अमीरी की बेलगाम सीढ़ी आख़िर दवा क्या….?

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जावेद अनीस

ऐसा नहीं है कि इस देश में भूख और कुपोषण की समस्या से निपटने के लिये संसाधनों या सामर्थ की कमी है दरअसल इस देश की किसी भी सरकार ने अभी तक भूख और कुपोषण को जड़ से खत्म करने के लक्ष्य के बारे में सोचा तक नहीं है हालांकि हमारे देश और समाज के लिये यह प्रमुख मुद्दा होना चाहिए लेकिन ऐसा बिलकुल नहीं है। भारतीय राजनीति में भूख और कुपोषण एक महत्वहीन विषय हैं, समाज के स्तर पर भी यही रुख है। हमारी सरकारें इसे खुले रूप में स्वीकार करने को तैयार नहीं है तभी तो इस साल के ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत की रैंकिग को लेकर केंद्र सरकार ने आलोचना करते हुये इसे अवैज्ञानिक बताया है। केंद्र सरकार के महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने सूचकांक का विरोध करते हुए कहा है कि ‘यह जानकर हैरानी हुई कि ग्लोबल हंगर रिपोर्ट 2021 ने कुपोषित आबादी को लेकर किए गए एफएओ के अनुमान के आधार पर भारत की रैंक कम कर दी है, जो जमीनी हकीकत-तथ्यों से परे है।’

वैश्विक सूचकांक 2021 को देखने से पता चलता है कि भारत की स्थिति बद से बदतर होती जा रही है।विगत 7 वर्षों से भारत इस सूची में लगातार फिसलता गया है। साल 2021 में भारत को कुल 116 देशों की सूची में 101वें में स्थान पर रखा गया है जिसका मतलब है कि वैश्विक भूख सूचकांक में भारत से पीछे दुनिया के केवल 15 सबसे पिछड़े देश ही रह गए हैं साथ ही भारत में भूख के अस्तर को खतरनाक बताते हुए भूख की गंभीर श्रेणी में शामिल 31 देशों में भी रखा गया है। यही नहीं भारत की तुलना में छोटी अर्थव्यवस्था और कमजोर माने जाने वाले नेपाल 76 मायमार 71 और पाकिस्तान 92 जैसे पड़ोसी देश भी इस मामले में हम से बेहतर स्थिति में हैं।जिसका अर्थ है कि इन देशों ने अपनी नागरिक को भोजन जैसी बुनियादी जरूरत उपलब्ध कराने के मामले में बेहतर काम किया है। वैश्विक भूख के सूचकांक की गणना चार संकेतों के आधार पर की जाती है जिसमें अल्प पोषण हिस्सों में गंभीर कुपोषण बाल मृत्यु दर और चाइल्ड स्टंटिंग शामिल है।वर्ष 2014 में मोदी सरकार के आने के बाद इस सूचकांक में भारत की रैंकिंग लगातार गिरती जा रही है।2014 के रैंकिंग में भारत 55वें पायदान पर था इसके बाद से लगातार गिरावट का सिलसिला जारी है।

लेकिन इसके कुछ अपवाद भी रहे हैं, साल 2012 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने सावर्जनिक रूप से स्वीकार किया था कि तेजी से प्रगति कर रहे भारत के लिए यह राष्ट्रीय शर्म की बात है कि उसके 42 फीसदी बच्चों का वजन सामान्य से कम है, साथ ही उन्होंने यह भी स्वीकार किया था कि कुपोषण जैसी बड़ी और बुनियादी समस्या से निपटने के लिए केवल एकीकृत बाल विकास योजनाओं (आईसीडीएस) पर निर्भर नहीं रहा जा सकता। इसके बाद यूपीए सरकार द्वारा वर्ष 2013 में राष्ट्रीय खाद्य-सुरक्षा कानून लाया गया। इस कानून की अहमियत इसलिये है कि स्वतंत्र भारत के इतिहास में यह पहला कानून है जिसमें भोजन को एक अधिकार के रूप में माना गया है। यह कानून 2011 की जनगणना के आधार पर देश की 67 फीसदी आबादी (75 फीसदी ग्रामीण और 50 फीसदी शहरी) को कवर करता है। राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा क़ानून के तहत मुख्य रूप से 4 हकदारियों की बात की गयी है जो योजनाओं के रूप में पहले से ही क्रियान्वयित हैं लेकिन अब एनएफएसए के अंतर्गत आने से इन्हें कानूनी हक का दर्जा प्राप्त हो गया है। इन चार हकदारियों में लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस), एकीकृत बाल विकास सेवायें (आईसीडीएस), मध्यान भोजन (पीडीएस) और मातृत्व लाभ शामिल हैं। लेकिन 2014 में सरकार बदल जाने के बाद इसे लागू करने में पर्याप्त इच्छा-शक्ति और उत्साह नहीं दिखाया गया। केंद्र और राज्य सरकारों के देश के अरबों लोगों के पोषण सुरक्षा जैसी बुनियादी जरूरत से जुड़े कानून को लेकर जो प्रतिबद्धता दिखायी जानी चाहिये थी उसका अभाव स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है और उनके रवैये से लगता है कि वो इसे एक बोझ की तरह देश रहे हैं। जुलाई 2017 में सरकारों के इसी ऐटीट्यूड को लेकर देश के सर्वोच्य न्यायालय द्वारा भी गंभीर टिप्पणी की जा चुकी है जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि यह बहुत क्षुब्ध करने वाली बात है कि नागरिकों के फायदे के लिए संसद की ओर से पारित इस कानून को ठंडे बस्ते में रख दिया गया है।

भारत जैसे मुल्क में एक तरफ तो भूख से बेहाल लोगों की संख्या बढ़ रही है तो दूसरी तरफ अरबपतियों की संख्या और दौलत भी बेलगाम तेजी से बढ़ती जा रही है। जनवरी 2021 में ऑक्सफैम द्वारा जारी की गयी रिपोर्ट “द इनइक्वैलिटी वायरस” बताती है कि किस तरह से भारत के लोगों पर महामारी के साथ आर्थिक असमानता के वायरस की मार पड़ी है।रिपोर्ट के अनुसार कोविड लॉकडाउन के दौरान भारत के अरबपतियों की संपत्ति में 35 फीसदी से ज्यादा की बढ़ोतरी हुई है वहीँ दूसरी तरफ कोविड के चलते देश के 84 फीसदी परिवारों को आर्थिक तंगी से गुजरना पड़ा है।रिपोर्ट बताती है कि महामारी के दौरान मुकेश अंबानी को एक घंटे में जितनी आमदनी हुई, उतनी कमाई करने में एक अकुशल मजदूर को दस हजार साल लग जाएंगे।यही नहीं भारत अरबपतियों की संपत्ति के मामले में अमेरिका, चीन, जर्मनी, रूस और फ्रांस के बाद छठे स्थान पर पहुंच गया है। देश में धनवानों को लेकर जारी की जाने वाली आईआईएफएल वेल्थ हुरुन इंडिया रिच लिस्ट 2021 के अनुसार पिछले एक दशक के दौरान भारत में अरबपतियों की संख्या में दस गुना की बढ़ोतरी हुयी है।2001 में देश में केवल 100 अरबपति थे जबकि 2021 में इनकी संख्या 1,007 तक पहुंच गई है।

यह भी समझाना जरूरी है कि भारत में भूख और कुपोषण की समस्या को देखते हुये खाद्य सुरक्षा अधिनियम 2013 एक सीमित हल पेश करता ही है, उपरोक्त चारों हकदारियां खाद्य असुरक्षा की व्यापकता को पूरी तरह से संबोधित करने के लिये नाकाफी हैं और ये भूख और कुपोषण के मूल कारणों का हल पेश नही करती हैं। इसलिये हंगर इंडेक्स में भारत के साल दर साल लगातार पिछड़ते चले जाने के बाद आज पहली जरूरत है कि इसके लिये चलायी योजनाएं की समीक्षा की जाये और इनके बुनियादी कारणों की पहचान करते हुये इस दिशा में ठोस पहलकदमी हो, जिससे आर्थिक असमानता कम हो और सामाजिक सुरक्षा का दायरा बढ़े। इसके लिए सरकार की तरफ से बिना किसी बहाने के जरूरी निवेश किया जाये ताकि देश में आर्थिक विकास के साथ–साथ मानव विकास भी हो सके। लेकिन इस दिशा में सबसे पहली जरूरत है देश के गैंगस्टर पूंजीपतियों पर ‘उच्च संपत्ति कर’ लगाया जाये जो सिर्फ सामाजिक सुरक्षा और मानव विकास की दिशा में व्यय किया जाये।