प्रकृति नियम बंधन में हैं

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हृदयनारायण दीक्षित

प्रकृति नियम बंधन में हैं। ऋतुएँ इसी नियम में बार-बार आती-जाती हैं। ऋग्वेद में प्रकृति के संविधान को ‘ऋत‘ कहा गया है। वैदिक साहित्य में इन्द्र, वरुण, अग्नि, जल और सूर्य आदि शक्तिशाली देवता हैं। वे भी ऋत विधान का अनुशासन मानते हैं। वरुण नियम मानते हैं, मनवाते भी हैं। अग्नि विधि नियमों को धारण करते ‘ऋतस्यक्षत्ता‘ है। नदियां ऋतावरी नियमानुसार बहती हैं। दर्शनशास्त्री डॉ॰ राधाकृष्णन् की टिप्पणी है कि ईश्वर भी इन नियमों में हस्तक्षेप नहीं करता। भारत की प्रज्ञा ने देवताओं को भी विधान से नीचे रखा है। लेकिन इसी भारत में विधि बनाने वाली पवित्र संसद में बहुधा नियमविहीनता रहती है। संसदीय व्यवस्था अपनी महिमा खो चुकी है। जन-गण-मन निराश है। दलतंत्र में कोई पश्चाताप या आत्मग्लानि नहीं। संसदीय व्यवधानों को लेकर लोकसभा अध्यक्ष, ओम विरला ने चिंता व्यक्त की है। लोकसभा अध्यक्ष ने सदनों में व्यवधान रोकने और सदन की कार्यवाही सुचारू रूप से चलाने के लिए एक समिति बनाई थी। समिति में मुझे इस समिति का संयोजक बनाया था। इस समिति में कई सदस्य भी थे। वह सभी किसी-न-किसी राज्य की विधानसभा के अध्यक्ष थे। समिति की बैठक व ऑनलाइन कार्यक्रमों के माध्यम से महत्वपूर्ण सुझाव आये थे। अभी इसी सप्ताह मैंने उस समिति की ऑनलाइन बैठक की। इस समिति से जुड़े सभी पीठासीन अधिकारियों ने सदनों की कार्यवाही सुचारू रूप से चलाने के लिए महत्वपूर्ण सुझाव दिए थे। इनमें से सबसे प्रमुख सुझाव सदनों की बैठकों की संख्या बढ़ाने के लिए था। प्रत्येक उपवेशन के अंत में एक और विषय जोड़ने का सुझाव था। सामान्यतः सदस्य दिनभर की बैठकों में व्यस्त रहते हैं। सुझाव है कि उपवेशन के अंत में विधायकों द्वारा उठाए जाने वाले महत्वपूर्ण समस्याओं पर ध्यानाकर्षण चर्चा होनी चाहिए। विधायकों के प्रशिक्षण पर भी समिति का सुझाव आया। पहली बार चुनकर आए विधायक कार्यवाही के नियमों और सदन की परंपराओं से परिचित नहीं होते। वह कानून बनाने की बारीकियों से भी अपरिचित रहते हैं। समिति ने विधायकों के प्रशिक्षण की आवश्यकता पर जोर दिया है। राष्ट्र व्यक्षित है। दुनिया के सबसे बड़े जनतंत्र के प्रतिनिधि सदनों में व्यवधान हैं।


भारत के लोकजीवन प्राचीनकाल से ही लोकतंत्री था। लोकसभा के पूर्व महासचिव सुभाष कश्यप ने लिखा है- ”यहाँ वैदिक युग से ही गंणतांत्रिक स्वरूप, प्रतिनिधिक विमर्श और स्थानीय स्वशासन की संस्थाएँ थीं। ऋग्वेद, अथर्ववेद में सभा समिति के उल्लेख हैं। ऐतरेय ब्राह्मण, पाणिनी की अष्टाध्यायी, कौटिल्य के अर्थशास्त्र व महाभारत में उत्तर वैदिक काल के गणतंत्रों का उल्लेख है।“ डॉ॰ अम्बेडकर ने भी संविधान सभा के अंतिम भाषण (25.11.1949) में ऐसा ही उल्लेख किया और कहा- ”लेकिन भारत से यह लोकतांत्रिक व्यवस्था मिट गई। लोकतंत्र को बनाए रखने के लिए हम सामाजिक और आर्थिक लक्ष्यों की पूर्ति के लिए संवैधानिक रीतियों को दृढ़तापूर्वक अपनाएँ, सविनय आन्दोलन की रीति त्यागें। ये रीतियां अराजकता के अलावा और कुछ नहीं।“ ब्रिटिश संसदीय परंपरा में व्यवधान और हुल्लड़ उचित नहीं होते। बी॰बी॰सी॰ के अनुसार- ”सैकड़ों वर्ष से ब्रिटिश हाउस ऑफ कामंस को एक मिनट के लिए भी स्थगित नहीं किया गया है।“ वहाँ ओह-ओह या शेम-शेम कहना भी अभद्र माना जाता है। मूलभूत प्रश्न है कि ब्रिटिश संसद जैसी परंपरा अपनाकर भी हम अपनी विधायी संस्थाओं को वैसा ही स्वरूप क्यों नहीं दे पाते?


संसद और विधानमण्डल भाग्य विधाता हैं, लेकिन वे स्वयं अपने कार्यसंचालन में दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति में हैं। संविधान (अनु॰ 110) में संसद के प्रत्येक सदन को अपने कार्यसंचालन के लिए नियम बनाने की शक्ति है। यही शक्ति विधानमण्डलों को भी उपलब्ध है। प्रत्येक सदन ने अपनी कार्यसंचालन नियमावली बनाई है, लेकिन स्वयं अपने द्वारा बनाई गई नियमावली भी यहाँ पालनीय नहीं है। मूलभूत प्रश्न है कि क्या बाधा डालकर हम कार्यपालिका को ज्यादा जवाबदेह बनाते हैं? या तथ्य और तर्क देकर बहस के माध्यम से प्रभावी भूमिका का निर्वहन करते हैं? व्यवधान का कोई उपयोग नहीं। लेकिन विपक्ष को बहस प्रेय नहीं लगती। व्यवधान ही श्रेय लगते हैं। देश की विधायी संस्थाओं के विपक्षी माननीय ध्यान दें- व्यवधान से हमेशा सत्तापक्ष को व्यवहारिक लाभ मिलता है। मंत्रीगण प्रश्नोत्तरों से बचते हैं। विपक्ष वैकल्पिक विचार नहीं रख पाता। इससे विपक्ष के साथ देश का भी नुकसान होता है।संसद व विधानमण्डल सर्वोच्च जनप्रतिनिध निकाय हैं। सभी सदस्यों के अपने विचार होते हैं और सबकी अपनी प्राथमिकताएँ। यहाँ सब बोलने ही आते हैं श्रोता कोई नहीं होता। श्रोता भी बात काटने के लिए ही सुनता है। इसलिए बहस में उमस और गर्मी स्वाभाविक है। लेकिन शोर और व्यवधान गलत है। 1968-69 तक संसद में होने वाले व्यवधान प्रायः नगण्य थे। इसके पहले संभवतः पहली दफा 1952 में ‘प्रिवेन्टिव डिटेन्सन एमेन्डमेन्ट‘ विधेयक पर घोर व्यवधान हुआ था। 1963 में ‘आफीशियल लैगुएज‘ विधेयक पर भी भारी व्यवधान हुआ पर ऐसे व्यवधान अपवाद थे। लेकिन अब व्यवधान संसदीय कार्यवाही का मुख्य हिस्सा हैं। सदन में बैनर लेकर हुल्लड़ मचाना पराक्रम है। अच्छा हो कि प्रत्येक सत्र के बाद व्यवधान कर्मी सदस्यों की सूची प्रकाशित की जाये। जनता अपने प्रतिनिधियों का काम जंाचे।


संविधान सभा की कार्यवाही 165 दिन चली थी। 17 सत्र हुए थे। लम्बी-तीखी बहसों के बावजूद व्यवधान नहीं हुए। पहली लोकसभा में पं॰ नेहरू थे तो डॉ॰ श्यामा प्रसाद मुखर्जी भी थे। पुरूषोत्तम दास टंडन, सेठ गोविंदास जैसे धीर पुरूष थे तो हरिविष्णु कामथ जैसे आलोचक भी थे। 1968-69 तक सदस्य धैर्य से सुनते थे। अध्यक्ष की अनुमति से बोलते थे। दुनिया की सारी विधायी संस्थाओं की गुणवत्ता बढ़ी है, लेकिन भारतीय संसद ने निराश किया है। ब्रिटिश संसदीय प्रणाली में कदाचरण के आधार पर सदस्यों की बर्खास्तगी की भी प्रथा है। संसदविज्ञ अर्सकिन ने ‘पार्लियामेन्ट्री प्रोसीजर एण्ड प्रैक्टिस‘ (पृष्ठ-102-6) में ‘भ्रष्टाचार के साथ ही अशोभनीय व्यवहार के कारण भी सदस्यों की बर्खास्तगी की प्रथा बताई है।‘संसद अपनी प्रक्रिया की स्वामी है। संसदीय व्यवस्था को अग्नि स्नान की जरूरत है। संसद और विधानमण्डलों के सत्र और सत्रों की अवधि बढ़ाई जानी चाहिए। संविधान सभा (18.5.1949) में प्रो॰ के॰टी॰ शाह ने ‘संसद को कम से कम 6 माह चलाने का प्रस्ताव किया था। उन्होंने अध्यक्ष मावलंकर का विचार भी दिया था कि ‘देश के प्रति न्याय के लिए जरूरी है कि सदन वर्ष में 7-8 माह से कम न बैठे।‘ संसदीय समितियों में शालीनता के साथ ढेर सारा काम होता है। उनकी कार्यवाही गुप्त रखने के बजाय सार्वजनिक करना प्रेरक होगा। कार्यस्थगन को अपवाद बनाया जा सकता है। प्रतिवर्ष 2 या 3 विशेष सत्र बुलाए जा सकते हैं। इनमें विधि निर्माण और राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय मुद्दों को ही प्रमुखता दी जा सकती है। बाधा डालने के कृत्य संसदीय विशेषाधिकार का हनन हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने संसदीय व्यवस्था को संविधान का मूल ढांचा कहा है। राष्ट्र अपने प्रतिनिधियों को काम करते ही देखना चाहता है।