पिछड़ी जातियों के इर्द गिर्द घूमती राजनीति

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डॉ0 अम्बरीष राय

उत्तर प्रदेश की सियासत उबलने लगी है. लोग खौलने लगे हैं. मर्यादाएं कुचली जा रहीं है. टिप्पणियां कमर के नीचे टहल रही हैं. अंग्रेजी में इसको बिलो द बेल्ट कहते हैं. राजनीतिक निष्ठा तेजी से अवसरों के सामने दम तोड़ रही हैं. सियासी लोग पाला बदलने में लगे हैं. मार्च जब दस दिन का हो जाएगा तब उत्तर प्रदेश अपना अगला मुख्यमंत्री देखेगा. लेकिन इसके पहले भी बहुत कुछ देखेगा. दरअसल देखने की शुरुआत हो भी चुकी है. उत्तर प्रदेश की मौजूदा सियासत पिछड़ी जातियों के इर्द गिर्द घूमती नज़र आ रही है. देश के प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि मैं पिछड़ी जाति का हूं. अपने मंत्रिमंडल का विस्तार करने के बाद प्रधानमंत्री प्रचार करते हैं कि मैंने इतने पिछड़ों को अपने मंत्रिमंडल में जगह दी है. भारतीय जनता पार्टी की बात करें तो जातियों की जमाबंदी करने के बाद उसमें हिन्दुत्व का तड़का लगाने की गरज से 2017 में योगी आदित्यनाथ को यूपी का मुख्यमंत्री बना दिया गया.

योगी की कोई जाति नहीं होती, ऐसा खूब रटा गया और रटाया गया. लेकिन मुख्यमंत्री बनते ही महंत जी की जाति, माफ़ करियेगा पूर्व जाति सामने आ खड़ी हुई. भगवा ब्रिगेड सफ़ाई देती रही तो आलोचक और राजनीतिक विरोधी महन्त जी को जातिवाद पर ही घेरते रहे. कभी गोरक्षपीठ और महंत जी के करीबी और गोरखपुर से भाजपा के विधायक राधामोहन अग्रवाल भी योगी जी पर जाति को लेकर हमला करते दिखे. महंत जी शायद जाति की छाया से निकल भी जाते, लेकिन उनके जातीय समर्थकों ने अपने उत्साह में उनको जाति से बाहर ही आने नहीं दिया. इसी के साथ ही ‘सन्यासी की जाति नहीं होती’ वाला मिथक उत्तर प्रदेश में भरभराकर गिर गया. बहरहाल मैं कह रहा था कि जातियों की रसोई से पककर सियासत जब बैठक तक पहुंचती है तो सियासी थाली में जातीय नुमाईंदगी परोसी साफ़ दिखती है. 2017 के विधानसभा चुनावों में भी कमोवेश यही हालात थे.

भाजपा ने पिछड़ी जातियों में यादव को छोड़कर सबको साधने के लिए उनकी जातियों के बड़े नेताओं को साध लिया. यादव वोटबैंक दिवालिया हो गया. तो मुस्लिम वोटबैंक की एक तरह से मान्यता ही ख़त्म हो गई. पिछड़ी जातियों के दो बड़े नेता भाजपा के साथ खड़े हुए. चुनाव जितवाया, चुनाव जीते, सरकार में रहे. एक दिन चले गए. राजभर वोटों की गठरी के मालिक ओमप्रकाश राजभर योगी सरकार में कैबिनेट मंत्री थे. विभाग, अधिकार, अवसर को लेकर मनमुटाव हुआ. राजभर भाजपा और सरकार को लेकर अपमानजनक टिप्पणियां करने लगे. 2019 के लोकसभा चुनावों की छाया में भाजपा और सरकार ने उनको अलविदा कह दिया. पूर्वांचल में राजभर जाति एक बड़ी संख्या में है, जिसकी चाभी ओमप्रकाश राजभर के हाथ में है. ओमप्रकाश राजभर साइकिल पर सवार हो गए हैं. और आक्रामक ढ़ंग से भाजपा की जड़ों में मट्ठा डाल रहे हैं. एक दूसरे हैवीवेट नेता हैं स्वामी प्रसाद मौर्या. पिछले चुनाव में भाजपा उनको बसपा से तोड़ लाई. मौर्या बिरादरी में मज़बूत पकड़ रखने वाले स्वामी प्रसाद मौर्या बसपा में भी एक बड़ी ताक़त थे. सियासी सौदेबाजी अपने अंज़ाम पर पहुंची और स्वामी प्रसाद हाथी से उतरकर कमल के साथ हो गए. बाक़ायदा भाजपा के सदस्य हो गए. मंत्री बने, कार्यकाल पूरा किया आज समाजवादी साइकिल पर सवार हो गए. उत्तर प्रदेश में मौर्या भी एक निर्णायक संख्या रखते हैं. 2017 के जिस सियासी बंदोबस्त से भाजपा सरकार बनाने में क़ामयाब हुई, वो बंदोबस्त विधानसभा मार्ग से उठकर विक्रमादित्य मार्ग पर समाजवादी हाज़िरी लगा रहा है.

2019 के लोकसभा चुनावों में बिछड़े राजभर को 2022 के विधानसभा चुनावों में फिर से भगवा ब्रिगेड में लाने की कोशिशें हुई. कोशिश कामयाब नहीं हुई. राजभर अखिलेश यादव से मिल गए. मऊ जनपद में शक्ति प्रदर्शन वाली भारी भरकम रैली में अखिलेश यादव और ओमप्रकाश राजभर ने बाइस की बिसात पर एक साथ रहने के लिए एक दूसरे का हाथ थाम लिया. खिसियाई भाजपाई कहते नज़र आए कि राजभर फिर से हमारे साथ आना चाहते थे, लेकिन हमने ही उनको लौटा दिया. गंगा में पानी बहा, ये बात भी बह गई. भाजपा ने दूसरे राजनीतिक दलों से नेताओं के आयात के लिए एक कमेटी बनाई है. भाजपा के प्रदेश उपाध्यक्ष दयाशंकर सिंह इस कमेटी के महत्वपूर्ण सदस्य हैं. पिछले चार पांच दिनों से दयाशंकर सिंह ओमप्रकाश राजभर को भाजपा खेमे में लाने के लिए उनके घर जाते रहे. लेकिन बात बनी नहीं. बात की भनक मीडिया को जरूर लग गई. मीडिया ने कल जब राजभर से दयाशंकर सिंह के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि दयाशंकर सिंह मेरे पार्टी से टिकट मांग रहे थे. राजभर ने बात घुमा दी.

एक सवाल ये उठता है कि जब ओमप्रकाश राजभर ने दयाशंकर सिंह पर भासपा से टिकट मांगने का आरोप लगाया तो भाजपा ने अभी तक दयाशंकर सिंह को क्यों नहीं निकाला? ज़ाहिर तौर पर दयाशंकर पार्टी के कहने पर ही राजभर के संपर्क में थे. लिहाज़ा वो भाजपा में बने हुए हैं. ओमप्रकाश राजभर ने सार्वजनिक रूप से तथ्यों के विपरीत बयान क्यों दिया, ये तो वो ही बेहतर जान रहे होंगे. लेकिन ये पूरा घटनाक्रम जरूर बताता है कि भाजपा अपनी सियासी संघर्ष में किस क़दर फंसी हुई है. अभी पिछड़ी जातियों के कुछेक और मंत्रियों के इस्तीफ़े की ख़बरें लखनऊ के सियासी गलियारे में तैर रही हैं. विधायकों के इस्तीफ़े भगवा ब्रिगेड के माथे पर सिलवटें बना रहे हैं. अभी कितनी भगदड़ मचेगी और किधर मचेगी ये तो भविष्य के गर्भ में है. लेकिन यूपी के मौसम वैज्ञानिक कहे जाने वाले स्वामी प्रसाद मौर्या ने इशारा जरूर कर दिया है. दिवालिया हो चुका वोटबैंक अब मुख्यधारा में आ चुका है. छिनी हुईं मान्यताएं भी चुपचाप अपने होने के एहसास में हैं. अभी तो यूपी में सियासत का मैटनी शो चल रहा है. नाइट शो तक पहुंचते पहुंचते देखिए क्या क्या होता है. लाज़िम है हम देखेंगे.