चौ.लौटनराम निषाद

व्यवस्था कोई भी हो, उसमें समय के साथ परिवर्तन,परिवर्द्धन और बेहतरी की गुंजाइश बनी रहती है। यह स्वाभाविक भी है। न्यायिक व्यवस्था में भी इसकी जरूरत पड़ती रही है और पड़ती रहेगी। उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के चयन में ज्यादा लोकतांत्रिक और ज्यादा पारदर्शिता की जरूरत है, ऐसा न्यायिक जगत और उसके बाहर भी महसूस किया जाता रहा है।न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए बनी कॉलेजियम व्यवस्था पर सवाल उठते रहे हैं। ऐसे में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन सरकार ने अपने पिछले कार्यकाल में 99वें संविधान संशोधन के माध्यम से कॉलेजियम प्रणाली के स्थान पर न्यायाधीशों की नियुक्ति हेतु राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग के गठन का कानून बनाया था। 2015 में उच्चतम न्यायालय के पांच न्यायाधीशों की पीठ ने उस कानून को रद्द करते हुए कॉलेजियम प्रणाली की कमियों को दूर किए जाने की बात कही थी। केन्द्र सरकार अगर वास्तव में कॉलेजियम सिस्टम में सुधार करने की पक्षधर है,तो उसे राष्ट्रीय न्यायिक सेवा आयोग के गठन सम्बंधित विधेयक संसद के पटल पर लाकर लोकसभा व राज्यसभा में पास कराकर आगे बढ़े।संसद को नियम व कानून बनाने का अधिकार है।

कॉलेजियम व्यवस्था में सुधार के लिए ठोस कदम नहीं उठाए जा सके। ऐसी स्थिति में 15 जुलाई, 2019 को राज्यसभा में भाजपा सदस्य अशोक बाजपेयी ने यह मुद्दा उठाया। उन्होंने कहा कि कॉलेजियम व्यवस्था में जातिवाद, परिवारवाद से लेकर पेशेवर निकटता जैसे पहलुओं का बोलबाला रहता है। उनका सुझाव था कि केंद्रीय न्यायिक सेवा आयोग का गठन कर उसके माध्यम से न्यायाधीशों का चयन किया जाए। उनकी मांग से राजद के मनोज कुमार झा, सपा के प्रो.रामगोपाल यादव आदि पक्ष-विपक्ष के अधिकांश सांसदों ने सहमति जताई थी। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश रंगनाथ पाण्डेय ने 2019 में अपनी सेवानिवृत्ति के ठीक पहले प्रधानमंत्री मोदी को पत्र लिखा था कि वर्तमान व्यवस्था में परिवारवाद, जातिवाद और संपर्कों के आधार पर न्यायाधीशों की नियुक्ति होने से न्यायिक व्यवस्था में बदहाली और अयोग्यता बढ़ रही है।

इसलिए कॉलेजियम व्यवस्था में बदलाव जरूरी है। इस प्रकार बहुत बड़ा वर्ग न्यायाधीशों के चयन में ज्यादा पारदर्शिता, ज्यादा व्यापकता का पक्षधर है। राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग का गठन कर उसके माध्यम से न्यायाधीशों का चयन करने का प्रस्ताव विगत में किया जाता रहा है। परंतु मेरा विचार है कि न्यायाधीशों का चयन अगर संघ लोक सेवा आयोग के माध्यम से या इसी पैटर्न की प्रतियोगी परीक्षा के माध्यम से किया जाए, तो यह ज्यादा सरल, सहज, पारदर्शी और स्वीकार्य होगा। संघ लोक सेवा आयोग का ढांचा पहले से बना हुआ है। उसे उच्च प्रशासनिक, तकनीकी और विशिष्ट पदों के चयन का लंबा अनुभव है। उसकी विश्वसनीयता भी है।

न्यायाधीशों के चयन में व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए कि उसमें न्यायिक जगत के अधिसंख्य लोगों को भाग लेने का खुला सुअवसर मिल सके। इसके लिए जरूरी है कि संघ लोक सेवा आयोग(यूपीएससी) लिखित परीक्षा आयोजित करे। इस संबंध में उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय में न्यूनतम दस वर्ष तक अधिवक्ता के रूप में कार्य कर चुके और न्यायिक सेवाओं में न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट के पद पर दस वर्ष तक कार्य कर चुके अभ्यर्थियों को पात्रता की श्रेणी में रखा जा सकता है। न्यूनतम आयु पैंतालीस वर्ष रखी जा सकती है। उच्चतम न्यायालय की संस्तुति पर भारत सरकार पात्रता के सुझाव में यथावश्यक परिवर्तन कर सकती है। उच्चतम न्यायालय में सीधे चयन या कॉलेजियम से मनोनयन की प्रक्रिया को समाप्त कर देना चाहिए, क्योंकि ऐसे चयन/मनोनयन में बहुत शिकायतें होती रहती हैं। प्रारंभिक चयन उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में ही होना चाहिए।


लिखित परीक्षा में उत्तीर्ण अभ्यर्थियों का साक्षात्कार ऐसी समिति करे, जिसमें अनुभवी और वरिष्ठ न्यायाधीशों का वर्चस्व रहे। इसके लिए साक्षात्कार समिति में उच्चतम न्यायालय के 6 सेवानिवृत्त न्यायाधीशों और संघ लोक सेवा आयोग,राष्ट्रीय पिछड़ावर्ग आयोग,राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग, राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग व राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के 1-1 सदस्य को मनोनीत किया जा सकता है। इस व्यवस्था से न्यायाधीशों के चयन में अनुभवी और वरिष्ठ न्यायाधीशों की भूमिका करीब-करीब कॉलेजियम जैसी बनी रहेगी। अगर ऐसा होता है, तो न्यायाधीशों के चयन में समान अवसर की भावना को बल मिलेगा, ज्यादा पारदर्शिता और लोकतांत्रिकता आएगी और ‘पिक ऐंड चूज’ के आरोपों से मुक्ति मिलेगी। यह लंबे समय तक याद रखा जाने वाला महत्वपूर्ण सुधार होगा।*

(लेखक सामाजिक न्याय चिन्तक व भारतीय ओबीसी महासभा के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं।)