सरकारी व्यवस्था में फंसे लोग अपनी नौकरी बचा रहे हैं…..

80

डॉ0 अम्बरीष राय

‘भीड़ से कुछ नहीं होता, सरकार तो हमारी ही बनेगी’ ये खींस निपोरता बयान आप लगातार सुन रहे होंगे. कभी डबल इंजन वाली सरकार के किसी डिप्टी के मुंह से,मंत्री के मुंह से तो कभी भाजपा के बड़े नेता के मुंह से, कभी स्तरहीनता के नए नैरेटिव गढ़ते …. लोगों के मुंह से. लेकिन प्रधानमंत्री की जनसभाओं से लेकर मुख्यमंत्री की सभाओं में खाली पड़ीं कुर्सियां भगवा ब्रिगेड के माथे पर बल डाल चुकी हैं. यहां बात हो रही है उत्तर प्रदेश की. समाजवादी पार्टी मुखिया अखिलेश यादव की समाजवादी विजय रथ यात्रा में उमड़ते अपार जनसमूह की. भगवा कुनबे की सरकारी मशीनरी के इस्तेमाल से मैदान भरने की, कुर्सियां भरने की. भीड़ से कुछ नहीं होता, कहने वाले भाजपाई और महंत जी की सरकार भाजपा की रैलियों में लोग लाए जाएं, इसके लिए सारे घोड़े खोल चुकी है. सभी सरकारी अधिकारी, कर्मचारी भगवा ब्रिगेड की आदमी जुटाओ परियोजना में पूरी मेहनत से काम करने में जुटे हुए हैं. आम आदमी को अपने गन्तव्य तक जाने के लिए बसें ना मिलें, कोई बात नहीं. सरकारी परिवहन पर आश्रित लोग बसों के इंतज़ार में जाड़े की रात सड़क पर बिताएं या फिर अपना सफ़र मुल्तवी करने को मज़बूर हों, इससे सरकार बहादुर को कोई फ़र्क पड़ता दिखाई नहीं देता है.

मैं आपको अपना अनुभव बताता हूं. पिछले दिनों मुझे एमरजेंसी में लखनऊ से अपने गृह जनपद आज़मगढ़ जाना पड़ा. मैंने अपना छोटा एयरबैग उठाया और चल पड़ा इंदिरानगर और गोमतीनगर के संधि स्थल पॉलिटेक्निक. आज़मगढ़ जाने के लिए पॉलिटेक्निक पर बसें अमूमन खड़ी रहती हैं या फिर दस पंद्रह मिनट के हेर फेर पर मिल जाती हैं. मैं लगभग डेढ़ घंटे वहां रहा. बमुश्क़िल तीन चार बसें ही उतनी देर में वहां आईं. और उनकी वहां रुकने में दिलचस्पी भी दिखाई नहीं दी, क्योंकि वो पहले से ही फुल थीं. लोग थे लेकिन बस नहीं थी. मैं अरसे बाद सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था का हिस्सेदार बन रहा था. तो मुझे लगा कि हो सकता है आलमबाग से चलने वाली बसें शहीद पथ से आ रहीं हों और अवध बस डिपो से आगे को जा रहीं हों. मैंने अवध डिपो की तरफ़ कूच करना मुनासिब समझा. अवध डिपो का हाल पॉलीटेक्निक जैसा ही था, लोग दिखे लेकिन बस नहीं. मैं एन्क्वायरी काउन्टर पर पहुंचा. मुझसे पहले दो एक लोग अपनी पूछताछ कर रहे थे. मैंने काउंटर पर बैठे आदमी के मुंह से सुना कि आएगा तो मोदी ही. वो लोग हटे तो मैंने अपनी बस के बारे में पूछा तो उसने कहा कि आएगी तो जाएगी. मैंने कहा कि कहां से आएगी तो उसने कहा मोदीजी की रैली से. मैंने कहा कि अच्छा.. आएगा तो मोदी ही??? उसने तंज भरे शब्दों में कहा कि जी हां आएगा तो मोदी ही.. मैं मुस्कुराया और सफ़र का ख़याल छोड़ अपने घोंसले में लौट आया. फिर मैं अपने इंतिज़ाम में अपना काम किया. पहुंचा लौटा ये और बात है.

बात फिर वही है,जब भीड़ से कुछ होता नहीं तो ये सरकारी इंतिज़ाम क्यूं ठहरा. मेरे शहर का हिसाब यूं क्यूं ठहरा. एक तरफ ब्रह्मांड की सबसे बड़ी पार्टी. हिन्दू राजा मोदी. हिन्दू हृदय सम्राट का ताज़ा संस्करण महंत योगी आदित्यनाथ. प्रधानमंत्री.. मुख्यमंत्री.. बावजूद इसके भीड़ की ज़रूरत है और भीड़ नदारद. दूसरी तरफ़ बैक टू बैक तीन पराजयों के साथ खड़े अखिलेश यादव. बिके हुए राजनीतिक विश्लेषकों की भाषा और विश्लेषण में एक हासिये पर जा पहुंची जाति और सियासी तौर पर धर्म विशेष के नेता अखिलेश यादव ख़त्म होने को हैं. फिर ये डर समझ नहीं आता. समाजवादी सुल्तान को ट्रोल करती भगवा ब्रिगेड इतनी परेशान क्यूं है? अपना बचा खुचा संसाधन लगाकर अखिलेश यादव के साथ जुटती भीड़ से डर क्यूंकर है. लोकतंत्र के इस सर्वग्राही मॉडल में तंत्र तब तक ही आंनद लोक की यात्रा पर रहता है, जबतक लोक उसके साथ रहता है.

माफ़ कीजियेगा लेकिन लोक ने तंत्र को बदलने की ठान ली है. सरकारी व्यवस्था में फंसे लोग अपनी नौकरी बचा रहे हैं. आपको फंसा कर निकल जाएंगे ये लोग आप बस देखते रह जाएंगे. सारे सर्वे आपको जिताएंगे. गिरवी लोगों के पास चरण वंदना के अलावा विकल्प भी क्या है. किसी की नौकरी है, किसी का धंधा. लोकतंत्र की सबसे बड़ी ख़ूबसूरती यही होती है कि वो अपना नायक ख़ुद चुनती है. नायक खलनायक में तब्दील हो जाए तो एक दिन वो चुपचाप बदल देती है. लोक आपसे बहस नहीं करने आता. तर्क नहीं करता. आपको गलत भी ठहराने नहीं आता. नायक खलनायक की परिभाषा और दर्शन से विपरीत कुछ लोग मौन होते हैं. और कमाल की बात बताऊं… बोलने वालों में, आपकी बात बोलने वाले भी ना जाने कितने आपके साथ नहीं हैं सरकार. मैं कहता हूं आंखिन देखी. बाकी राजनीति संभावनाओं का खेल है. लाज़िम है हम भी देखेंगे.

                               मूर्खों का भगवान और मूर्ख के भक्त.....
                                           अपनी क्या कहें चराग़ जलाए बैठे हैं......