डॉ0 सीमा रानी

{ सदस्य, अधीनस्थ सेवा चयन आयोग,लखनऊ }

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             मातृभूमि के लिए अपने जीवन का सर्वस्व कैसे दिया जा सकता है यह पंडित दीनदयाल उपाध्याय के जीवन दर्शन से सीखा जा सकता है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी सिर्फ एक नाम ही नहीं, एक व्यक्ति ही नहीं अपितु एक विचार हैं जिसे हमें समझना होगा।

                दीनदयाल उपाध्याय एक भारतीय विचारक,अर्थशास्त्री,समाजशास्त्री,इतिहासकार और पत्रकार थे। उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के निर्माण में महत्वपूर्ण भागीदारी निभाई और भारतीय जनसंघ (वर्तमान भारतीय जनता पार्टी) के अध्यक्ष भी बने। इन्होंने ब्रिटिश शासन के दौरान भारत द्वारा पश्चिमी धर्मनिरपेक्षता और पश्चिमी लोकतंत्र का आँख बंद कर समर्थन का विरोध किया। यद्यपि उन्होंने लोकतंत्र की अवधारणा को सरलता से स्वीकार कर लिया, लेकिन पश्चिमी कुलीनतंत्र, शोषण और पूंजीवादी मानने से साफ इनकार कर दिया था। इन्होंने अपना जीवन में जनता को आगे रखा व लोकतंत्र को शक्तिशाली बनाने का प्रयास किया।

              दीनदयाल उपाध्याय का जन्म 25 सितम्बर, 1916 को राजस्थान के धन्किया में एक मध्यम वर्गीय प्रतिष्ठित हिंदू परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम श्री भगवती प्रसाद उपाध्याय तथा मां का नाम रामप्यारी था। उनके पिता जलेसर में सहायक स्टेशन मास्टर के रूप में कार्यरत थे और माँ बहुत ही धार्मिक विचारधारा वाली महिला थी। इनके छोटे भाई का नाम शिवदयाल उपाध्याय था। दुर्भाग्यवश जब उनकी उम्र मात्र ढाई वर्ष की थी तो उनके पिता का असामयिक निधन हो गया। इसके बाद उनका परिवार उनके नाना के साथ रहने लगा। यहां उनका परिवार दुखों से उबरने का प्रयास ही कर रहा था कि तपेदिक रोग से उनकी माँ की भी मृत्यु हो गई।  उनके मामा ने उनका पालन-पोषण किया।

छोटी अवस्था में ही अपना ध्यान रखने के साथ-साथ उन्होंने अपने छोटे भाई के अभिभावक का दायित्व भी निभाया परन्तु दुर्भाग्य से भाई को चेचक की बीमारी हो गई और 18 नवम्बर, 1934 को उसका निधन हो गया। दीनदयाल ने कम उम्र में ही अनेक उतार-चढ़ाव देखा, परंतु अपने दृढ़ निश्चय से जिन्दगी में आगे बढ़े। उन्होंने सीकर से हाई स्कूल की परीक्षा पास की। वे जन्म से ही बुद्धिमान और प्रतिभावान थे। दीनदयाल को स्कूल और कॉलेज में कई पदक और प्रतिष्ठित पुरस्कार प्राप्त हुए। उन्होंने अपनी स्कूल की शिक्षा जीडी बिड़ला कॉलेज, पिलानी और स्नातक की शिक्षा कानपुर विश्वविद्यालय के सनातन धर्म कॉलेज से पूरी की। सिविल सेवा की परीक्षा पास करने के बावजूद उन्होंने जनता की सेवा की खातिर पद का परित्याग कर दिया।  

              दीनदयाल अपने जीवन के प्रारम्भिक वर्षों से ही समाज सेवा के प्रति अत्यधिक समर्पित थे। वर्ष 1937 में अपने कॉलेज के दिनों में वे कानपुर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ जुड़े, वहां उन्होंने आर.एस.एस. के संस्थापक डॉ0 हेडगेवार से बातचीत की और संगठन के प्रति पूरी तरह से अपने आपको  समर्पित कर दिया। वर्ष 1942 में कॉलेज की शिक्षा पूर्ण करने के बाद दीनदयाल संघ की शिक्षा का प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए आर.एस.एस. के 40 दिवसीय शिविर में भाग लेने नागपुर चले गए।

              भारतीय जनसंघ की स्थापना डॉ0 श्यामा प्रसाद मुखर्जी द्वारा वर्ष 1951 में किया गया एवं दीनदयाल उपाध्याय को प्रथम महासचिव नियुक्त किया गया। वे लगातार दिसम्बर, 1967 तक जनसंघ के महासचिव बने रहे। उनकी कार्यक्षमता, खुफिया गतिविधियों और परिपूर्णता के गुणों से प्रभावित होकर डॉ0 श्यामा प्रसाद मुखर्जी उनके लिए गर्व से सम्मानपूर्वक कहते थे कि ‘यदि मेरे पास दो दीनदयाल हों, तो मैं भारत का राजनीतिक चेहरा बदल सकता हूं।’ परंतु अचानक वर्ष 1953 में डॉ0 श्यामा प्रसाद मुखर्जी के असमय निधन से पूरे संगठन की जिम्मेदारी दीनदयाल उपाध्याय के युवा कंधों पर आ गयी। उन्होंने लगभग 15 वर्षों तक महासचिव के रूप में जनसंघ की सेवा की। जनसंघ के 14वें वार्षिक अधिवेशन में दिसंबर 1967 में दीनदयाल उपाध्याय को जनसंघ का अध्यक्ष निर्वाचित किया गया।

              उन्होंने वर्ष 1940 में लखनऊ से प्रकाशित होने वाली मासिक पत्रिका राष्ट्रधर्म में कार्य किया। अपने आर.एस.एस. के कार्यकाल के दौरान उन्होंने एक साप्ताहिक समाचार पत्र पांचजन्य और एक दैनिक समाचार पत्र स्वदेश शुरू किया था। उन्होंने नाटक चन्द्रगुप्त मौर्य और हिन्दी में शंकराचार्य की जीवनी लिखी। उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ0 के.बी. हेडगेवार की जीवनी का मराठी से हिन्दी में अनुवाद किया। उनकी अन्य प्रसिद्ध साहित्यिक कृतियों में सम्राट चन्द्रगुप्त, जगतगुरू शंकराचार्य, अखंड भारत क्यों है, राष्ट्र की समस्याएं, राष्ट्र चिंतन और राष्ट्र जीवन की दिशा आदि हैं।

              19 दिसम्बर, 1967 को दीनदयाल उपाध्याय को भारतीय जनसंघ का अध्यक्ष चुना गया पर नियति को कुछ और ही मंजूर था। 11 फरवरी, 1968 की सुबह मुगल सराय रेलवे स्टेशन पर दीनदयाल का निष्प्राण शरीर पाया गया। इसे सुनकर पूरे देश दुख में डूब गया। इस महान नेता को श्रद्धांजलि देने के लिए राजेन्द्र प्रसाद मार्ग पर भीड़ उमड़ पड़ी। उन्हें 12 फरवरी, 1968 को भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ0 जाकिर हुसैन, प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी और मोरारजी देसाई द्वारा श्रद्धांजलि अर्पित की गई। आज तक उनकी मौत एक अनसुलझी पहेली बनी हुई है।

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