अहिंसा नीति बनाम पटेल व नेहरू

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श्याम कुमार {वरिष्ठ पत्रकार}

महात्मा गांधी के शिष्यों की बहुत लम्बी श्रृंखला थी, जिनमें दो महत्वपूर्ण शिष्य थे, सरदार वल्लभ भाई पटेल और जवाहरलाल नेहरू। लेकिन दोनों में मौलिक अंतर था। सरदार पटेल गांधी जी के पक्के अनुयायी थे और उनके प्रति पूरी निष्ठा से समर्पित थे। लेकिन जवाहरलाल नेहरू का गांधी जी से जुड़ाव का आधार स्वार्थलिप्सा था। नेहरू ने स्वीकार किया था कि उन्हें गांधी जी की लोकप्रियता पर विस्मय होता है और उनकी तमाम बातें उनके गले नहीं उतरती हैं। मोतीलाल नेहरू बड़े काइयां एवं दूरदर्शी व्यक्ति थे। उन्होंने ताड़ लिया था कि अब देश का भविष्य गांधी जी हैं। इसीलिए यह देखकर कि उनका एकलौता पुत्र किसी अच्छे भविष्य के लायक नहीं है, उसे उन्होंने गांधी जी के पीछे लगा दिया था। नेहरू को भी नेतागिरी की यह लाइन पसंद आ गई।

नेहरू ने अपनी खूबसूरती का खूब फायदा उठाया और धीरे-धीरे गांधी जी को अपने वश में कर लिया। चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने कहा था कि नेहरू को अपनी सुंदरता का बहुत फायदा मिला। नेहरू ने आगे बढ़ने के लिए महात्मा गांधी को प्लेटफाॅर्म की तरह इस्तेमाल किया। जब उन्होंने देखा कि गांधी जी को अहिंसा के सिद्धांत के कारण अपार लोकप्रियता प्राप्त हुई है, अतः यदि वह भी अहिंसा की लाइन अख्तियार कर लेंगे तो वह नए युग के प्रवर्तक कहलाए जा सकते हैं। नेहरू के मन में गांधी जी के सिद्धांतों के प्रति निष्ठा नहीं थी, बल्कि स्वार्थपरता की भावना निहित थी। इस कारणवश उन्होंने गांधी जी को सही ढंग से नहीं समझा, जिसके परिणामस्वरूप प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने गांधी जी के सिद्धांतों की ऐसी छीछालेदर कर डाली कि कहा जाने लगा कि भले ही गांधी जी के शरीर की हत्या नाथूराम गोडसे ने की थी, लेकिन गांधी जी के विचारों को मटियामेट कर उनकी वास्तविक हत्या नेहरू ने की। नेहरू ने गांधी जी की सादगी, स्वदेशी, ग्रामोत्थान, हरिजन-उद्धार आदि सिद्धांतों के बजाय रूसी माॅडल अपनाया, जो हमारे देश की प्रकृति के बिलकुल प्रतिकूल था। उसका दुष्परिणाम यह हुआ कि गांधी जी के सिद्धांतों के अनुकूल हमारे देश का उत्थान नहीं हो सका।


नेहरू के मन में यह लालच घर कर गया था कि वह विश्व-पटल पर अहिंसा की नीति का अनुसरण करेंगे तो उन्हें षांति का नोबेल पुरस्कार मिल जाएगा। प्रधानमंत्री के रूप में उनका पूरा कार्यकाल इसी लालच में फंसा रहा। नेहरू के इस लालच ने तथा रूसी माॅडल के प्रति उनके अंधप्रेम ने हमारे देश का बेड़ा गर्क कर दिया। नेहरू यह समझने में विफल रहे कि जब गांधी जी-जैसे महाव्यक्तित्व को षांति का नोबेल पुरस्कार नहीं मिला तो भला उन्हें कैसे मिलेगा! नेहरू इस बात को भी नहीं समझ सके कि गांधी जी का जीवन एक प्रयोगशा का रूप था। वह अपने जीवन में जो अनेक प्रयोग करते रहे, उनमें अहिंसा का सिद्धांत भी एक प्रयोग था। इसी वजह से जब देश की आजादी के तुरंत बाद पाकिस्तान ने कश्मीर पर हमला किया था तो गांधी जी ने उस हमले के विरुद्ध सेना के इस्तेमाल में बाधा नहीं डाली थी। एक बार कांग्रेस के नेता गोविंद सहाय ने षांति के समर्थन में सेना की आवष्यकता समाप्त करने की बात गांधी जी से कही थी तो उन्होंने गोविंद सहाय की बात को काटकर देश की मजबूती के लिए सेना को आवश्यक बताया था।

इतिहास अपने को दुहराता है, इसकी पहली मिसाल जवाहरलाल नेहरू थे, जो अपने समय के ‘राहुल गांधी’ थे और वैसी ही ऊटपटांग हरकतें व मूर्खताएं किया करते थे। दूसरी मिसाल सरदार पटेल की अनुकृति के रूप में वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं। मोदी में सरदार पटेल-जैसी ईमानदारी, दृढ़ता, दूरदर्षिता और कठोर परिश्रम की प्रवृत्ति कूट-कूटकर भरी हुई है। इसी से लोग कहते हैं कि मोदी के रूप में सरदार पटेल का अवतरण हुआ है। सरदार पटेल गांधी जी से किसी स्वार्थ के कारण नहीं जुड़े थे। वह अपने समय के उच्चकोटि के ख्यातिप्राप्त वकील थे तथा उनका भविश्य बहुत अधिक उज्ज्वल था। लेकिन गांधी जी से प्रभावित होकर जब वह उनके अनुयायी बन गए तो हमेशा पूरी निष्ठा के साथ उनसे जुड़े रहे।

विरोधी से गांधी भक्त बने थे पटेल

सरदार वल्लभ भाई पटेल से गांधी की मुलाकात नेहरू से पहले हुई थी। उनके पिता झेवर भाई ने 1857 के विद्रोह में हिस्सा लिया था। तब वे तीन साल तक घर से गायब रहे थे । 1857 के विद्रोह के 12 साल बाद गांधी जी का जन्म हुआ और 18 साल बाद 31 अक्टूबर 1875 में पटेल का यानी पटेल गांधी से केवल छह साल छोटे थे जबकि नेहरू पटेल से 14-15 साल छोटे थे.उम्र में छह साल का फर्क कोई ज्यादा नहीं होता इसलिए गांधी और पटेल के बीच दोस्ताना बर्ताव था।पटेल लंदन के उसी लॉ कॉलेज मिडिल टेंपल से बैरिस्टर बनकर भारत लौटे, जहाँ से गांधी, जिन्ना, उनके बड़े भाई विट्ठलभाई पटेल और नेहरू ने बैरिस्टर की डिग्रियां ली थीं,उन दिनों वल्लभभाई पटेल गुजरात के सबसे महँगे वकीलों में से एक हुआ करते थे।पटेल ने पहली बार गाँधी को गुजरात क्लब में 1916 में देखा था.गांधी साउथ अफ़्रीका में झंडे गाड़ने के बाद पहली दफ़ा गुजरात आए थे। देश में जगह-जगह उनका अभिनंदन हो रहा था,उन्हें कुछ लोग ‘महात्मा’ भी कहने लगे थे लेकिन पटेल गांधी के इस ‘महात्मापन’ ने जरा भी प्रभावित नहीं थे।वो उनके विचारों से बहुत उत्साहित नहीं थे।पटेल कहते थे,”हमारे देश में पहले से महात्माओं की कमी नहीं है।हमें कोई काम करने वाला चाहिए।गांधी क्यों इन बेचारे लोगों से ब्रह्मचर्य की बातें करते हैं? ये ऐसा ही है जैसे भैंस के आगे भागवत गाना। ”साल 1916 की गर्मियों में गांधी गुजरात क्लब में आए।उस समय पटेल अपने साथी वकील गणेश वासुदेव मावलंकर के साथ ब्रिज खेल रहे थे।मावलंकर गांधी से बहुत प्रभावित थे।वो गांधी से मिलने को लपके।पटले ने हंसते हुए कहा,”मैं अभी से बता देता हूं कि वो तुमसे क्या पूछेगा? वो पूछेगा- गेहूं से छोटे कंकड़ निकालना जानते हो कि नहीं? फिर वो बताएगा कि इससे देश को आज़ादी किन तरीकों से मिल सकती है।”


जब प्रधानमंत्री बनने की बात आई थी तो समूची कांग्रेस पार्टी एवं पूरा देश सरदार पटेल के पक्ष में था। नेहरू ने देखा कि लोकतांत्रिक तरीके से उनकी स्वार्थसिद्धि नहीं हो पाएगी तो उन्होंने विद्रोह कर दिया था और गांधी जी को धमकी दी थी कि यदि उन्हें प्रधानमंत्री नहीं बनाया गया तो वह कांग्रेस से अलग होकर अपनी दूसरी पार्टी बना लेंगे। गांधी जी कांग्रेस पार्टी को टूट से बचाने के लिए नेहरू के आगे झुक गए और उनके निर्देश पर सरदार पटेल ने तनिक भी चूं किए बिना अपना नाम तत्काल वापस लेकर नेहरू को प्रधानमंत्री बन जाने दिया। वहीं से देश की नींव टेढ़ी हो गई।


सरदार पटेल स्वार्थ-भावना से पूरी तरह मुक्त थे, किन्तु देशभक्ति की भावना से ओतप्रोत थे। इसीलिए उन्होंने गांधी जी के अहिंसा के सिद्धांत के मर्म को सही रूप में समझा। उन्होंने माना कि अहिंसा का सिद्धांत एक सीमित दायरे के लिए उपयुक्त है, मगर आंतरिक संकट अथवा बाह्य आक्रमण का सामना करने के लिए व्यावहारिक नहीं है। इसी आधार पर सरदार पटेल ने जब देखा था कि हैदराबाद का निजाम भारत में अपनी रियासत के विलय के पक्ष में नहीं है तथा पाकिस्तान के पक्ष में शड्यंत्र कर रहा है तो उन्होंने ‘पुलिस कार्रवाई’ के नाम पर वहां सेना भेज दी और हैदराबाद रियासत का भारत में विलय कर लिया। उस समयस के अहिंसा के गलत अनुयायी नेहरू ने हैदराबाद में पटेल की उक्त सैन्य कार्रवाई का प्रबल विरोध किया था और डर दिखाया था कि इससे दुनिया में भारत की बदनामी होगी। लेकिन सरदार पटेल तो लौहपुरुष थे!

सरदार पटेल ने अहिंसा के सिद्धांत का मूर्खतापूर्ण अनुसरण नहीं किया। कश्मीर पर जब पाकिस्तान की सेना ने कबायलियों के रूप में हमला कर दिया था और श्रीनगर के पास तक घुस आए थे तो वहां के महाराज हरिसिंह ने भारत से मदद की गुहार की थी। तब सरदार पटेल ने उनके सामने भारत में कश्मीर रियासत के विलय की शर्त रखी थी तथा जैसे ही महाराज हरिसिंह ने विलय पत्र पर हस्ताक्षर किए, सरदार पटेल ने तुरंत कश्मीर में फौज भेज दी, जिसने पाकिस्तानी सेना को पीछे खदेड़ना शुरू कर दिया। भारतीय सेना जब पूरे कश्मीर पर वापस कब्जा कर लेने वाली थी, तभी नेहरू ने मूर्खता का परिचय देते हुए लड़ाई बंद कर देने की घोशणा कर दी और स्वयं कश्मीर का मामला संयुक्तराष्ट्र में ले गए, जहां वह मामला हमेशा के लिए गले की हड्डी बन गया।


उस जमाने में सिर्फ रेडियो हुआ करता था। जब सरदार पटेल को जानकारी मिली कि नेहरू कश्मीर में संघर्षविराम की घोषणा करने रेडियो स्टेषन गए हैं तो उन्होंने नेहरू को ऐसा करने से रोकने के लिए आदमी दौड़ाया। मगर तब तक नेहरू ने संघर्षविराम की घोशणा कर डाली थी। नेहरू ने एक और मूर्खता की पराकाष्ठा की। उन्होंने घोषित किया कि सरदार पटेल की शर्त स्वीकार कर महाराज हरिसिंह ने जम्मू-कश्मीर रियासत के भारत में विलय हेतु विलयपत्र पर जो हस्ताक्षर किया है, उसे वह नहीं मानते। उन्होंने कहाकि संयुक्तराष्ट्र की निगरानी में जम्मू-कश्मीर में जनमतसंग्रह कराया जाय और जब वहां की जनता भारत में मिलना स्वीकार करे, तब उस रियासत का विलय माना जाय। नेहरू ने अपनी मूर्खताओं से जो देश की नींव टेढ़ी की, उसके ये दोनों भी ज्वलंत दृष्टान्त हैं।