ज्ञान से प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष देखा जाना संभव…..

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ह्रदय नारायण दीक्षित

ज्ञान आनंद का उपकरण है। ज्ञान वस्तु या पदार्थ नही है। इसका कोई रूप आकार भी नही है। ज्ञान से ही प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष भी देखा जाना संभव है। ज्ञान देखा नही जा सकता, ज्ञानी दिखाई पड़ता है। ज्ञान प्राप्ति पर सबका अधिकार है लेकिन पूर्व मीमांसा दर्शन के व्याख्याता आचार्य जैमिनि मधुविद्या प्राप्ति का अधिकार देवताओ को नही देते। ब्रह्मसूत्र(1.3.31) में इसका उल्लेख है। छान्दोग्य उपनिषद् के तीसरे अध्याय में पहले खण्ड से 11वे खण्ड तक मधुविद्या की चर्चा है। यहां सूर्य को देवों का मधु कहा गया है। साधन और परिश्रम से प्राप्त होने वाली वस्तु देवों को सहज उपलब्ध होती है। इसलिए देवताओं के लिए मधुविद्या अनावश्यक है। जैमिनि एक और तर्क भी देते है, “देवता ज्योतिर्मय लोको में रहते है। इन प्रकाशमान लोकों में सब कुछ सहज प्राप्त है। श्रेष्ठ लोकों की प्राप्ति के लिए उन्हे कर्म करने की जरूरत नही।“ (1.3.32) गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित वेदान्त दर्शन (ब्रह्मसूत्र) के उक्त सूत्र के अनुवाद में कहते है, “जिस प्रकार वेद विहित अन्य विद्याओं में देवों का अधिकार नही है, उसी प्रकार ब्रह्म विद्या में भी नही है।“


मधुविद्या ब्रह्म विद्या है। जैमिनि के मत में देवों को ब्रह्म विद्या का अधिकार नही है। लेकिन बादरायण का मत भिन्न हैं। कहते हैं, “पूर्व पक्ष का मत शब्द प्रमाण से रहित होने के कारण मान्य नही हैं। यज्ञादि कर्म व ब्रह्म विद्या में देवताओ का भी अधिकार है। वेद में उनका अधिकार सूचित करने वाले अनेक वचन है।“ (वही) उन्होने तैत्तिरीय ब्राह्मण (2.1.2.8) से उद्धरण दिए है, “प्रजापति ने इच्छा की कि मै उत्पन्न होऊं, जन्म लूँ। उन्होने अग्निहोत्र रूप मिथुन पर दृष्टिपात किया। सूर्योदय होने पर उसका हवन किया। देवताओं ने यज्ञ का अनुष्ठान किया। इन कथनो से देवताओ का कर्म अधिकार सूचित होता है।“ यहां कर्मकाण्ड में देवों के अधिकार की बात है। आगे ब्रह्म विद्या के अधिकार वाले कथन भी हैं। वृहदारण्यक उपनिषद् (1.4.10) में कहते हैं – तद यो देवानां प्रत्यवुद्धत स एव तद्भवत् – जिन देवताओ ने ब्रह्म जाना, वह ब्रह्म हो गया। बड़ी बात है कि ब्रह्मसूत्र के रचनाकाल में देवों के अधिकार पर भी बहस थी। देव प्रत्यक्ष नही है लेकिन ब्रह्म विद्या के अधिकार शोध के विषय थे। ऋषि ने संभवतः श्रेष्ठ मनुष्यों को देव कहा है। मनुष्य शरीरी होते हैं। उनका रूप आकार होता है। यज्ञ करते हैं। वे परिश्रमपूर्वक ज्ञान प्राप्त करते हैं। देवता शरीर रहित हैं, वे मनुष्य की तरह कर्म नही कर सकते। इसलिए जैमिनी ने उन्हे कर्म व ब्रह्मविद्या से पृथक माना है।


पुरोहितो के एक वर्ग द्वारा शूद्र वर्ण को विद्याधिकारी नही माना जाता था। देवों के लिए ब्रह्म विद्या व कर्म के अधिकार पर विमर्श चल रहे थे। प्रश्न है कि शूद्र के लिए सूत्रकार का अभिमत क्या था? क्या सभी मनुष्यों को ब्रह्मविद्या प्राप्त करने का अधिकार था? वैदिककाल में वर्ण विभाजन नही था। उत्तरवैदिककाल में वर्णव्यवस्था का विकास हो रहा था। ब्रह्म सूत्र (1.3.34) में छान्दोग्य उपनिषद की एक कथा का संक्षिप्त उल्लेख है, “आकाश मार्ग से उड़ते हंसो ने राजा जानश्रुति के यश कर्म को गाड़ीवान रैक्व से कमतर बताया। वह शोक से व्याकुल रैक्व के पास ज्ञान लेने के लिए दौड़ते पहुंचा। धन संपदा भी ले गया था। रैक्व ने उसे शूद्र कहा।“ इसकी व्याख्या में कहते हैं कि “वह शोक से व्याकुल होकर दौड़ा आया था इसलिए उसे शूद्र कहा।“ व्याख्याकार ने पाद टिप्पणी में लिखा है “शुचम आद्रवति इति शूद्रः – जो शोक के पीछे दौड़ता है वह शूद्र है।“ शूद्र शब्द आहतकारी है। कभी वर्णव्यवस्था का एक वर्ग रहा होगा। ब्रह्म सूत्र के रचनाकाल में भी यह वर्ण या वर्ग चर्चा में था लेकिन इसकी सर्वमान्य परिभाषा नही थी। शोकग्रस्त सब होते हैं। शोक वर्ण देख कर नही आता। शोक मनोदशा है। विपरीत परिस्थिति में संयम और धैर्य काम आते है। जो संयम और धैर्य खो देते है वे शोकग्रस्त होते है।


गीता अध्याय (2.19) में इसी तरह पंडित की परिभाषा है ,“जो शोक के योग्य नहीं है। अर्जुन तुम उनके लिए शोक करते हो। पण्डित जीवित या मृत के लिए शोक नहीं करते – गतासून गतासूश्रच नानुशोचन्ति पण्डितः।“ वर्णव्यवस्था में पंडित ब्राह्मण वर्ण का पर्यायवाची है लेकिन गीता में शोक न करने वाला पंडित है और जो अनावश्यक शोक करते है वे ब्रह्मसूत्र के जानश्रुति प्रकरण के अनुसार शूद्र हैं। गीता में डर और कायरता भी त्याज्य है। गीता (अध्याय 2.3) में कहते है “अर्जुन ह्रदय की क्षुद्रता दुर्बलता त्याग दो। कायर न बनो – क्लैव्यं मा स्म गमः पार्थ। ज्ञान मनुष्य को दुखरहित करता है। इसलिए प्राचीन वांग्मय में ज्ञान की प्रतिष्ठा है। गीता, उपनिषद, व ब्रह्मसूत्र को ज्ञान यात्रा का प्रस्थानत्रयी कहा गया है। गीता परिपूर्ण व्यवस्थित दर्शन है। इसमें कर्म की मीमांसा है और ज्ञान की भी। इसमे वैदिक दर्शन व उपनिषदों का ब्रह्म है। ब्रह्म सूत्र का ब्रह्म भी है। गीता (4.24) में सर्वत्र ब्रह्म की प्रतिष्ठा है, “ब्रह्मार्पण ब्रह्म हर्विब्रह्माग्रैा ब्रह्माणांहुतम – ब्रह्मयज्ञ कर्ता है, ब्रह्म हवि है। ब्रह्म ही आहुति देता है।“ यहां ब्रह्म ही यत्र तत्र सर्वत्र उपस्थित है। उपनिषदों में ब्रह्म की यही उपस्थिति है। लेकिन ब्रह्मसूचक अन्य संज्ञाए है । ब्रह्म सूत्र में सब को ब्रह्म सिद्ध किया गया है।


जीवन सरल रेखा में नही चलता। एक व्यक्ति का भी जीवन निरपेक्ष नही है। व्यक्ति अस्तित्व का हिस्सा है। व्यक्ति के सुख दुख निजी दिखाई पड़ते हैं। अनेक मामलों में वे व्यक्ति के कर्म फल जान पड़ते है लेकिन वास्तव में वे उसी व्यक्ति के कर्म का परिणाम नही होते। प्रकृति की तमाम शक्तियां जीवन पर प्रभाव डालती रहती हैं। मनुष्य सुखद परिणामों का श्रेय लेता है। और दुखद परिणामों के लिए स्वयं को दोषी ठहराता है। लेकिन परिणाम प्रकृति की शक्तियों के अधीन होते है। गीता के 13वंे अध्याय में परिणाम संबंधी एक सुंदर श्लोक है। कहा गया है कि, “अर्जुन ने कृष्ण से कार्य सिद्धि के कारण पूछे। श्री कृष्ण ने बताया कि कार्य सिद्धि के लिए 5 कारण उत्तरदायी है। वे अधिष्ठान, कर्ता, कर्म, प्रयास और दैव हैं। गीता दर्शन के अनुसार ये 5 कारण सिद्ध होने से सुंदर परिणाम आते है। इस श्लोक में 5वा तत्व दैव है। दैव का अर्थ कुछ विद्वानों ने ईश्वर किया है। लेकिन यह सही नही है। ईश्वर सर्वोच्च है। इस सूची में वह 5 में से 1 है। इसलिए दैव का अर्थ ईश्वर करना उचित नही है। प्रकृति में हर समय कुछ न कुछ घटित होता रहता है। हम किसी परिश्रमी छात्र का उदाहरण दे सकते हैं। उसने ठीक पढ़ाई की। लेकिन परीक्षा वाले दिन रास्ते में आंधी आ गई। उसका पर्चां खराब हो गया। सब बाते ठीक थी। प्राकृतिक आपदा ने उसका पर्चां खराब कर दिया। यही है दैव। जीवन में सफलता और असफलता साथ साथ चलते है। पूरी बात को जानने वाले दुख में दुखी नही होते। सुख में सुखी नही होते। इसके लिए अस्तित्व का ज्ञान चाहिए और उससे भी ज्यादा स्वयं अपना ज्ञान। स्वयं का बोध महत्वपूर्ण है। गीता में इसे अध्यात्म कहा गया है। उपनिषद के ऋषियों ने भी यही बातें कही हैं। ज्ञान पवित्र है, उपास्य है, धारण किये जाने योग्य है।

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