आख़िर कब बहुरेंगे मजदूरों के दिन-विनोद यादव

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आख़िर कब बहुरेंगे मजदूरों के दिन-विनोद यादव
आख़िर कब बहुरेंगे मजदूरों के दिन-विनोद यादव

कब बहुरेंगे मजदूरों के हालात आज भी ज्यों की त्यों।मजदूर एक ऐसा शब्द है जिसके बोलने में ही मजबूरी झलकती है। सबसे अधिक मेहनत करने वाला मजदूर आज भी सबसे अधिक बदहाल स्थिति में है। दुनिया में एक भी ऐसा देश नहीं है जहां मजदूरों की स्थिति में सुधार हो पाया है। आख़िर कब बहुरेंगे मजदूरों के दिन

मजदूर दिवस दुनिया के सभी कामगारों श्रमिकों को समर्पित होता हैं सकारात्मक सुरक्षा और स्वास्थ्य संस्कृति के निर्माण को मिलकर कार्य करने की थीम के साथ श्रमिक दिवस मनाने में हम भलें मशगूल हो लेकिन कोराना काल के बाद सबसे ज्यादा खस्ता हालात मजदूरों की ही हुई हैं । लोग आए दिन मन की बात भलें करते हो लेकिन कमेरा समाज के लिए कभी काम की बात नहीं की गयी । देश में पुरानी धरोहर से लेकर वर्तमान में आलीशान महलों में इन्हीं मजदूरों के खून पशीने लगें हैं लेकिन इनकी सुध लेने को कोई तैयार नहीं ,आज भलें मजदूर दिवस है, ऐसे में फिर बड़े राजनीतिक मंचों से योजनाओं के साथ इनके लिए कई बड़ी बातें होगी, लेकिन पांच साल सरकार को भलें बीत जाए लेकिन इनकी सुध कोई नहीं लेता। शासन स्तर पर श्रमिकों से जुड़े मामलों के लिए श्रमिक विभाग बनें तो हैं, लेकिन श्रमिकों की जानकारी और योजनाओं के लिए वह अन्य विभागों पर निर्भर है।केवल उन्हें मनरेगा की लाठी पकड़ा दी गयी हैं । आज पूरे देश में विकास का ढांचा खड़ा करने वाले मजदूरों को राहत देने के लिए भले ही सरकारी स्तर पर तमाम योजनाएं चलाई जा रही हों, लेकिन आज भी ऐसे असंगठित मजदूरों की बड़ी तादाद है जो हर रोज बाजार में खुद को बिकने के लिए तैयार नजर आते हैं उनके नाम पर जगह जगह लेबर चौरहे चिन्हित हैं और लोगों को वहीं से कामकाजी मजदूर वर्ग आसानी से मिल जाते हैं ।

विनोद यादव
विनोद यादव

देश में आज सबसे ज्यादा कोई प्रताड़ित व उपेक्षित है तो वो मजदूर वर्ग है। मजदूरो की सुनने वाला देश में कोई नहीं हैं। कारखानो में काम करने वाले मजदूरो पर हर वक्त इस बात की तलवार लटकती रहती है कि ना जाने कब मालिक उनकी छटनी कर काम से हटा दे। कारखानो में कार्यरत मजदूरों से निर्धारित समय से अधिक काम लिया जाता है विरोध करने पर काम से हटाने की धमकी दी जाती है। मजबूरी में मजदूर कारखाने के मालिक की शर्तों पर काम करने को मजबूर होता है। कारखानो में श्रम विभाग के मापदण्डो के अनुसार किसी भी तरह की कोई सुविधायें नहीं दी जाती है।

मजदूरों के लिए सरकारों ने आयोग से लेकर अनेक योजनाएं बनाई, लेकिन मजदूर आज भी वहीं के वहीं है। समय के साथ सबकुछ बदला लेकिन नहीं बदले तो मजदूरों के हालात। वर्षों बाद भी मजदूर वर्ग आज भी उसी पुराने ढर्रे पर अपना जीवन यापन करने को मजबूर है दिन भर रिक्शा चलाएगें ईट गारा करेगें और शाम को रोड़ से सटे चद्दर बिछाकर सो जाएगें शायद यह सबसे ज्यादा नजारा कानपुर में देखने को मिलता भी हैं। योजनाएं तो ढेरों बनी, दावें भी मजदूरों को रिझाने के लिए खूब हुए, लेकिन सिर्फ मजदूरों की संख्या बढ़ी, हालात अभी भी वहीं के वहीं है।शायद श्रमिक कार्ड तो बने लेकिन आकडे़ सरकार ने बताए नहीं न ही रोजगार की व्यवस्था की। आज मजदूर वर्ग परिवार को पालने के लिए काम की तलाश में शहरों में तो जाता हैं लेकिन उसका वहां भी शोषण होता हैं कम तनख्वाह मिलने की वजह से ओवरटाइम करके जदाकदा गुजरबसर करता हैं मजदूरों के दम पर सियासत में हुकार भरने वाले लोगों के खादी के कुरते प्रतिदिन बदल ही जाते हैं मगर मजदूर के तन पर पड़ी बनियान में भी बीसों छेद देखने को मिल जाते हैं यही सच्चाई हैं जो हमने पिछलें कई सालों से कानपुर, इलाहाबाद,लखनऊ,वराणसी,आगरा,गाजियाबाद और दिल्ली जैसे शहरों में देखा हैं। मजदूरों की शायद यहीं सोच हमें नतमस्तक भी करती हैं कि खून पसीने की जो मिलेगी तो खाएंगें नहीं तो यारों हम भूखे ही सो जाएंगे। मेरा मानना हैं आज भी मजदूरों के हालत नहीं बदले हैं।

आख़िर कब बहुरेंगे मजदूरों के दिन-विनोद यादव

शायद कोरोना महामारी की मार सबसे ज्यादा मजदूर वर्ग पर पड़ी है। इस कारण देश का मजदूर सबसे ज्यादा बेहाल हो गया ।हर साल मई को अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस (Labour Day) के रुप में मनाया जाता है। इसे श्रम दिवस, श्रमिक दिवस या मई दिवस भी कहा जाता है। मजदूर दिवस के दिन इनके हक और समाज में इनकी भागीदारी पर बात की जाती है। मेरा मानना हैं कि मजदूरों के हक और अधिकार के लिए सड़कों पर उतरकर जबतक आवाज नहीं उठाई जाती है। तबतक ये दिवस सोशलमीडिया ,फेसबुक ,वाट्सएप ,ट्वीटर ,और समाचार पत्रों में सिर्फ एक खबर के रुप में भले मना ले जान ले उसका इस कमेरा समाज को न कोई सीधा लाभ मिलने वाला हैं न ही कोई चर्चा।आज तो राजनैतिक दलों मजदूरों के हक की बात सिर्फ चुनावी घोषणा पत्र तक सीमित रखती हैं और देश के प्रमुख समाचार टीबी चैनलों ने कभी इनकी सुध तक लेनी मुनासिब नहीं समझें। शायद हमनें एक समय पर ऐसा मंजर भी देखा था जो हिंदुस्तान की सड़कों पर उमड़ पड़े उस हुजूम के दर्द के साथ जिन्हें भूख शहर लाई थी और जिन्हें वही भूख अब वापस घर ले जा रही थी ।

130 करोड़ की आबादी वाले हमारे देश के किसी भी राज्य, किसी भी हाईवे, किसी भी सड़क से गुज़र जाइए. एक ही तस्वीर दिखाई देगी. तस्वीर बिलखते मासूम भूखे चेहरों की. तस्वीर जवान पीठ पर सवार बूढ़ी भूख की. तस्वीर घर पहुंचने के लिए बैल की जगह खुद को जोत देने की. तस्वीर एड़ियों के फट जाने की, घिस जाने की,छिल जाने की जल जाने की, ईट भट्ट पर काम करने वालों की , इस दुनिया में सबसे ज़्यादा इंतज़ार अगर किसी का होता है, तो वो भोजन है. इस दुनिया में जहां भी जिस शक्ल में भी ज़िंदगी नज़र आती है, उसका पहला इंतज़ार होता है खाना. इंसानों में इस खाने को कहते हैं रोटी. रोटी से बड़ा इंतज़ार किसी भी चीज़ का नहीं है। प्यार का भी नहीं, रिश्तों नातों का भी नहीं, अपने बेगानों का भी नहीं यहां तक कि नफ़रत का भी नहीं लेकिन आईए आपको मिलवाते हैं, एक ऐसी बदनसीब रोटी से जो इंतज़ार ही करती रह गई उसे पता ही नहीं चला कि कब भूख मर गई यहीं वास्तविक हालात हैं हमारें देश के मजदूरों की लेकिन नाली से गैस और पकोड़ा बेचने की बात करने वाले लोग इन मजदूरों का दर्द न महसूस कर पाए हैं न कभी कर पाएगें। आख़िर कब बहुरेंगे मजदूरों के दिन