महिलाओं का राजनीतिक प्रतिनिधित्व

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ये कोई छुपी हुई बात नहीं है कि औरतों की भलाई या उनवेफ साथ समान व्यवहार वाले मुद्दों पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जाता। इसी वेफ चलते विभिन्न नारीवादी समूह और महिला आंदोलन इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि जब तक औरतों का सत्ता पर नियंत्राण नहीं होगा तब तक इस समस्या का निपटारा नहीं हो सकता। इस लक्ष्य को हासिल करने का एक तरीका यह है कि जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों में महिलाओं की हिस्सेदारी बढ़ाई जाए। भारत की विधायिका में महिला प्रतिनिध्यिों का अनुपात बहुत ही कम है। जैसे, लोकसभा में महिला सांसदों की संख्या पहली बार 2019 में ही 14.36 फीसदी तक पहुँच सकी है। राज्यों की विधान सभाओं में उनका प्रतिनिधित्व 5 फीसदी से भी कम है। इस मामले में भारत का नंबर दुनिया वेफ देशों में काप़् काफी नीचे है भारत इस मामले अप्रफीका और लातिन अमरीका वेफ कई विकासशील देशों से भी पीछे है। कभी-कभार
कोई महिला प्रधानमंत्राी या मुख्यमंत्राी की वुफर्सी तक आ गई है पर मंत्रिमंडलों में पुरुषों का ही वर्चस्व रहा है। इस समस्या को सुलझाने का एक तरीका तो निर्वाचित संस्थाओं में महिलाओं वेफ लिए कानूनी रूप से एक उचित हिस्सा तय कर देना है। भारत में पंचायती राज वेफ अंतर्गत वुफछ ऐसी ही व्यवस्था की गई है। स्थानीय सरकारों यानी पंचायतों और नगरपालिकाओं में एक तिहाई पद महिलाओं वेफ लिए आरक्षित कर दिए गए हैं। आज भारत वेफ ग्रामीण और शहरी स्थानीय निकायों में निर्वाचित महिलाओं की संख्या 10 लाख से श्यादा है। महिला संगठनों और कार्यकर्त्ताओं की माँग है कि लोक सभा और राज्य विधान सभाओं की भी एक तिहाई सीटें महिलाओं वेफ लिए आरक्षित कर देनी चाहिए। संसद में इस आशय का एक विधेयक पेश भी किया गया था पर दस वर्षों से श्यादा अवधि से वह लटका पड़ा है। सभी राजनीतिक पार्टियाँ इस विधेयक को लेकर एकमत नहीं हैं और यह पास नहीं हो सका है। लैंगिक विभाजन इस बात की एक मिसाल है कि वुफछ खास किस्म वेफ सामाजिक विभाजनों को राजनीतिक रूप देने की शरूरत है। इससे यह भी पता चलता है कि जब सामाजिक विभाजन एक राजनीतिक मुद्दा बन जाता है तो वंचित समूहों को किस तरह लाभ होता है। क्या आपको लगता है कि अगर महिलाओं से भेदभाव भरे व्यवहार का मसला राजनीतिक तौर पर न उठता तो उनको लाभ मिल पाना संभव था?

वर्तमान में युवा भारतीय महिलाएँ संभवतः किसी भी अन्य समूह की तुलना में आकांक्षी भारत का अधिक प्रतिनिधित्व करती हैं। अवसर मिलने पर वे हमारी गतिहीन राजनीति में एक नई ऊर्जा ला सकती हैं और इसे स्वास्थ्य, पोषण, शिक्षा और आजीविका जैसी बुनियादी आवश्यकताओं के वितरण की दिशा में ले जा सकती हैं।   

यह भारत जैसे देश के लिये आवश्यक है कि मुख्यधारा की राजनीतिक गतिविधियों में समाज के सभी वर्गों की समान भागीदारी सुनिश्चित की जाए; इसलिये इसको बढ़ावा देने हेतु सरकार को आवश्यक कदम उठाने पर विचार करना चाहिये।    

  • महिला आरक्षण विधेयक को पारित करना: 
    • सभी राजनीतिक दलों को एक आम सहमति तक पहुँचते हुए महिला आरक्षण विधेयक को संसद में पारित करना चाहिये, जिसमें संसद और सभी राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के लिये 33 प्रतिशत सीटें आरक्षित करने का प्रस्ताव किया गया है।
  • राज्य स्तर पर स्थानीय निकायों की महिला प्रतिनिधियों को बढ़ावा देना: 
    • स्थानीय स्तर पर महिलाओं का एक ऐसा समूह उभर चुका है, जो सरपंच और स्थानीय निकायों के सदस्य के रूप में स्थानीय स्तर के शासन का तीन दशक से अधिक समय का अनुभव रखता है।
    • वे अब राज्य विधानसभाओं और संसद में बड़ी भूमिका सकती हैं।
  • राजनीतिक दलों में महिला कोटा: 
    • गिल फॉर्मूला: भारतीय निर्वाचन आयोग के उस प्रस्ताव को लागू किये जाने की आवश्यकता है, जिसके अनुसार किसी मान्यता प्राप्त राजनीतिक दल को अपनी मान्यता बनाए रखने के लिये राज्य विधानसभा और संसदीय चुनावों में महिलाओं के एक न्यूनतम सहमत प्रतिशत को अवसर देना ही होगा।     
  • पार्टी के भीतर लोकतंत्र को बढ़ावा देना: 
    • कोई राजनीतिक दल—जो वास्तविक अर्थ में लोकतांत्रिक होगा, वह निर्वाचन प्रक्रिया से अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, सचिव, कोषाध्यक्ष जैसे पदों पर दल की महिला सदस्यों को उचित अवसर प्रदान करेगा।
  • रूढ़ियों को तोड़ना: 
    • समाज को महिलाओं को घरेलू गतिविधियों तक सीमित रखने की रूढ़िवादिता को तोड़ना होगा।  
    • सभी संस्थानों (राज्य, परिवार और समुदाय) के लिये यह महत्त्वपूर्ण है कि वे महिलाओं की विशिष्ट आवश्यकताओं—जैसे शिक्षा में अंतराल को कम करने, लिंग भूमिकाओं पर फिर से विचार करने, श्रम के लैंगिक विभाजन और पक्षपातपूर्ण दृष्टिकोण  को दूर करने के प्रति सजग हों और इस दिशा में आवश्यक कदम उठाएँ।