जानें क्यों अमृत भारतीय तत्व ज्ञान की अमर अभिलाषा है…..?

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हृदयनारायण दीक्षित

अमृत भारतीय तत्व ज्ञान की अमर अभिलाषा है। तमाम किस्से कहानियों मे अमृत की चर्चा है। पुराणों मे भी ऐसी तमाम कथाए हैं। देवासुर संग्राम मे सागर मंथन से अमृतघट व विष निकला था। शिव विष पी गए। अमृत घट पर छीनाझपटी हो गई। एक मत के अनुसार गरुण व अन्य मत के अनुसार जयंत अमृतघट लेकर भाग निकले। भागमभाग मे अमृतघट चार स्थानो पर छलका। स्कंध पुराण के अनुसार,‘‘हरिद्वारे,प्रयागे च धारा गोदावरि तीरे-हरिद्वार,प्रयाग,धारानगरी और नासिक मे यह अमृत गिरा था।‘‘ अमृत अमर जीवन की इच्छा का प्रसाद है। लेकिन अमृत कोई द्रव्य या पदार्थ नही है। मृत का अर्थ है-प्राण व चेतना रहित शरीर। मृत्यु शाश्वत सत्य है। मृत्यु सब कुछ छीनती है। शरीर मृत हो जाता है। अमृत सदा रहता है। अमृत विश्व जिज्ञासा है। वैज्ञानिक अमर जीवन देने वाले किसी रसायन की खोज मे हैं। वैदिक ऋषि भी अमृत को लेकर जिज्ञासु रहे हैं। वैदिक स्तुति है ‘‘हमे असत् से सत् की ओर ले चलो-असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय-अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो। मृत्योरमामृतं गमय-मृत्यु से अमृत की ओर ले चलो। अमृत सनातन अभीप्सा है। उपनिषदें ऐसी स्तुतियों से भरी पूरी हैं।


छान्दोग्य उपनिषद में एक सुंदर मंत्र है। मंत्र क्या यह एक प्रीतिपूर्ण शाश्वत छंद है। नारद इस छन्द के नायक हैं। वे व्यथित चित्त हैं। वे उस समय के प्रतिष्ठित विद्वान सनत कुमार के पास पहुचे। अपनी व्यथा बताई। सनत कुमार ने पूछा ‘‘ज्ञान कितना है ? क्या पढ़े हो ?‘‘ नारद ने बताया ‘‘मै ऋग्वेद सहित सभी वेद पढ़ गया हूँ। मैने व्याकरण, इतिहास,नक्षत्र विद्या भूगर्भशास्त्र आदि सब कुछ पढ़ा है। लेकिन चित्त अशान्त है।‘‘ सनत कुमार ने कहा ‘‘यह सब नाम है। नाम से वाणी बड़ी है।‘‘ वाणी निश्चित ही श्रेष्ठ है। ऋषि ऐतरेय ने वाणी को ब्रह्म बताया है। वाणी से ज्ञान यात्रा चलती है । वाणी से विचार प्रकट होते है। हम जो सुनते हैं,वह वाणी में ही अभिव्यक्त होता है। भौतिक जगत के प्रपंचो की जानकारी भी वाणी से होती है। वाणी दुनिया के सभी रूप व भाव धारण करती है। ऋग्वेद मे वाणी के चार भेद बताए गए है। इनमे पहली है-परावाणी। यह शुद्ध ज्ञानरूप है। यह वाणी की अव्यक्त अवस्था है। इसके बाद पश्यन्ती है। विचार प्रकट करने की इच्छा के समय अंतःकरण मे तरंगे उठती हैं। यह मस्तिष्क तक सीमित रहती है। तीसरी मे प्राणशक्ति ऊर्घ्वगमन करती है। मुख मे स्वर यंत्र तक पहुँचती है। उच्चारण की तैयारी पूरी हो जाती है। यह बोलने के ठीक पहले की स्थिति है। इसे मध्यमा कहा गया है। चौथी का नाम बैखरी है। इसी तल पर उच्चारण होता है। वाणी आराध्य है।


सनत कुमार ने इसी तरह बल आदि को बड़ा बताया। आशा की प्रशंसा की। आशा अस्तित्व के प्रति विश्वास है और स्वयं के प्रति भी। निराशा स्वयं के प्रति अविश्वास है। निराशा अवसाद की जननी है। वैज्ञानिको ने ताजा शोध मे आस्तिकता को महत्वपूर्ण बताया है। आस्तिक निराश नहीं होते। वे परमात्मा,ईश्वर या ब्रह्म के प्रति श्रद्धालु होते है। श्रद्धा आत्मबल बढ़ाती है। दुनिया की सभी सभ्यताओ मे देवता है। देव आस्था भी निराशा से बचाती है। आशा मे खूबसूरत भविष्य की संभावना होती है। निराशी भविष्य के प्रति नकारात्मक होता है। ईश्वर या कोई भी देव आस्था चित्त को सकारात्मक बनाती है। भौतिकवादी या नास्तिक इसे अंधविश्वास कहते हैं। लेकिन इसे अंधविश्वास बताने वाले अस्तित्व की गतिविधि पर ध्यान नहीं देते। अस्तित्व मे नियमबद्धता है। अस्तित्व के नियम अकाट्य्ा है। अस्तित्व या छान्दोग्य उपनिषद का भूमा कभी गल्ती नहीं करता। इसलिए आशा का महत्व है। आशा से आत्मबल बढ़ता है। कर्म की प्रेरणा बढ़ती है। आशा मननीय है और धारण किए जाने योग्य है। सनत कुमार ने ठीक ही आशा को महत्व दिया है। उन्होने अन्त मे कहा,‘‘जो विराट है,वही अमृत है। जो अल्प या लघु है,वह मत्यर््ा है। जो विराट है, वही सुख है। अल्प मे सुख नही। ,‘‘यो वै भूमा तदमृतम। अथ यद् अल्पं तन्मत्यर््ाम्। यो वै भूमा तत्सुखम। नाल्पे सुखम् अस्ति। भूमैव सुखम्। भूमात्वेव विजिज्ञासित्वयः। यहा भूमा का अर्थ है विराट। ऋषि का कथन है की उसी को जानने की जिज्ञासा करनी चाहिए। संसार का ज्ञान उपयोगी है। लेकिन दुख और व्यथा नही दूर करता। विराट का ज्ञान अमृतत्व देता है। जो सम्पूर्ण है,विराट है। वह सर्वव्यापी सर्वशक्तिमान है। अथर्ववेद मे विराट को पैर रहित कहा गया है फिर भी वह सर्वत्र है। छान्दोग्य के ऋषि ने उसे भूमा कहा है। भूमा और विराट पर्याय हैं। एक ही है और आनंददाता हैं। ब्रह्मसूत्र मे भूमा को ब्रह्म कहा गया है।


भारत में मृत्यु को काल कहा जाता है। समय को भी काल कहते हैं। जीवन और मृत्यु काल मे हैं। काल या समय निरपेक्ष या स्वतंत्र सत्ता नहीं है। यह अनुभूति के अनुसार लम्बा या अल्प जान पड़ता है। दुख मे लम्बा प्रतीत होता है और सुख मे छोटा। मित्रों के साथ आनंदित बैठते हुए समय का पता नही चलता लेकिन अप्रिय स्थिति मे यह बहुत लम्बा जान पड़ता है। ऋषि अमृत अभीप्सु हैं। अमृत की अनुभूति मे समय शून्य हो जाता है। तब भूत,भविष्य और वर्तमान नही होते। यह तीनों काल के ही आयाम हैं। सुख और आनंद की अनुभूति मे समय नही होता। पतंजलि के योग सूत्रों मे ध्यान का एक विकल्प ईश्वर बताया है। ईश्वर के बारे मे कहा है कि वह समय के परे है। पतंजलि ने ठीक कहा है। संसार की सारी गतिविधियां समय के भीतर होती हैं। ईश्वर समय की सत्ता से बाहर है। हम सब कालअधीन हैं। नारद और सनत कुमार की वार्ता का अंतिम सूत्र भूमा है। भूमा सर्वव्यापी है। यहां समय निरर्थक है। समय के भीतर हम सब लघु और निरुपाय हैं। समयशून्यता मे विराट हैं। पी०डी० आंसपेस्की ने ‘टर्शियम आर्गनम‘ नाम की सुंदर किताब लिखी थी। पुस्तक मे प्रश्न है कि प्रभुराज्य की विशेष बात क्या है? उत्तर बड़ा प्यारा है कि प्रभुराज्य मे समय नही होगा। भूमा मे भी समय नही शेष रहता। भूमा उपनिषदो मे आया ब्रह्म है। भूमा या ब्रह्म की अनुभूति मे अहंकार नही बचता। अहंकार कोई बुरा आयाम नही है। अहंकार हमारी अस्मिता है। मै हूँ इसका बोध। यह बोध समय के भीतर है और समय के भीतर होना दुख है। भूमा या ब्रह्म समय के भीतर नही हैं। भूमा का बोध समयरहित है। उपनिषद के ऋषि ने कहा है कि ब्रह्म के जानकार ब्रम्ह हो जाते है। तब केवल ‘वह‘ बचता है। हम उसे भूमा,ब्रह्म या विराट या कोई भी नाम दे सकते हैं।