कोल्हू के बैल की भांति जीता है आदमी..!

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साधारण आदमी कोल्हू के बैल की भांति जीता है….

उमेश कुमार शुक्ला

मैंने सुना है, एक दार्शनिक, एक तार्किक, एक महापंडित सुबह-सुबह तेल खरीदने तेली की दुकान पर गया। विचारक था, दार्शनिक था, तार्किक था, जब तक तेली ने तेल तौला, उसके मन में यह सवाल उठा–उस तेली के पीछे ही कोल्हू का बैल चल रहा है, तेल पेरा जा रहा है–न तो उसे कोई चलाने वाला है, न कोई उसे हांक रहा है, फिर यह बैल रुक क्यों नहीं जाता? फिर यह क्यों कोल्हू पर तेल पेरे जा रहा है? जिज्ञासा उठी, उसने तेली से पूछा कि भाई मेरे, यह राज मुझे समझाओ। न कोई हांकता, न कोई कोल्हू के बैल के पीछे पड़ा है, यह दिन-रात चलता ही रहता, चलता ही रहता, रुकता भी नहीं!

बैल सीधा-सादा बैल है। यह कोई दार्शनिक नहीं है, यह इतना गणित नहीं बिठा सकता कि खड़े होकर गला हिलाने लगे। यह तो सिर्फ चालबाज आदमी ही कर सकता है! साधारण आदमी तो कोल्हू का बैल है, चलता जाता है।

उस तेली ने कहा: जरा गौर से देखो, उपाय किया गया है, उसकी आंख पर पट्टियां बंधी हैं।

जैसे तांगे में चलने वाले घोड़े की आंख पर पट्टियां बांध देते हैं, ताकि उसे सिर्फ सामने दिखाई पड़े। इधर-उधर दिखाई पड़े तो झंझट हो, रास्ते के किनारे घास उगा है तो वह घास की तरफ जाने लगे, इस रास्ते की तरफ नदी की धार बह रही है तो वह पानी पीने जाने लगे। उसे कहीं कुछ नहीं दिखाई पड़ता, उसे सिर्फ सामने रास्ता दिखाई पड़ता है।

कोल्हू के बैल की आंख पर पट्टियां बांधी हुई हैं, उस तेली ने कहा। विचारक तो विचारक, उसने कहा: वह तो मैंने देखा कि उसकी वजह से उसे पता नहीं चलता कि गोल-गोल घूम रहा है।

ऐसे ही आदमी की आंख पर पट्टियां हैं–संस्कारों की, सभ्यताओं की, संप्रदायों की, सिद्धांतों की, शास्त्रों की। बचपन से ही हम पट्टियां बांधनी शुरू कर देते हैं। हमारी शिक्षा और कुछ भी नहीं है, आंखों पर पट्टियां बांधने का उपाय है–महत्वाकांक्षा की पट्टियां, कुछ होकर मरना। जैसे कोई कभी कुछ होकर यहां मरा है! प्रधानमंत्री बनकर मरना। जैसे कि प्रधानमंत्री बनकर मरोगे तो मौत कुछ तुम्हारे साथ भिन्न व्यवहार करेगी, कि फिर तुम्हारी मिट्टी मिट्टी में नहीं गिरेगी और सोना हो जाएगी! कुछ धन छोड़कर मरना। जैसे धन छोड़कर मरने वाला किसी स्वर्ग में प्रवेश कर जाएगा! कुछ करके, नाम कमाकर मरना। तुम्हीं मर गए, तुम्हारा नाम कितनी देर टिकेगा! कितने लोग आए और कितने लोग गए, क्या नाम टिकता है, किसका नाम टिकता है! सब पुंछ जाते हैं। समय की रेत पर पड़े हुए चरण-चिह्न कितनी देर तक बने रहेंगे? हवा के झोंके आएंगे और पुंछ जाएंगे। और हवा के झोंके न भी आए तो दूसरे लोग भी इसी रेत पर चलेंगे, उनके पैरों के चिह्न कहां बनेंगे, अगर तुम्हारे चिह्न बने रहे!

तो बड़े से बड़े नामवर लोग होते हैं और मिटते चले जाते हैं, और उनके नाम भूलते चले जाते हैं। सब धूल में समा जाते हैं। इतिहास के पन्नों में कहीं-कहीं पाद-टिप्पणियों में छोटी-मोटी जगह नाम छूट जाएगा। मगर उसका भी क्या मूल्य है! इतिहास की किताबें भी खो जाती हैं, जल जाती हैं, जला दी जाती हैं। आदमी कितनी सदियों से जी रहा है, इतिहास तो हमारे पास केवल दो हजार साल का है। और जैसे-जैसे इतिहास लंबा होता जाएगा, पुराना इतिहास छोटा होता जाएगा, क्योंकि नए को याद करें कि पुराने को! इसका क्या मूल्य है? अनंत काल में इसका क्या मूल्य है? मगर आंख पर पट्टियां बांध देते हैं! प्रथम होकर बताना, छोटे बच्चे को कहते हैं। जहर डालते है उसमें! राजनीति भरते हैं उसके प्राणों में।

उस विचारक ने कहा: पट्टियां तो मुझे दिखाई पड़ती हैं, ठीक वैसे ही जैसे हर आदमी की आंख पर पट्टियां बंधी हैं। मगर फिर भी मैं यह पूछता हूं कि पट्टियां तो बंधी हैं, कोई हांक तो नहीं रहा है, यह चलता क्यों है? रुक क्यों नहीं जाता? और तेरी तो पीठ है इसकी तरफ। उसने कहा: जरा गौर से देखो, मैंने इसके गले में एक घंटी बांध दी है। जब तक इसकी घंटी बजती रहती है, मैं समझता हूं कि बैल चल रहा है। जैसे ही इसकी घंटी बजना रुकती है, उछलकर मैं जाकर इसको हांक देता हूं। इसको कभी पता नहीं चल पाता कि हांकने वाला पीछे है कि नहीं। इधर घंटी रुकी और मैंने हांका। यह कोड़ा देखते हो बगल में रखा है, यहीं बैठे-बैठे फटकार देता हूं तो भी यह चल पड़ता है।

विचारक तो विचारक, उसने कहा: यह भी मैं समझा। घंटी भी सुनाई पड़ रही है मुझे। यह भी तूने खूब तरकीब की! लेकिन मैं यह पूछता हूं कि यह बैल खड़ा होकर और गला हिलाकर घंटी तो बजा सकता है! तेली ने कहा: धीरे-धीरे! आहिस्ता बोलो, कहीं बैल सुन ले तो मेरी मुसीबत हो जाए। तुम जल्दी अपना तेल लो और रास्ते पर लगो। बैल न सुन ले कहीं तुम्हारी बात। यह बैल इतना तार्किक नहीं है। बैल सीधा-सादा बैल है। यह कोई दार्शनिक नहीं है, यह इतना गणित नहीं बिठा सकता कि खड़े होकर गला हिलाने लगे। यह तो सिर्फ चालबाज आदमी ही कर सकता है!

साधारण आदमी तो कोल्हू का बैल है, चलता जाता है। उसकी आंखों पर पट्टियां बंधी हैं! उसे ठीक-ठीक दिखाई नहीं पड़ता कि गोल घेरे में चल रहा है, नहीं तो रुक जाए। तुम वही करते हो सुबह रोज, वही दोपहर, वही सांझ, वही रात, जो तुम सदा करते रहे हो। तुम्हें कभी ख्याल में आया कि तुम एक वर्तुल में घूम रहे हो? वही क्रोध, वही काम, वही लोभ, वही मोह, वही अहंकार। तुम्हारे सुख और तुम्हारे दुख, सब पुराने हैं। वही तो तुम कितनी बार कर चुके हो, और उन्हीं की तुम फिर मांग करते हो, फिर-फिर! तुम गोल वर्तुल में घूम रहे हो और सोचते हो तुम्हारी जिंदगी यात्रा है?

जरा एक वर्ष का अपना हिसाब तो लगाओ, जरा डायरी तो लिखनी शुरू करो कि मैं रोज-रोज क्या करता हूं। और चार-छह महीने में तुम खुद ही चकित हो जाओगे। यह जिंदगी तो कोल्हू के बैल की जिंदगी है! यह तो मैं रोज ही रोज करता हूं: वही झगड़ा, वही फसाद, फिर वही दोस्ती, फिर वही दुश्मनी। तुम्हारे संबंध, तुम्हारा जीवन, तुम्हारे रंग-ढंग, सब वर्तुलाकार हैं। इसलिए तुम्हारी जिंदगी में कोई निष्कर्ष आने वाला नहीं है। तुम कहीं पहुंचोगे नहीं। तुम चलते-चलते मर जाओगे, और फिर किसी गर्भ में पैदा होकर चलने लगोगे।

इसलिए हमने इस वर्तुलाकार चक्कर का ही नाम संसार दिया है। संसार शब्द का अर्थ होता है: चाक, जो चाक की तरह घूमता रहे! तुम्हारी जिंदगी एक चाक की तरह घूम रही है। इसलिए ज्ञानी पूछते हैं: इस आवागमन से छुटकारा कैसे हो? इस चाक से हमारा छुटकारा कैसे हो? यह जो संसार का चक्र है, जिसमें हम उलझ गए हैं, इसको हम कैसे छोड़ें?

कठिनाई तो तब शुरू होती है, जब तुम्हारी जिंदगी में थोड़ी-सी झलक मिलती है राह की। आंख तुम्हारी थोड़ी-सी खुलती है, तुम्हारी पट्टी थोड़ी-सी सरकती है आंख पर बंधी, तुममें थोड़ा होश आता है। क्योंकि तुम्हारे गले में भी घंटियां बंधी हैं और घंटियां बजती रहती हैं।