कबीरदास का आडंबरों पर कडा़ प्रहार-विनोद यादव

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विनोद यादव
रामराज्य में प्रोफेसर लक्ष्मण यादव हिटलरशाही सत्ता भेदी बाण से आहत

काशी के घाट पर लेटे कबीर से बने कबीरदास का कुरीतियों एंव आडंबरों पर कडा़ प्रहार आज भी प्रसांगिक – विनोद यादव

कबीर दास की जयंती 4 जून को कबीरपंथी विचारधारा को मानने वाले ज्यादातर लोग धूमधाम से मना रहें हैं वहीं अम्बेडकर ,पेरियार ,फूले ,नायकर के साथ संविधान पसंद लोग भी बाबा कबीर दास की जयंती मना रहें ऐसे लोग जो पोगापंथ में भरोसा नहीं करते खैर कबीर दास एक प्रसिद्ध कवि और महान समाज सुधारक थें । जिनके दोहे आज भी प्रसांगिक हैं।

अष्ट कमल का चर्खा बना है पांच तत्व की तूनीनौ दस मास बुनन में लागे, तब बन घर आई चदरियाझीनी रे झीनी-चदरिया राम रंग भीनी चदरिया। —बाबा कबीर दास निर्गुण ब्रह्म की बात करते हुए कहते हैं, ‘निर्गुण पंथ निराला साधो’ दूसरी ओर मानव देह रूप चादर के ध्रुव, प्रह्लाद सुदामा ने ओढी सुकदेव ने निर्मल किन्हीं कह कर सगुण साकार ब्रह्म की ही बात करते हैं। क्योंकि ध्रुव प्रह्लाद सुदामा और सुकदेव आदि संत श्रीमद्भागवत के चरित्र हैं। यदि कबीर केवल निर्गुण की ही बात करने वाले संत होते तो इन भक्तों को अपनी रचनाओं में कदापि स्थान नहीं देते। वस्तुतः कबीर, रूढ़िवादी, परंपरा के धुर विरोधी और मानव मात्र की उद्धार की सरल रीति बताने वाले संत कवि थें ऐसे महान संत जो मानवीय संवेदनाओं एंव वैमनस्यता तथा पाखंडवाद को बढ़ावा देने वाले लोग थें हर उस व्यक्ति के खिलाफ थें जो इन्सान को इन्सानों से ही लडा़ना चाहते थें ।

बाबा कबीर दास आज भी युगीन प्रसांगिकता के दौर में हैं इसीलिए धर्मिक कट्टरता वाले लोगों की आंखों में सदा से ही चुभते थें और चूभते रहेगें । आज के इस वैज्ञानिक ,मानवतावादी एंव तार्किक युग में युगीन बाबा कबीर दास और भी प्रसांगिक हैं और आज के युवाओं को बाबा कबीर दास को आत्मसात करते हुए गहनता के साथ शोध की तरफ रुख करने की जरूरत हैं । वहीं बाबा कबीर दास सांप्रदायिक विद्वेष में जल रहे तत्कालीन समाज को तब सावधान किया तथा ईश्वर प्राप्ति के मार्ग में चल रही वर्जनाओं और रूढ़ियों पर जबर्दस्त प्रहार किया। हिंदू और मुसलमान दोनों की आंखें खोलते हुए कबीर कहते हैं- हिंदू मुए राम कहें मुसलमान खुदाय, कह कबीर हरि दुहि तें कदै न जाय। क्योंकि राम और खुदा केवल वाणी की रटन का विषय नहीं अपितु अंतरात्मा में स्थित परमात्मा की आराधना साधना का केंद्र बिंदु है।

धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्र्कि भारत के लिए हमें आदर्श समाज की रूपरेखा कबीर के संदशों में मिलती है। हिन्दू समाज द्वारा बहिष्कृत तथा मुस्लिम समाज द्वारा तिरस्कृत कबीर ने ईश्वरीय एकता की बात कही। उन्होंने धर्म के नाम पर भेदभाव तथा ईश्वर के नाम पर लडाई का ताकिर्क खण्डन किया। कबीर के राम निर्गुण एवं निराकार ईश्वर थे। उन्होंने उसे सबका प्रभु बनाया तथा मानव धर्म की प्रतिष्ठा की। उन्होंने आस्तिकों के ईश्वर, ईश्वरीय ग्रंथ, उपासना स्थल तथा अनुयायियों के नाम पर विभेद को नकारा तथा धार्मिक समन्वय की अवधारणा प्रतिपादित की।आज के धार्मिक वैमनस्य के वातावरण में कबीर के विचार प्रासंगिक हैं बाबा कबीर दास अपने समय के क्रान्तिकारी प्रवक्ता थे। उन्होंने आडम्बरों, कुरीतियों, जडता, मूढता एवं अंधविश्वासों का तर्कपूर्ण खण्डन किया। कबीर का अपने युग के प्रति यथार्थ बोध इतना था कि उन्होंने हर एक परम्परा, रूढ, कुरीति तथा पाखण्ड को यथार्थ के धरातल पर खारिज किया। अबुलफजल ने आइने अकबरी में लिखा है कि ‘‘कबीर ने समाज के सडे-गले रीति रिवाजों को नकार दिया।

कबीरदास का आडंबरों पर कडा़ प्रहार-विनोद यादव

कबीर ने समाज सुधार के लिए कोडे खाए तो व्यंग्य तथा हँसी-ठिठौली द्वारा भी जनमानस में सुधार के प्रति सोच विकसित की।’’ उन्होंने आलोचना के साथ सृजन की रूपरेखा रखी। कबीर अराजकता, सामन्तवाद तथा उथल-पुथल के दौर में क्रान्तिकारी स्वप्नकार हैं। वे स्वभाव से संत थे, लेकिन प्रकृति से उपदेशक। उन्होंने अंधविश्वासों का उपहास कर ठीक निशाने पर चोट पहुँचाई। उन्होंने मूर्तिपूजा, तीर्थयात्र, अवतारवाद एवं कर्मकाण्डों का विरोध किया तथा ईश्वर और व्यक्ति के बीच किसी भी मध्यस्थ को अस्वीकार किया। उन्होंने हर रूढ को खारिज किया जो मानव-मानव में भेद कराती थी।बाबा कबीर दास जी का जीवन सदैव उन लोगों के लिए प्रेरणा का स्रोत बना रहेगा जो समाज को रूढ़ियों की बेड़ियों से मुक्त करना चाहते हैं। आज भी हाशिए पर रहने वाला बहुतायत समाज कबीर पंथ पर ही भरोसा करता हैं वाह्य आडंबर एंव पोगापंथ को दरकिनार कर हमें जाति नहीं जमात की तरफ रुख करने की जरुरत हैं तभी कुछ परिवर्तन हो सकता हैं ।

आज के राजनैतिक राम और कबीर के राम में बहुत अंतर हो गया हैं हमें कबीर के उस राम को याद करने की जरूरत हैं जिन्होंने बड़ी शालीनता से विनम्र भाव से अपनी आलोचनाओं में जिक्र किया था इसलिए कहतें हैं आज भी कबीर प्रसांगिक हैं और रहेगें , बाबा कबीर दास मानते थें कि यदि कोई प्रेम या प्यार के केवल ढाई अक्षर ही अच्छी तरह पढ़ ले, अर्थात प्यार का वास्तविक रूप पहचान ले तो वही सच्चा ज्ञानी होगा लेकिन आज प्रेम को राजनीति की भेंट चढ़ा दिया गया हैं । प्रेम कम धार्मिक कट्टरता ज्यादा दिखाई दे रहा हैं । बाबा कबीर दास युगीन कवि थे। उनका व्यक्तित्व, उनकी वाणी युगीन परिस्थितियों की देन है। कबीर ने अपने वर्तमान को ही नहीं भोगा बल्कि भविष्य की चिरंतर समस्याओं को भी पहचाना और उसका अवलोकन किया।उस दौर में बाबा कबीर दास का समाज ही नहीं परन्तु जातिए भावनाओं को बढ़ावा देने वाले सामंतवादी एंव ब्राह्मण वादी ताकतों ने जात-पांत, छुआछूत, धार्मिक पाखंड, मिथ्याडंबरों, रुढ़ियों, अंधविश्वासों, हिन्दू-मुस्लिम वैमनष्य, शोषित वंचित पीडि़त तबकों का शोषण-उत्पीड़न आदि से त्रस्त तथा पथभ्रष्ट था।

समाज के इस पतन में धर्म, धर्मशास्त्रों तथा धर्म के ठेकेदारों की अहम भूमिका थी और उन्होंने इसको बाखूबी बढ़ाया भी , बाबा कबीर दास ने समय की नब्ज को टटोला और पहचाना तथा समाज के मार्गदर्शन हेतु एक बड़े संघर्ष एवं परिवर्तन की आवश्यकता महसूस की। तत्कालीन विकृतियों और विसंगतियों के खिलाफ लड़ने की अथक दृढ़ता एवं सत्य की साधना का अदम्य साहस उन्हें जीवनानुभवों से मिला। कबीर दास जी ने जिन विषमताओं के खिलाफ संघर्ष किया ओ आज भी जीवंत हैं छुवाछुत कम हुई न जातिए भेदभाव न धार्मिक कट्टरता।खैर कबीरदास का वैचारिक आंदोलन आज भी वर्ग-विहीन समाज के निर्माण में एंव मानवता की बहाली के साथ प्रेम व कौमी एकता की मिसाल के लिए हिन्दू-मुस्लिम सौहार्द , आडंबरहीन भक्ति तथा नैतिकता के निर्माण के लिए प्रासंगिक है ।