दिल्ली विश्वविद्यालय में एक भी नहीं ओबीसी के प्रोफेसर

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ओबीसी आरक्षण का हश्र देखिये,दिल्ली विश्वविद्यालय में एक भी नहीं ओबीसी के प्रोफेसर , क्या यहीं हैं सबका साथ और सबका विकास,एसी ,एसटी ,ओबीसी के आरक्षण पर आखिर सेंधमारी क्यूं ..?

विनोद यादव

केंद्रीय विश्वविद्यालयों में सिर्फ नौ ओबीसी प्रोफेसर, क्या यही है ‘सबका साथ, सबका विकास’? आखिर किस दावे की बात करती हैं केंद्र सरकार ,क्या सत्ता से सवाल करना गुनाह हैं यदि यह गुनाह हैं तो मैं करना और लिखना दोनों उचित समझता हूँ यूजीसी एक्ट, 1956 के तहत पब्लिक फंड यानी इस देश की जनता के टैक्स के पैसे की मदद लेने वाली सभी विश्वविद्यालयों और संस्थानों के लिए सरकार की आरक्षण नीति को लागू करना जरूरी है। लेकिन इसका अनुपालन नहीं किया जा रहा है।आखिर इसका क्या कारण समझा जाए क्या हाशिए के समाज को शिक्षा से रोकने की नये पेशकश तो नहीं बुनी जा रहीं हैं देश के 45 केंद्रीय विश्वविद्यालयों में वंचित वर्गों से सिर्फ नौ उपकुलपति विश्वविद्यालयों में पदों पर आरक्षण के नियमों के लिए 2019 में केंद्रीय शैक्षिक संस्थान (शिक्षक संवर्ग में आरक्षण) अधिनियम लाया गया था। इसके तहत आरक्षण व्यवस्था में दो बड़े बदलाव लाए गए थे। इसके पहले तक केंद्रीय शैक्षिक संस्थानों में शिक्षकों के पदों में सिर्फ अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षण था, लेकिन इस अधिनियम के तहत ओबीसी और आर्थिक रूप से कमजोर (ईडब्ल्यूएस) श्रेणी के लिए भी आरक्षण लागू कर दिया गया ।

केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय के आंकड़े दिखा रहे हैं कि केंद्रीय विश्वविद्यालयों में शिक्षकों और उपकुलपति के पदों पर वंचित वर्गों के बहुत कम लोग आसीन हैं। उच्च शिक्षा में वंचित वर्गों का प्रतिनिधित्व चिंता का विषय बना हुआ है, देश के 45 केंद्रीय विश्वविद्यालयों में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति से सिर्फ एक-एक उपकुलपति हैं। मंत्रालय ने इन कुलपतियों या इन विश्वविद्यालयों का नाम नहीं बताया लेकिन हैदराबाद स्थित अंग्रेजी और विदेशी भाषा विश्वविद्यालय के उपकुलपति ई सुरेश कुमार को इस समय देश के इकलौते दलित उपकुलपति के रूप में जाना जाता है वहीं झारखंड के दुमका स्थित सिदो कान्हू मुर्मू विश्वविद्यालय की उपकुलपति सोनझरिया मिंज आदिवासी समुदाय से हैं। मंत्रालय द्वारा दी गई जानकारी के मुताबिक 45 उपकुलपतियों में से सात ओबीसी समाज से हैं। इसी तरह रजिस्ट्रार, प्रोफेसर आदि जैसे पदों और टीचिंग और नॉन टीचिंग स्टाफ में भी वंचित वर्गों का प्रतिनिधित्व बहुत कम है। 45 रजिस्ट्रारों में से सिर्फ दो अनुसूचित जाती से, पांच अनुसूचित जनजाति से और तीन ओबीसी से हैं। कुल 1005 प्रोफेसरों में से 864 सामान्य श्रेणी से हैं जबकि सिर्फ 69 अनुसूचित जाति से, 15 अनुसूचित जनजाति से और 41 ओबीसी से हैं। शोध छात्र दिल्ली विश्वविद्यालय मुलायम सिंह यादव के द्वारा मागीं गयी जन सूचना अधिकार की रिपोर्ट के अनुसार उन्होंने बताया कि दिल्ली विश्वविद्यालय यह 2016 की RTI रिपोर्ट है जिसमें मैंने दिल्ली विश्वविद्यालय के अंदर हजारों की संख्या में कार्यरत अध्यापकों के सूचना मांगी थी। जिसमें आप OBC की हालत देखिए हाशिए पर ही नहीं शून्य हैं भागीदारी, दिल्ली विश्वविद्यालय में आपको एक भी इस वर्ग का प्रोफेसर एवं एसोसिएट प्रोफेसर नहीं मिलेगा।

आज किसी में हिम्मत नहीं है जो पूछ सके कि ओबीसी का हिस्सा कौन खा गया? कौन कराएगा आपको रिसर्च? यूजीसी एक्ट की धज्जियां कौन उड़ा रहा है? यह एक शोध छात्र का दर्द हैं सामान्य श्रेणी में प्रोफेसर 294 , एसोसिएट प्रोफेसर , रीडर 170 ,असिस्टेंट प्रोफेसर 161 हैं तो वहीं एसी श्रेणी में प्रोफेसर 4 ,एसोसिएट प्रोफेसर, रीडर 15 ,असिस्टेंट प्रोफेसर 42 हैं तो एसटी श्रेणी में प्रोफेसर 2 ,एसोसिएट प्रोफेसर ,रीडर 2 , असिस्टेंट प्रोफेसर 22 हैं तो वहीं ओबीसी श्रेणी में प्रोफेसर शून्य (0), असिस्टेंट प्रोफेसर ,रीडर शून्य (0), असिस्टेंट प्रोफेसर 40 हैं सबसे बड़ा सवाल यह हैं कि आखिर ओबीसी को मिल रहें 27% आरक्षण के बाद भी पिछडे़ समाज के हकों पर डाका क्यूं डाला जा रहा हैं यूजीसी एक्ट,1956 के तहत पब्लिक फंड यानी इस देश की जनता के टैक्स के पैसे की मदद लेने वाली सभी विश्वविद्यालयों और संस्थानों के लिए सरकार की आरक्षण नीति को लागू करना जरूरी है। यह नीति शिक्षकों, गैर शिक्षण कर्मियों की भर्तियों से लेकर दाखिला और छात्रावास आवंटन तक में लागू होनी चाहिए। संविधान के अनुच्छेद 30 (1) के प्रावधानों के तहत इन नियमों को किसी भी हाल में लागू करना अनिवार्य है। सिर्फ अल्पसंख्यक संस्थानों पर यह लागू नहीं होता।

राज्य सरकारों को भी अपने विश्वविद्यालयों, सहायता प्राप्त और संबद्ध शिक्षण संस्थानों को अपने यहां की आरक्षण नीति के हिसाब से शिक्षकों, गैर शिक्षकों की भर्तियों, नामांकन और छात्रावास आवंटन में ओबीसी, एससी और एसटी के लिए आरक्षण का पालन करना पड़ता है। अभी तक 303 ओबीसी प्रोफेसरों के पदों पर सिर्फ नौ भर्तियां ओबीसी आरक्षण का हश्र देखिये। सवाल यह हैं कि अगस्त, 2020 तक सिर्फ केंद्रीय विश्वविद्यालयों में ओबीसी वर्ग के प्रोफेसरों के 313 पद खाली थे, लेकिन इनमें से सिर्फ 2.8 यानी सिर्फ नौ पद भरे गए थे। और खबरों का जखीरा तथा जाति विशेष को टारगेट करके बदनाम करने की साजिश करने वाली चाटूकार मीडिया नें 86 में 56 एसडीएम यादव के चयनित होने का प्रोपेगेंडा खूब चलाया और अपने मंसूबों में कामयाब भी रहें खैर पूर्वर्ती सरकार को बदनाम करने के लिए चलया गया यह ब्रह्मफास लोगों के दिमाग में घर भी कर गया था उस वक्त लोग अपनी सफाई देते तो उन्हेँ भी एंटीनेशनल करार दे दिया जाता था खास करके यादव जाति को टारगेट करके बाखूबी बदनाम करने की साजिश सवर्ण मीडिया ने रची थी। उत्तर प्रदेश के लोक सेवा आयोग के गेट पर यादव सेवा आयोग भी लिख दिया गया था यदि आज वहीं समाज पूरें ओबीसी समाज के हक और अधिकार की बात कर रहा हैं तो गुनाह किस बात का यह सरकार की जबाबदेही हैं आजादी के अमृत महोत्सव को हम भले ही मना रहें हैं, लेकिन केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में अभी तक एक भी ओबीसी के प्रोफेसर आखिर क्यूं नहीं क्या यह दोहरा मापदंड तो नहीं हैं आज लोगों को इस बात में बड़ा आनंद मिलता है और चर्चा भी करते हैं कि फिरकापरस्त ताकते धीरे-धीरे आरक्षण को खत्म कर रही है।

लेकिन सवाल उठाने की शायद हैसियत में नहीं हैं हर कोई यहीं सोच रहा हैं जो आवाज उठा रहा हैं लड़का भगत सिंह की तरह बने लेकिन अपने लड़के को उस लडाई का हिस्सा नहीं बनने देगें शायद अपने घर में यह चर्चा करते हुए लहालोट हो जाते हैं कि मोदी और कुछ साल रह गए तो संविधान से मिला अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़ों का आरक्षण कहां चला जाएगा, पता भी नहीं चलेगा। यह भाजपा के सवर्ण वोटरों के घरों में बैठकों में होने वाली रस चर्चा भर नहीं है, बल्कि एक कुत्सित मंशा है, जो अब साफ तौर पर परवान चढ़ती दिख रही है। चाहे 13 प्वाइंट रोस्टर का मामला हो, या नीट में ओबीसी आरक्षण को दबाए रखना हो या फिर आर्थिक आधार पर दस फीसदी सवर्ण आरक्षण का रास्ता साफ करना हो, सबकुछ बड़े ही सलीके से अंजाम दिया जा रहा है। शिक्षण संस्थानों में एससी, एसटी और ओबीसी आरक्षण की अंदर ही अंदर गला घोंटा जा रहा है। हमें और आपको इसका पता तब चलता है जब सरकार के अंदरखाने चल रहे इस नापाक कोशिश के कुछ सुबूत इधर-उधर से छिटक कर बाहर निकल आते हैं। वाट्सएप यूनिवर्सिटी से ज्ञान टटोलने में जुटा शोषित पिछ़डा समाज यदि वाट्सएप ,फेसबुक के बाहर की दुनिया देखेगा तो उसे भी भलीभांति पता चलेगा कि गिने चुने बौद्धिक लोगों के द्वारा जो जगाने का प्रयास किया जा रहा है शायद वह हमें को ही किया जा रहा हैं।