भाषाई मर्यादा से जूझते प्रधानमंत्री मोदी

166

चुनावों में जिस तरह हमारे जनप्रतिनिधि,उनके प्रतिनिधि व समर्थकों ने भाषाई मर्यादा से गुल गपाड़ा मचा रखा है,जिस भाषा का इस्तेमाल वें कर रहे हैं,जैसे अभद्र शब्द उनकी ज़बान से निकल रहे हैं,जो अपशब्द मंचों से बोल रहे हैं वह भयावह है,अमर्यादित है व भारतीय सभ्यता का गहरा अपमान है.कहते हैं कि तलवार का ज़ख्म जल्दी भर जाता है व आदमी उसे भूल जाता है पर लफ्जों का ज़ख्म,शब्दों का घाव किसी नासूर की तरह न तो भरता है और न ही पीड़ित आसानी से उसे भूलता है. उसकी पीड़ा उसे बार-बार आक्रोशित करती है,बदले को उकसाती है,प्रतिशोधी बनाती है और इसका एक ही परिणाम होता है विनाश,विनाश और सिर्फ विनाश.

पप्पू और पिंकी दो नाम जो हर दूसरे तीसरे घर में बच्चों के बुलाए जाने वाले नाम हैं. पप्पू भईया, पिंकी दीदी, पप्पू चाचा पिंकी बुआ, रिश्ते चाहे जितने जोड़ लीजिए गर्मजोशी कम नहीं होती. बात बस इतनी सी कि आत्मीय रिश्तों में हम लोग बस पप्पू पिंकी जैसे होते हैं. एक दिन धर्म सभ्यता, संस्कृति, संस्कार का मुखौटा ओढ़े कुछ लोग सत्ता में आ गए. और इन लोगों ने इन दोनों शब्दों को गाली बना दिया. ये प्यार के शब्द नफ़रत और आलोचना के शब्द हो गए. भाषा और भाव की अभूतपूर्व गिरावट का निर्माण करने वाले ये लोग डरपोक भी बहुत हैं. अपने डर में इन्होंने राहुल गांधी को पप्पू और प्रियंका गांधी को पिंकी बुलाना शुरू किया.

पप्पू के संबोधन में जो भाव छिपा है वो एक कमअक़्ल, गैरजिम्मेदार, नीम पागल इंसान का है. राहुल तर्कों के तरकश से भगवा कुशासन पर हमला करते रहे और भगवा ब्रिगेड उनको पप्पू कहकर खुश होती रही. भगवा ब्रिगेड से मेरा आशय भाषाई मर्यादा की कमी से जूझते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर सोशल मीडिया पर सोनिया गांधी को क्वात्रोकी की प्रेमिका लिखने वाले एजेंडेबाज हों या फिर बारबाला लिखकर स्वान्तः सुखाय महसूस करने वालों तक है. 2004 में जब अटल बिहारी वाजपेयी का भारत उदय हो रहा था, इंडिया शाइन कर रहा था तब भी भाजपाई अपने अहंकार के शिखर पर थे. भाजपा नेता प्रमोद महाजन का बयान मुझे आजतक नहीं भूलता. महाजन ने कहा था कि अटलजी जब तक ज़िन्दा रहेंगे, वही इस देश के प्रधानमंत्री रहेंगे. लेकिन हुआ क्या.. भाजपा अटलजी समेत 10 साल के वनवास पर चली गई. सोनिया गांधी सत्ता के शीर्ष पर पहुंची तो मनमोहन सिंह 10 प्रधानमंत्री रहे. और दोनों राजनीति में कभी बहुत संघर्ष करते दिखे भी नहीं. जबकि राहुल लड़ते दिखते हैं. प्रियंका लड़ती दिखती हैं.

यहीं भाजपा थिंक टैंक के माथे पर बल पड़ा. तो जाहिर सी बात है कि भगवा राजनीति इन दोनों को नॉन सीरियस स्थापित करने में ही अपना भला समझती है. एक ऐसे समय में जब उपलब्धियों की झोली मुंह चिढ़ाती दिखे तो लाज़िमी है कि अपने प्रतिस्पर्धी को ऐसे ही पेश करके अपने आपको बचाया जाए. तो इस तरह से अस्तित्व में आए पप्पू और पिंकी. अब पप्पू और पिंकी कहकर वो भी खुश हो लेते हैं, जो दो लाइन शुद्ध हिन्दी नहीं लिख सकते, अंग्रेजी तो ख़ुदा ख़ैर करे वाली बात है. टेक्नोलॉजी के इस दौर में मोबाइल फोन में बोलकर काम चलाने वाली जमात 200 रुपए का रिचार्ज कराकर उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को टोंटीचोर भी कह लेती है, औक़ात बस इतनी है कि पूरे ख़ानदान का जोर लगाने के बाद भी शायद अखिलेश यादव के चपरासी से भी बात हो पाए. ख़ैर इस पर फिर कभी.

उत्तर प्रदेश का चुनावी मैदान राजनीतिक दलों के लिए जंग बन गया है. राजनीतिक दल और राजनेता चुनावी झोली से नित्य नए जुमले निकाल कर रहे हैं. निजी हमले भी किए जा रहे हैं और 30-35 साल पुराने गड़े मुर्दे भी उखाड़े जा रहे हैं, जिसका कोई औचित्य नहीं है. लेकिन सत्ता और सिंहासन की लालच में सब कुछ जायज है. लेकिन आम आदमी और प्रधानमंत्री एवं मुख्यमंत्री के बयान में फर्क है.मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने आजतक के मंच से पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को निकम्मे जैसे शब्द से उद्बोधन किया परंतु एंकर चुपचाप इस बात को सुनती रहीं यह वाकया उस समय का है जब एंकर अखिलेश यादव के सपने में भगवान श्री कृष्ण के आने की बात की उस समय मुख्यमंत्री जी ने कहाएक सामान्य राजनेता कुछ भी बोल दे, उसे उतनी गंभीरता से नहीं लिया जाता है, लेकिन जब उसी बात को देश का प्रधानमंत्री सार्वजनिक सभा में बोले तो उसके कुछ अलग मायने हैं.हालांकि यह राजनीतिक निहितार्थ से कुछ अधिक नहीं है. लेकिन सवाल पद और गरिमा का है.राजनीति में गिरने की सीमा किस हद तक होनी चाहिए, क्या इसका पैमाना नहीं होना चाहिए….?

तो पप्पू कहकर बिना तेल की पकौड़ी होने वाले लोगों सुनो! सुनो पप्पू ने क्या किया. अदने से पप्पू ने एक दिन भाजपा से गलबहियां कर रहे पंजाब के हैवीवेट मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह को चलता कर दिया. और एक अदने से नेता को मुख्यमंत्री बना दिया. ब्रह्मांड की सबसे बड़ी पार्टी के सबसे बड़े नेता जब पंजाब में अपनी जान बचने का इवेंट खड़ा कर रहे थे तो पप्पू का यही अदना सा नेता हिन्दुत्व और राष्ट्रवाद के सबसे बड़े ब्रांड के सामने खड़ा हो गया. पप्पू के अदने से सिपाही ने हिन्दू राजा को सियासत के सारे दांव दिखा दिए. पप्पू का अदना सा नेता आज भारत के हर हिस्से में सुना जा रहा है. पढ़ा जा रहा है. डिस्कस किया जा रहा है. मुझे याद आता है संसद में बोलता वो पप्पू जब सदन में बैठे नरेंद्र मोदी के गले लगा तो 56 इंची का चेहरा कुम्हला गया था. लोकसभा उस दिन हतप्रभ थी तो आलोचक सदमे में. आंकड़ों की रोशनी में देखें तो महामारी पर राहुल गांधी ने जितना कुछ कहा, पहले इनकार करने के बाद सरकार सब कुछ वही करती दिखी. लेकिन खींस निपोरने के लिए पप्पू राग भी अलापते रहे. अब भी तस्वीर बदली नहीं है, जबकि भगवाराज जड़ों में नमी बढ़ गई है.बात कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी की. सस्ते ट्रोलर्स के पिंकी की. भगवा कुनबा पिंकी शब्द को भी निम्नता में ही इस्तेमाल करता है. पिंकी कहकर खुश होने वालों ने वो मंज़र भी देखा है, जब महंत जी की सरकार के सीने पर पिंकी ने हजार बसें खड़ी कर दीं तो लखनऊ के बाबू कागज़ कागज़ खेलने लगे थे. इसी पिंकी ने लगभग मरणासन्न पड़ी उत्तर प्रदेश कांग्रेस में एक अनजान चेहरे को अध्यक्ष बनाया. प्रदेश में चौथे नंबर की पार्टी को ना कोई गंभीरता से ले रहा था ना ही उसके अध्यक्ष को. लेकिन पिंकी के इस अदने से व्यक्ति ने योगी सरकार को कितनी बार छकाया, ये भी पब्लिक डोमेन में है. प्रदेश की मुख्यधारा की पार्टियों सपा बसपा के प्रदेश अध्यक्षों के नाम कितने लोगों को पता होंगे, भगवान ही जानता है लेकिन राजनीति को थोड़ा बहुत जानने वाले, अख़बार भर पढ़ लेने वाले सभी लोगों की जुबान पर कांग्रेस अध्यक्ष अजय कुमार लल्लू का नाम चढ़ गया. पिंकी के इस अदने से व्यक्ति को महंत जी की सरकार जेल में डाल डाल कर थक गई. दिल्ली से निकलते ही प्रियंका गांधी मीडिया की सुर्खियां बन जाती हैं. और पिंकी पिंकी रटते लोग हास्यास्पद ही दिखते रह जाते हैं.

पप्पू और पिंकी के दो नामालूम से चेहरे चरनजीत चन्नी और अजय कुमार लल्लू आज सियासत में संवर गए हैं. नाम और पहचान के मोहताज़ नहीं हैं. ये और बात है कि अपने ब्रैंड्स को इन लोगों के सामने असहज होते देखकर एक जमात चवन्नी और लल्लू पल्लू कहकर खुश हो लेती है. लेकिन ये याद रखने की ज़रूरत है कि लोगों ने राहुल और प्रियंका को नीचा दिखाने के लिए अपने को कितना नीचे गिरा लिया है, और लोगों को एहसास भी नहीं है. मायावी राजनेताओं के चक्कर अपने रिश्तों को गाली बनाकर खुश होने वालों पर मैं क्या ही टिप्पणी करूं. बस इतना ही ज़ेहन में आया कि तथाकथित पप्पू और पिंकी का बस छोटा सा अंदाज़ सामने रख दूं. बाकी ज़हालत का आलम लाज़िम है हम देखेंगे.

लगता है कि जैसे किसी को देश से लगाव ही नहीं रह गया है. यहां के महान संस्कार,आचरण,चरित्र,मूल्य,नैतिकता,ईमानदारी,उच्च पदों पर आरूढ़ लोगो के द्वारा किया जाने वाले एक आदर्श आचरण का प्रदर्शन कैसा हो चला है अब इस पर ज्यादा कहने सुनने की नहीं वरन् उस पर चिंतन करने की ज्यादा जरूरत है.अब जिस देश में लोकतंत्र करीब आठ दशक पूरे कर चुका हो,जहां एक दो नहीं पंद्रह बार केंद्र में सत्ता की अलटी-पलटी जनता कर चुकी हो,जहां इन 75 बरसों में एक भी सैनिक क्रांति या तख्ता पलट तो क्या उसके खिलाफ षड़यंत्र तक होने के सबूत न हों वहां कैसे माना या कहा जाए कि वहां लोकतंत्र की नींव कमजोर है या फिर वहां की आबो हवा में जम्हूरियत की सुगंध नहीं है.पर इसी सच का दूसरा पहलू भी है तो है.भले ही हमने अपनी आजादी को बचाकर रखा है.प्रगति भी कम नहीं की है.विकास का पहिया भी कम या तेज गति से घूमा ही है. मगर एक चीज जो सबसे ज्यादा खराब स्तर तक गिरी है वह है हमारा राष्ट्रीय चरित्र.