक अविस्मरणीय आयोजन बन गया। समारोह में गुलाब ने सबसे पहले ‘नाहीं माने तोर बिरनवा ननद हमरी’ कजली सुनाकर श्रोताओं को आनंदित किया था, जिसके भाव थे कि एक भाभी अपनी ननद से कह रही है कि तुम्हारे भइया नहीं मान रहे हैं और परदेस जाने की ठाने हुए हैं, अतः तुम्हीं उन्हें किसी तरह रोक लो। गुलाब ने अन्य अनेक कजलियां भी सुनाई थीं। द्वारका कसेरा ने ‘श्याम ठाढ़े कदमवा की छइयां’ व अन्य कजलियां सुनाईं। मोतीलाल की ‘महादेव-महादेव’ कजली विशेष पसंद की गई।


अन्य गायकों के उपरांत उस समारोह में पंडित छविराम अखाड़े के पं. मुन्नीलाल शर्मा की शिष्या कुमारी आश्रया पांडेय ‘मधु’ ने गायकी की अनोखी छटा बिखेरी थी। उन्होंने सुरीले स्वरों में एक से एक बढ़कर सरस कजलियां सुनाईं। अनेक ठेठ पुरानी कजलियां भी प्रस्तुत कीं- ‘मैं तो ठाढ़ी जमुन दह तीर, झुलनिया पे गर्दा पड़ी’, ‘अपनी लहरी के कारनवा गेंदवा होइरे जातिउ ना’(अपने प्रेमी के लिए गेंदे का फूल बन जाऊंगी), ‘अबकी तोहके गोरी गढ़उबे झोंकेदार झुलनिया ना’, आदि।