गंगा की रेत पर टेंट सिटी सवालों के घेरे में

170

[responsivevoice_button voice=”Hindi Female” buttontext=”इस समाचार को सुने”]

गंगा की रेत पर टेंट सिटी सवालों के घेरे में

विजय विनीत

बनारस। भारत की सांस्कृतिक राजधानी कही जाने वाली काशी में गंगा की रेत पर बसाई जा रही टेंट सिटी सवालों के घेरे में आ गई है। क्योंकि सांस्कृतिक और पौराणिक शहर को पर्यटन सिटी बनाने की कवायद बनारसियों के गले नहीं उतर रही है। लोग इस बात से भी आहत हैं कि सुबह-ए-बनारस की जगह अब लोग टेंट-ए-बनारस देखेंगे। नदी विशेषज्ञों, पर्यावरणविदों और शहर के प्रबुद्धजनों को लगता है कि टेंट सिटी का वही हाल होगा, जो दो साल पहले रेत में बनाई गई नहर का हुआ था।

फगुनहट की हवा बहेगी तो गंगा के तट पर बालू के गुबार उठेंगे। तब हजारों रुपये खर्च कर टेंट सिटी में रहने की हिम्मत भला कौन करेगा? सांस्कृतिक और पौराणिक शहर को पर्यटन सिटी बनाने की कवायद बनारसियों के गले नहीं उतर रही है। लोग इस बात से भी आहत हैं कि सुबह-ए-बनारस की जगह अब लोग टेंट-ए-बनारस देखेंगे। इससे काशी की आस्था ही नहीं, पौराणिक परंपरा भी टूटेगी।

काशी विश्वनाथ मंदिर के पूर्व महंत राजेंद्र तिवारी सरकार की नीयत पर बड़ा सवाल खड़ा करते हैं। वह कहते हैं, ”क्या काशी में जगह नहीं है? आखिर ये टेंट सिटी किसके लिए है? काशी में आने वाले हर किसी की चाहत होती है धनकुबेर बनने की और दूसरी ख्वाहिश होती है स्वर्ग में अच्छी सीट कब्जाने की। बड़ा सवाल यह है कि स्वर्ग यात्रा का वेटिंग रूम छोड़कर भला यहां कौन रुकना चाहेगा? ये जो टेंट सिटी बसाई जा रही है वो मोक्ष की लालसा लेकर काशी आने वालों के लिए नहीं, बल्कि भोग-विलास करने वालों के लिए है? ”

READ MORE- 76.8 करोड़ लोग कर रहे कुपोषण का सामना

”उत्तराखंड में गंगा नाथ दी गई हैं और अब नीचे खेल-तमाशे होंगे। गंगा क्या पापियों का पाप धोने के लिए ही हैं? वो गंगा अभी बनारस का ही बोझ नहीं ढो पा रही हैं। ऐसे में देशी-विदेशी मेहमानों का बोझ कैसे ढोएंगी? सरकार के नए प्रयोग से यह नदी को बेचारगी वाली स्थिति में पहुंच गई हैं। इतना तय है कि गंगा की विवशता विनाश का कारण बन सकती है। गंगा को पिकनिक स्पाट बनाया जाएगा तो उसकी कीमत बनारसियों को ही चुकाना पड़ेगी।”

क्या और कैसी है टेंट सिटी…?

क्या और कैसी है टेंट सिटी…?

अस्सी घाट के सामने सज रही टेंट सिटी में 15 जनवरी से सैलानियों की चहल पहल बढ़ जाएगी। सैलानियों के मनोरंजन का भी ध्यान रखा जा रहा है। इसके लिए सांस्कृतिक संध्या के साथ पैकेज घोषित करने की तैयारी चल रही है। गंगा नदी के किनारे अस्सी घाट के सामने रेत में करीब 100 हेक्टेयर में टेंट सिटी बसाई जा रही है। यहां बनाए जा रहे स्विस कॉटेज वातानुकूलित रहेंगे। रिसेप्शन एरिया, गेमिंग जोन के अलावा रेस्टोरेंट, डायनिंग एरिया, कांफ्रेंस हॉल, योग सेंटर बनाया जा रहा है। लाइब्रेरी और आर्ट गैलरी के साथ ही यहां बच्चों के लिए वाटर स्पोर्ट्स, ऊंट और घुड़सवारी का इंतजाम किया जा रहा है।

यह है तंबुओं का शहर

वीडीए (वाराणसी डेवलपमेंट अथॉरिटी) के उपाध्यक्ष अभिषेक गोयल कहते हैं, ”गंगा पार करीब 100 एकड़ में बनाई जा रही टेंट सिटी में 600 लग्‍जरी कॉटेज होंगे। इसमें मिलने वाली सुविधाएं किसी लग्‍जरी होटल से कम नहीं होंगी। सुविधाओं के आधार पर इसमें गंगा दर्शन विला, प्रीमियम टेंट, सुपर डीलक्‍स टेंट, डीलक्‍स टेंट जैसी कैटिगरी रखी गई हैं। इनका किराया भी इनकी सुविधाओं के मुताबिक पांच हजार रुपये प्रतिदिन से लेकर 30 हजार रुपये प्रतिदिन तक है।

इनकी ऑफलाइन बुकिंग वीडीए नमो घाट और रविदास पार्क में बने काउंटर से होगी। इसके अलावा अस्‍सी घाट और दशाश्‍वमेध घाट पर भी बुकिंग काउंटर की व्‍यवस्‍था की जाएगी। टेंट सिटी का सबसे महंगा कमरा गंगा दर्शन विला है। इसमें एक रात ठहरने के लिए 30 हजार रुपये खर्च करने पड़ेंगे। सबसे सस्ता कमरा एक व्यक्ति के लिए 8000 और एक ही कमरे में दो व्यक्ति के ठहरने पर 10,000 रुपये अदा करना पड़ेगा। पांच सितारा होटल जैसी सुविधाओं के साथ चार तरह के कमरे तैयार किए जा रहे हैं।”

गुजरात के अहमदाबाद की कंपनी मेसर्स प्रेवेज कम्यूनिकेशंस (इंडिया) लिमिटेड को टेंट सिटी में 400 काटेज और मेसर्स लल्लूजी एंड संस को 200 काटेज बनाने का ठेका दिया गया है। पानी, बिजली, सीवेज और साफ-सफाई और अन्य बुनियादी सुविधाएं जुटाने के लिए वाराणसी विकास प्राधिकरण (वीडीए) के नेतृत्व में नगर निगम, पर्यटन, बिजली, केंद्रीय जल आयोग, जल निगम, गंगा प्रदूषण नियंत्रण इकाई समेत 13 विभागों को जिम्मेदारी सौंपी गई है।

READ MORE-आत्मविश्वास से आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ता उत्तर प्रदेश

गंगा अब नई प्रयोगशाला

गंगा अब नई प्रयोगशाला

संकटमोचन फाउंडेशन के अध्यक्ष और आईआईटी बीएचयू के प्रोफेसर विशंभर नाथ मिश्रा काशी को प्रयोगशाला बनाए जाने से नाखुश हैं। वह मोदी सरकार और प्रशासन पर सवालिया निशान लगाते हैं। कहते हैं, ”बनारस के अफसरों ने दो साल पहले गंगा की रेत में नहर खुदवाकर सरकार का करीब 1200 लाख रुपये बर्बाद कर दिया था। उसी रेत पर अब टेंट सिटी बसाया जा रहा है। बताया जा रहा है कि प्रयागराज की तर्ज पर यहां टेंट सिटी बसाई जा रही है। प्रयागराज में सदियों से माघ मेला लगता आ रहा है। वहां टेंट में वो लोग रुकते हैं जो कल्पवास करने जाते हैं। काशी के टेंट सिटी का मॉडल तो फाइव स्टार वाला है, जहां कल्पवास की कामना लेकर शायद ही कोई जाएगा। भारी-भरकम पैसा लगाकर भला कौन तपस्या करेगा? लगता है कि काशी के आध्यात्मिक सौंदर्य को बिगाड़ने के लिए यह नया प्रयोग शुरू हो रहा है

अफसरों की नीति और नीयत पर तंज कसते हुए प्रो. मिश्र कहते हैं, ”गंगा पार रेत में एक पवित्र नदी को प्रदूषित का काम हो रहा है। यह प्रयोग गंगा के उस क्षेत्र में हो रहा है जिसे यह नदी अपने चैनल के लिए इस्तेमाल करती रही है। कुछ ही दिनों में इस टेंट सिटी के कुप्रभाव दिखाई पड़ने लगेंगे। बनारसियों को यह बात अच्छी तरह से समझ में आने लगी है कि कछुआ सेंचुरी को क्यों हटाया गया? पहले यह इलाका जलचरों के लिए सुरक्षित हुआ करता था। व्यावसायिक गतिविधियां शुरू होने पर जलचरों की मुश्किलें बढ़ जाएंगी।”

READ MORE- आत्मविश्वास से आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ता उत्तर प्रदेश

टेंट सिटी बसने से पहले ही रेत पर लगा कचरे का ढेर

”हमें लगता है कि बनारस की गंगा को अफसर पूरी तरह से बर्बाद करने में जुट गए हैं। आखिर इन्हें कौन समझाएगा कि बनारस में ज्यादातर वो लोग आते हैं जिनकी रुचि धर्म, साहित्य और इस शहर के स्थापत्य को देखने में होती है। अब यहां सुबह-ए-बनारस की जगह टेंट सिटी का दर्शन होगा। बनारस के लिए टेंट सिटी का कंसेप्ट गलत है। बनारस में अब धनाड्य लोगों के लिए अवसर पैदा किया जा रहा है, ताकि गुजरात के कुछ लोग मोटा मुनाफा कमा सकें। गौर करने की बात यह है कि बनारस में टूरिस्ट नहीं, 90 फीसदी श्रद्धालु आते हैं। टूरिस्ट तो पहाड़ों पर जाते हैं। बनारस जिस चीज के लिए प्रसिद्ध था उसका उसका एजेंडा बदलने पर आखिर सरकार क्यों उतारू है? बनारसियत को कुचलने और जिंदा शहर को मारने का कुत्सित प्रयोग आखिर कहां तक उचित है? ”

प्रो. विशंभर नाथ यह भी कहते हैं, ”बनारस गुजरात का कच्छ नहीं है जो यहां लोग पिकनिक मनाने आएंगे। गंगा की रेत में ज्यादा लोगों का मोमेंट होगा तो इस नदी का इको सिस्टम बिगड़ जाएगा और बहुत सी चीजें बदल जाएंगी। यहां कुछ भी प्रयोग इसलिए शुरू कर दिया जाता है क्योंकि इस शहर के लोग किसी को कुछ भी नहीं कहते। जाहिर है कि टेंट सिटी में जो पैसा लगाएगा वो धरम-करम नहीं करेगा, मोटा मुनाफा कमाएगा। फाइव स्टार सुविधा वाले लाउंज का निर्माण तो सिर्फ पैसे का खेल है। पहली जनवरी के पहले की तस्वीरें अखबारों में छपी हैं, जिसमें गंगा की रेत पर शराब की बोतलें और पालिथीन के ढेर मिले हैं।

जब मौज-मस्ती का सारा खेल रेत पर शुरू हो जाएगा तब हाल क्या होगा? अब तक सुबह-ए-बनारस का व्यू लोगों के मन में अंकित है। कजरौटे का थोड़ा से काजल को आंख में लगाया जाता है। अगर कोई सारा काजल अपने चेहरे पर पोत लेगा तो हाल क्या होगा? वो कुरूप हो जाएगा। आपका मुंह है जहां चाहे काजल पोत लीजिए। हमारा काम है बताना। नहीं मानेंगे, मत मानिए।”

गंगा की रेत पर साफ़-सफ़ाई,तिल-तिलकर मर रही गंगा

गंगा की रेत पर साफ़-सफ़ाई,तिल-तिलकर मर रही गंगा

पर्यावरणविद प्रो. विशंभर नाथ मिश्र की बातों पर यकीन करें तो बनारस में गंगा पहले से ही तिल-तिल कर मर रही है। करोड़ों रुपये खर्च करने के बाद भी गंगा और उसकी सहायक नदी वरुणा में सैकड़ों एमएलडी मल-जल रोजाना बह रहा है। यह हाल तब है जब स्मार्ट सिटी के मामले में काशी यूपी में दूसरे नंबर पर है। बनारस जिला प्रशासन और नगर निगम के अफसरों की कार्यप्रणाली से एनजीटी बेहद नाराज है। बनारस में सीवरेज के काम तो हुए, लेकिन असि और नगवां नाले को अभी तक टैप नहीं किया जा सका है। नतीजा, सैकड़ों एमएलडी सीवेज गंगा में गिर रहा है।

वरुणा नदी किनारे नगरीय सीमा में पहले 15 नाले गिर रहे थे, लेकिन कारिडोर बनने के बाद छह नाले बंद कर दिए गए। अब भी सेंट्रल जेल रोड नाला, सारंग तालाब नाला, अर्दली बाजार नाला, चमरौटिया नाला, खजुरी कालोनी नाला, बनारस नाला नम्बर पांच, हुकुलगंज नाला, नई बस्ती नाला और नरोखर नाला का मलजल वरुणा में गिर रहा है और वो सीधे गंगा में पहुंच रहा है

पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने 14 जून 1986 को बनारस के दशाश्वमेध घाट पर गंगा एक्शन प्लान की नींव रखी थी। इसके तहत 80 एमएलडी का एसटीपी दीनापुर में स्थापित हुआ, जिसमें अंग्रेजों के जमाने के शाही नाले को कनेक्ट किया गया। इस नाले से प्रतिदिन करीब 60 एमएलडी मलजल रोज निकलता था जो सीधे गंगा में जा रहा था। यह कार्य धीमी गति से होते हुए अपने तय समय से करीब दो साल देर से पूरा हुआ। गंगा प्रदूषण नियंत्रण इकाई के प्रोजेक्ट मैनेजर एसके बर्मन कहते हैं वरुणा और असि नदियों की फाइनल टैपिंग के लिए शासन ने 308 करोड़ रुपये की मंजूरी दी है। टेंडर प्रक्रिया पूरी करते हुए जल्द ही कुछ नालों को टैप करते हुए अवजल शोधित किया जाएगा।

गंगा की रेत पर टेंट सिटी सवालों के घेरे में

मत उछालिए अब जुमले

बनारस के वरिष्ठ पत्रकार एवं चिंतक प्रदीप कुमार कहते हैं, ”हिमालय की चोटियों से निकलने वाली गंगा बंगाल पहुंचते-पहुंचते काफी मैली और ज़हरीली होती जाती है। भले ही इसे गंगा मैया के नाम से जाना जाता हो, हकीकत ये भी है कि गंगा अपने तट पर बसे करीब 45 करोड़ लोगों के कचरे को भी ढोती है। इसके किनारे बनी फैक्ट्रियों का कचरा नदी में गिरने और हिंदू रीति रिवाज के मुताबिक इसके तटों पर अंतिम संस्कार किए जाने से नदी का पानी लगातार दूषित हो रहा है।

पीएम नरेंद्र मोदी भी मानते हैं कि गंगा की सफाई का काम उन्हें ईश्वर ने सौंपा है। आठ बरस पहले चुनाव जीतने के बाद कहा था, ”मां गंगा ने मुझे बुलाया है। वे मुझे कोई ज़िम्मेदारी सौंपना चाहती हैं। मां गंगा मदद के लिए चिल्ला रही हैं, कह रही हैं कि उन्हें उम्मीद है कि उनका एक बेटा मुझे गंदगी से बाहर निकालेगा। यह संभव है कि ईश्वर ने तय किया हो कि मुझे मां गंगा की सेवा करनी है। पीएम ने बातें तो बहुत बड़ी-बड़ी की, लेकिन गंदगी अब भी जगह-जगह फैली हुई है। ”

”लोग सोचते हैं कि गंगा मेरे पाप धोएगी और सब चीज़ों का ख़्याल रखेगी। वे भूल जाते हैं कि गंगा आपके पापों का ख़्याल रखेगी, लेकिन आपके कचरे का नहीं, आपके प्रदूषण का नहीं। साल 1986 से अब तक गंगा निर्मलीकरण के नाम पर 2,500 करोड़ रुपये से ज्यादा ख़र्च किए जा चुके हैं। गंगा की सफ़ाई में केवल पैसा बहाने से स्थिति नहीं बदलेगी। गंगा नदी मनुष्य के शरीर की तरह है। इसका ख़ून कम कर इसे विष पिलाया जा रहा है। पिछले 30 साल में कई सरकारें आईं और गईं। लोग गंगा की बेहतरी के लिए मांग लगातार उठाते रहे, लेकिन इस पवित्र नदी के मैली होने की कहानी आज भी वही है।यह स्थिति तब है जब योजनाओं और पैसों की कभी नहीं रही।

दुर्योग यह है कि परियोजनाओं को अमल में लाने की इच्छाशक्ति नहीं दिखती है। मोदी सरकार की कथनी-करनी का अंतर तो अब साफ-साफ दिख रहा है। बड़े दुर्भाग्य की बात है कि गंगा की रेत पर टेंट सिटी बसाकर इस पवित्र नदी को और ज्यादा अपवित्र करने की तैयारी है। आप खुद को बनारसी बताते हैं और मन को लुभाने वाले जुमले भी उछालते हैं, लेकिन काम ठीक उसके विपरीत करते हैं।”

टेंट बनाने में जुटी कंपनी

प्रदीप कहते हैं, ”गंगा के घाटों पर चलते हुए आपको एहसास होगा कि घाट के एक ओर तो गंगा नदी है तो दूसरी ओर नदी की ही तरह एक विशाल जनसमूह है। इन घाटों पर दिन-रात आपको दाह-संस्कार होते हुए दिख जाएंगे। हिंदू मान्यता के अनुसार गंगा के किनारे अंतिम संस्कार करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है और मृत्य और पुनर्जन्म के चक्र से छुटकारा मिल जाता है। माना जाता है कि हर साल यहां गंगा के घाट पर 32,000 शव जलाए जाते हैं और 300 टन तक आधी जली लाशें गंगा में बहा दी जाती हैं।

लेकिन गंगा को प्रदूषित करने में इसका योगदान उतना बड़ा नहीं है, जितना बड़ा योगदान लोगों की रोजमर्रा की ज़िंदगी के वे क्रियाकलाप हैं जिनके कारण गंगा में गंदगी बहाई जाती है। एक अनुमान के मुताबिक़ गंगा बेसिन का 80 फ़ीसदी गंदा पानी साफ नहीं किया जाता है। यही वजह है कि गंगा में मल से होने वाले प्रदूषण का स्तर इतना अधिक है। बनारस में कभी-कभी तो नहाने के लिए तय पानी के सुरक्षित स्तर के मुकाबले में प्रूदषण का स्तर 150 गुना ख़राब होता है। लेकिन इसकी परवाह किए बिना बड़ी संख्या में लोग इसमें डुबकी लगाते हैं। यह सबसे बड़ी वजह है जो गंगा को साफ रखने के लिए हमें बाध्य करती है।”

READ MORE- पृथ्वी हर 2 साल में खो रही है एक संभावित औषधि

काशी हिंदू विश्वविद्यालय में महामना मालवीय शोध संस्थान के अध्यक्ष और नदी वैज्ञानिक प्रो. बीडी त्रिपाठी ‘न्यूज़क्लिक’ से कहते हैं, ”काशी उत्तरवाहिनी गंगा के अर्धचंद्राकर स्वरूप के एक किनारे बसी है। इसके स्वरूप से छेड़छाड़ ठीक नहीं है। गंगा अपनी दाहिनी तरफ बालू जमा करती है, जिसके कारण नदी के जलचर उस क्षेत्र को अपना मानते हैं। टेंट सिटी बसने के कारण उस क्षेत्र में हलचल बढ़ेगी इससे जलचरों के लिए नई मुसीबत खड़ा होगी। मौजूदा समय में बनारस प्रशासन शहर के मलजल को गंगा में गिरने से रोक पाने में असफल हैं। ऐसे में उस पार बिना लिक्विड वेस्ट और सॉलिड वेस्ट का ठोस इंतजाम किए बगैर टेंट सिटी बसाना गंगा के जीवन से खिलवाड़ जैसा है।”

ठीक नहीं विकास का ‘हप्पू मॉडल’

एक्टिविस्ट धनंजय त्रिपाठी कहते हैं, ”टेंट सिटी बसने पर नशे का कारोबार और सेक्सुअल गतिविधियां तेज हो जाएंगी। साथ ही पेइंग गेस्ट हाउस चलाने और इडली, साभर, डोसा, चाय, पकौड़ी बेचकर गुजारा करने वाले मारे जाएंगे। मुनाफा कूटेंगी गुजरात की कंपनियां। असल सवाल यह है कि मौजूदा समय में जिन मजदूरों को गंगा की रेत पर काटेज बनाने के लिए तैनात किया गया है उनका मल-जल कहां जा रहा है? प्रशासन ने उनके लिए क्या इंतजाम किया है? ”

बनारस की यह है काली नदी असि, जिसके गंगा में जाती रहती है भीषण गंदगी

बनारस की यह है काली नदी असि, जिसके गंगा में जाती रहती है भीषण गंदगी

”इलाहाबाद में आस्था के लिए टेंट सिटी बनाई जाती है, दारू पीने-पिलाने और अय्याशी करने के लिए नहीं। लगता है कि इस शहर को ‘उड़ता बनारस’ बनाने की कोशिश की जा रही है। टेंट सिटी से गंगा की रेत में कूड़ा, प्लास्टिक फैलेगा और रेत में दबता चला जाएगा। मेरा मानना है कि न रेत का स्वरूप बदलिए और न नदी से छेड़छाड़ कीजिए। टेंट सिटी बसेगी तो गंगा के चैनल डिस्टर्ब होंगे।

बनारस में विकास का हप्पू मॉडल बनारसियों की जिंदगी नहीं बदल सकेगी। शहर में पैर रखने की जगह नहीं है। आखिर यह मोदी-योगी सरकार यहां कितनी भीड़ लेकर आएगी। काशी में न तो पार्किंग है, न ही कायदे का शौचालय। पीने का साफ पानी भी मुफ्त में नहीं मिलता। विकास का यह हप्पू मॉडल बनारसियों को समझ में नहीं आ रह है। कुछ लोग इतिहास पुरुष बनने की सनक पाले बैठे हैं।”

”गंगा के बालू में जो नहर निकाली गई थी उससे रेत का पैटर्न बदल गया है। बालू की मोटाई बढ़ गई है। प्रशासन को यह बताना चाहिए कि टेंट सिटी बना रहे मजदूरों का मल-जल कहां गिराया जा रहा है? गंगा नदी है या फिर गटरगंगा? कुछ ही बरस पहले विश्वनाथ कारिडोर बनाने आई गुजरात की कंपनी ने ललिता घाट के समाने प्लेटफार्म बनाने में नदी का स्वरूप बिगाड़ दिया। नतीजा आरपी घाट की तरफ पानी का वेग कम हो गया। नदी के चैनल के साथ जो छेड़छाड़ किया गया है उसका असर आने वाले कुछ सालों में दिखने लगेगा।”

बीएचयू के प्रोफेसर डॉ. ओम शंकर कहते हैं, ”टेंट सिटी नौटंकी है। इसकी जगह हेल्थ सिटी और एजुकेशन सिटी बनाई जानी चाहिए। गंगा पहले से ही प्रदूषित है। टेंट सिटी बसा रहे हैं तो सबका रजिस्ट्रेशन कीजिए। रेवेन्यू सरकार के खाते में जाना चाहिए। बनारस में धर्म से ज्यादा स्वास्थ्य की नगरी है। शिक्षा और स्वास्थ की नगरी को पर्यटन की नगरी में क्यों बदला जा रहा है? नए प्रयोग से कबीर, रैदास और बुद्ध की परंपरा टूट रही है। भारत कुछ पूंजीपतियों का देश बन गया है। दो-चार लोग अमीर और बाकी सभी गरीब हो रहे हैं।”

गंगा के अविरलता के लिए लगातार जन-जागरूकता अभियान चला रहे एक्टिविस्ट वल्लभ पांडेय कहते हैं, ”टेंट सिटी कुछ लोगों के लिए इवेंट है। इसे अभी पूरी तरह बसाया भी नहीं गया, इससे पहले देश-दुनिया में डंका पीटा जाने लगा। जल्द ही दिल्ली-लखनऊ से गोदी मीडिया वाले भोपू लेकर आएंगे और इसकी उपलब्धियों का डंका पीटना शुरू कर देंगे। जग-जाहिर है कि कुछ खास लोगों को मुनाफा कमवाने के लिए गुजरात की कंपनी बुलाई गई है। टेंट सिटी सिर्फ सुविधाभोगी के लिए होगी। धनाड्यों और अय्याश लोगों के लिए यहां नई परंपरा शुरू की जा रही है। हमें लगता है कि इनका खेल एक महीने से ज्यादा चलने वाली नहीं है। फगुनहट चलेगी तो रेत का गुबार उठेगा तब वहां कोई नहीं टिक पाएगा। रेत में नहर बनाने का हश्र हर कोई देख चुका है। टैक्सपेयर के करोड़ों रुपये अबकी टेंट सिटी में डूबेंगे।”

एक्टिविस्ट बल्लभ यह भी कहते हैं, ”बड़ा सवाल यह है कि टेंट सिटी में लोग आखिर क्या देखने के लिए रेत पर रुकेंगे? लग्जरी काटेज की बुकिंग कराने वाले वो ढाई-तीन सौ लोग कौन हैं? इस समूची योजना पर सरकार का कितना पैसा लग रहा है और उससे कितना प्रॉफिट होने वाला है? क्या शहर के होटलों में जगह नहीं बची है, जो रेत में नया शहर बसाया जा रहा है? आखिर यह टेंट वाला शहर किसके लिए है? गंगा घाटों पर अनगिनत मंदिर और मठ हैं, जिसके ठीक समाने अधर्म होगा।

टेंट कंपनी जब जाएगी तो नदी की दुर्गति करके। दारू की बोतलें, पालिथीन, मल-जल बाद में गंगा में समा जाएंगे। सालों से जुमला उछालने वाले इस शहर को नई प्रयोगशाला बनाने और नई परंपरा गढ़ने लगे हैं, फिर भी बनारस के लोग खामोश हैं। होटल और गाइड एसोसिएशन के लोगों के जुबां खामोश क्यों हैं? क्या होटलों में 25-30 हजार वाले कमरे नहीं हैं? विद्वत परिषद और संतों की ऐसी क्या मजबूरी है जो वो ये सवाल नहीं उठा रहे हैं? ”

[/Responsivevoice]

(बनारस स्थित लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)