नेतृत्व का संकट-प्रियंका गांधी

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—– प्रियंका गांधी की फेसबुक पोस्ट —–

“गंगा नदी के पानी में शव उतरा रहे थे। श्मशान घाटों में इतने शव थे कि उन्हें जलाने के लिए लकड़ियाँ कम पड़ गई थीं। पलक झपकते ही मेरे पूरे परिवार को मेरी नजरों के सामने महामारी ने लील लिया ”।

महान कवि श्री सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने अपने उपन्यास “कुल्ली भाट” में इन पक्तियों के जरिए आज से लगभग 100 साल पहले आई स्पेनिश फ्लू महामारी की भयावहता को बयां किया था। एक भयानक भविष्यदर्शी की तरह ये लाइनें आज के समय में और भी चुभती हैं। क्योंकि आज किसी संकट में सरकार द्वारा अपनी जिम्मेदारी से मुँह मोड़ने के कारण पैदा हुई सामूहिक पीड़ा बीते जमाने की बात होनी चाहिए।

आखिर क्या वजह है कि इस महामारी से गुजरते समय हमें वही अनुभव करना पड़ा तो पिछली सदी में स्पेनिश फ्लू महामारी के दौरान देशवासियों ने किया था? सरकार द्वारा भगवान भरोसे छोड़े दिए गए भारतवासी आखिर क्यों मदद की गुहार लगाते हुए अपनी जान बचाने के लिए दौड़ रहे थे? गंगा नदी में दिनों-दिन तक उतराते शवों का जो मंजर देख पूरा विश्व व्याकुल था – वह क्यों हुआ?

एक मजबूत नेता संकट के समय सच का सामना करता है और जिम्मेदारी अपने हाथ में लेकर ऐक्शन लेता है। दुर्भाग्य से, प्रधानमंत्री जी ने इसमें से कुछ भी नहीं किया। महामारी की शुरुआत से ही उनकी सरकार का सारा जोर सच्चाई छिपाने और जिम्मेदारी से भागने पर रहा। नतीजतन, जब कोरोना की दूसरी लहर ने अभूतपूर्व ढंग से कहर बरपाना शुरू किया; मोदी सरकार निष्क्रियता की अवस्था में चली गई। इस निष्क्रियता ने वायरस को भयानक क्रूरता से बढ़ने का मौका दिया जिससे देश को अकथनीय पीड़ा सहनी पड़ी।

• यदि प्रधानमंत्रीजी देश-दुनिया के विशेषज्ञों द्वारा दी गई अनगिनत सलाहों को नजरअंदाज नहीं करते। यदि प्रधानमंत्रीजी खुद के एम्पावर्ड ग्रुप या स्वास्थ्य मामलों की संसदीय समिति की ही सलाह पर ध्यान दे देते तो देश अस्पताल में बेडों, ऑक्सीजन एवं दवाइयों के भीषण संकट के दौर से नहीं गुजरता। अगर वे एक जिम्मेदार नेता होते और देशवासियों द्वारा सौंपी गई जिम्मेदारी की जरा भी परवाह करते तो वे कोरोना की पहली एवं दूसरी लहर के बीच अस्पताल के बेडों की संख्या कम नहीं करते। तब उन्होंने ऑक्सीजन ट्रांसपोर्ट करने के लिए नए टैंकर जरूर खरीदे होते और औद्योगिक ऑक्सीजन के मेडिकल इस्तेमाल के लिए तैयारी जरूर की होती। तब उन्होंने हिन्दुस्तानियों के लिए व्यवस्था करने से पहले लाखों जीवन रक्षक दवाइयों की डोज विदेशों को नहीं भेजी होती। तब अनगिनत परिवारों को अपने प्रियजनों के लिए मदद मांगते हुए दर-बदर भटकना नहीं पड़ता। इतने लोगों की अनमोल जानें नहीं जाती यदि प्रधानमंत्री आने वाले खतरे के लिए पहले से योजना बनाते और निपटने की तैयारी करते।

• यदि प्रधानमंत्रीजी ने देशवासियों की जिंदगी की कीमत अपने प्रचार और अपनी छवि से ज्यादा आंकी होती तो आज देश में वैक्सीन का भीषण संकट नहीं पैदा हुआ होता। यदि प्रधानमंत्री अपनी कुंभकर्णी नींद से जागकर वैक्सीनों का आर्डर, जनवरी 2021 तक इंतजार करने के बजाय, 2020 की गर्मियों में ही दे देते तो हम अनगिनत लोगों की जान बचा सकते थे। अपना चेहरा चमकाने के प्रयास में विदेशों में वैक्सीन भेजने से पहले मोदीजी ने यदि एक मिनट के लिए भी भारतवासियों के लिए वैक्सीन व्यवस्था के बारे में सोचा होता तो आज हमें लम्बी-लम्बी लाइनों में खड़े होकर, वैक्सिनेशन की गति धीमी रखने के लिए बनाई गई पेंचीदा रजिस्ट्रेशन प्रणाली का सामना नहीं करना पड़ता। और इस तथ्य के मद्देनज़र कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा वैक्सीन उत्पादक हैं आज हम देश की बड़ी आबादी को वैक्सीन दे चुके होते।

• यदि प्रधानमंत्री महामारी का सामने से मुकाबला करने का साहस जुटा पाते तो वे देशवासियों की जान बचाने की इस लड़ाई में अपने विरोधियों को भी बेझिझक साथ में लेते। वे निडर होकर विशेषज्ञों, विपक्षी दलों एवं आलोचकों से बातचीत करते। तब प्रधानमंत्रीजी मीडिया का इस्तेमाल अपनी मीडियाबाजी के बजाय, जीवनरक्षक सूचनाओं के प्रसार के साधन के रूप में करते। और उनके सरकारी सूचना तंत्र में मनगढ़ंत बयानों और आँकड़ों की बाजीगरी के बजाय पारदर्शी तरीके से सही तस्वीर देखने को मिलती। ये कोरोना से लड़ने का एक ज्यादा बेहतर और कुशल तरीका साबित होता।

• यदि प्रधानमंत्रीजी राजनीति के बजाय देशवासियों की जिंदगी को ज्यादा तरजीह देते तो वे कोरोना के खिलाफ इस असाधारण लड़ाई में राज्यों का पूरा सहयोग करते। टीवी पर आकर अपनी असफलता का दोष राज्य सरकारों पर मढ़ने जैसी हरकतों के बजाय वे राज्यों को संसाधन उपलब्ध कराते, उनके बकायों का भुगतान करते और इस लड़ाई में उनके साथ मजबूती से खड़े होते।

• यदि प्रधानमंत्री एक कुशल प्रशासक की तरह सामने आते, जैसा कि उनका प्रचारतंत्र उन्हें दिखाने को आमादा रहता है, तो वे पहले की अपेक्षा कहीं बेहतर ढंग से जिम्मेदारी अपने हाथ में लेते। यदि वे एक कुशल प्रशासक होते तो वे आगे बढ़कर हर तरह के शासकीय, औद्योगिक, वित्तीय एवं राजनीतिक संसाधनों का सही इस्तेमाल कर इस सदी के सबसे बड़े संकट से देश को उबारने का प्रयास करते।

• यदि प्रधानमंत्रीजी एक सक्षम और दक्ष प्रशासक होते तो कोरोना की दूसरी लहर के मद्देनज़र पहले से अपनी रणनीति बनाते और तैयारी रखते। अगर वे एक सक्षम प्रशासक होते तो विज्ञान और आधुनिकता को परे रखकर कोरोना के अंधकार से निपटने के लिए थाली पीटने – दिया जलाने जैसे तरीके न बताते।

प्रधानमंत्रीजी के समर्थकों ने जैसी उनकी एक छवि देश भर में प्रचारित कर रखी है काश वह वैसे होते और एक राजनेता की दिलेरी रखते या उनमें एक सच्चे नेता में पाई जाने वाली करुणा और साहस होता, तब वे संकट के समय असहनीय पीड़ा का सामना कर रहे देशवासियों को सांत्वना देने, हौसला बढ़ाने के लिए सामने आते। जब देश को उनकी सबसे ज्यादा जरूरत थी तब वे बहाने बनाने की बजाय देशवासियों के साथ एक चट्टान की तरह मजबूती से खड़े मिलते और लोगों की जान बचाने के लिए धरती आसमान एक कर देते।

प्रधानमंत्री ने ऐसा कुछ भी नहीं किया….

  • असल में वे दुबककर तूफ़ान के थम जाने का इन्तजार करते रहे।
  • भारत के प्रधानमंत्री ने कायरों सा बर्ताव किया।
  • उन्होंने 139 करोड़ लोगों को मंझधार में छोड़कर देश का भरोसा तोड़ दिया।
  • पूरा विश्व प्रधानमंत्री की प्रशासकीय अयोग्यता का गवाह बन गया है।
  • गुमान में जीने की उनकी आदत का पर्दाफ़ाश हो चुका है।
  • हिन्दुस्तानियों की जिंदगी से ज्यादा उनके लिए राजनीति मायने रखती है।
  • सच्चाई से ज्यादा उनका सरोकार प्रोपागैंडा है।
  • अब वक्त आ गया है कि हम पूछें – ज़िम्मेदार कौन…..?