लोकतंत्र हम समाप्त नही होने देंगे

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लोकतन्त्र की परिभाषा के अनुसार यह “जनता द्वारा, जनता के लिए, जनता का शासन है”। लेकिन अलग-अलग देशकाल और परिस्थितियों में अलग-अलग धारणाओं के प्रयोग से इसकी अवधारणा कुछ जटिल हो गयी है।लोकतंत्र का हम अध्याय समाप्त नही होने देंगे समाजवादी अब जनता पर अन्याय नही होने देंगे।उत्तर प्रदेश में हो रही किसानों एवं व्यापारियों की हत्याओं एवम बच्चियों के साथ हो रहे दुष्कर्म, बढ़ती महंगाई, लूट की घटनाओं एवम ध्वस्त कानून व्यवस्था के विरोध में जिलाधिकारी महोदय के माध्यम से महामहिम राष्ट्रपति महोदय जी को ज्ञापन देने के दौरान। राजनीतिक विचारकों ने प्रश्न उठाना शुरू किया कि क्या जनसाधारण प्रतिदिन के जीवन में राजनीति में कोई भूमिका निभा सकते हैं? क्या सामान्य नागारिक, जो अपने जीविकोपार्जन में लगे रहते हैं, राजनीतिक भूमिका निभाने के लिए समय और शक्ति लगा सकते हैं? क्या जनसमूह बिना किसी प्रतिबंध के चुनावी लोकतंत्र के माध्यम से अपनी भावनाओं का खुला प्रदर्शन करता है तो स्वतंत्रता नष्ट हो जाएगी? 

लोकतंत्र के सिद्धान्तकारों के अनुसार यदि नीतिगत निर्णय लेने का जिम्मा केवल अभिजन वर्ग तक सीमित रहता है तो उसके लोकतंत्र का वास्तविक स्वरूप बाधित होता है। इसलिए वे इसमें आम आदमी की सहभागिता की वकालत करते हैं। उनका मानना है कि यदि लोकतांत्रिक अधिकार कागज के पन्नों अथवा संविधान के अनुच्छेदों तक ही सीमित रहे तो उन अधिकारों का कोई अर्थ नहीं रह जाता, अतः सामान्य लोगों द्वारा उन अधिकारों का वास्तविक उपभोग किया जाना आवश्यक है। लेकिन यह उपभोग भी तभी संभव है जबकि व्यक्ति स्वतंत्र और समान हो। यदि लोगों का विश्वास हो कि नीतिगत निर्णयों में कारगर सहभागिता के अवसर वास्तव में विद्यमान न हैं तो वे निश्चय ही सहभागी बनेंगे। ऐसी स्थिति में वे प्रभावी ढंग से साझेदारी भी कर सकेंगे। जिस लोकतंत्र में, चाहे वह राजनीतिक हो या प्राविधिक या शिल्पतांत्रिक अभिजनवर्ग का वर्चस्व होता है वह नागरिकों के लिए संतोषप्रद नही होता और आमलोग सहभागिता के द्वारा ही उस वर्ग के वर्चस्व को समाप्त कर सकते हैं। सहभागिता सिद्धान्त के समर्थकों का यह भी कहना है कि आज के औद्योगिक और प्रौद्योगिक समाजों में शिक्षा का स्तर ऊँचा हो गया है और बौद्धिक तथा राजनैतिक चेतना से संपन्न समाज में अभिजन और गैर-अभिजन के बीच की खाई कम हुई है। इसलिए कार्यक्षमता और विकास की दृष्टि से अधिकांश मामलों में सामान्य लोगों की सहभागिता कोई बाधा नहीं रह गई है।

दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देशों में से एक कहे जाने वाले भारत में लोकतंत्र कमज़ोर पड़ रहा है।भारत में लोकतंत्र की बिगड़ती स्थिति की उन्हें चिंता है. रिपोर्ट में ‘उदार लोकतंत्र सूचकांक’ में भारत को 179 देशों में 90वाँ स्थान दिया गया है। भारत का पड़ोसी देश श्रीलंका 70वें स्थान पर है जबकि नेपाल 72वें नंबर पर है. इस सूची में भारत से नीचे पाकिस्तान 126वें नंबर पर है और बांग्लादेश 154वें स्थान पर,इस रिपोर्ट में भारत पर अलग से कोई चैप्टर नहीं है, लेकिन इसमें कहा गया है कि मीडिया, सिविल सोसाइटी और मोदी सरकार में विपक्ष के विरोध की जगह कम होती जा रही है, जिसके कारण लोकतंत्र के रूप में भारत अपना स्थान खोने की क़गार पर है।
ऑब्ज़र्वर रिसर्च फ़ाउंडेशन में लोकतंत्र के विशेषज्ञ निरंजन साहू वी-डेम की रिपोर्ट पर कहते हैं, “डेटा पर आधारित वी-डेम की रिपोर्ट काफ़ी हद तक लोकतंत्र में निरंतर गिरावट, ख़ासकर भारत में उदारवाद के लगातार कम होने के संकेत की पुष्टि करती है।ये बोलने की आज़ादी, मीडिया की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने और विरोधी आवाज़ों को दबाने के प्रति सरकार की असहनशीलता में नज़र आती है।”

रिपोर्ट में मीडिया की कम होती आज़ादी पर काफ़ी ज़ोर है. सूर्य प्रकाश ने भारत के संविधान और इसके लोकतंत्र पर किताबें भी लिखी हैं।वे कहते हैं, “रिपोर्ट कहती है कि भारत में मीडिया की जगह सिकुड़ती जा रही है। पिछले आठ-दस सालों में हमारे देश में क्या हुआ है इसका इन्हें अंदाज़ा ही नहीं है।”एक ज़माना था, जब न्यायपालिका और चुनाव आयोग जैसी भारत की स्वतंत्र संस्थाओं के सरकार और शक्तिशाली नेताओं के दबाव में ना आने के लिए विश्व भर में भारत की प्रशंसा हुआ करती थी। अब ऐसा नहीं है, इन संस्थानों को सरकारी सोच के अनुरूप लाने के लिए लगातार प्रयास जारी हैं।आज एक्टिविस्ट और विपक्षी नेताओं को महीनों तक बिना ज़मानत के हिरासत में रखा जाता है, न्यायपालिका अपना मुँह मोड़ लेती है,इस तरह जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए महत्वपूर्ण तंत्र ग़ायब हो गए हैं।उन्होंने बताया, “धार्मिक और राजनीतिक ध्रुवीकरण बढ़ रहा है, जो ज़्यादातर सोशल मीडिया की ओर से संचालित होता है और जिसका सत्ताधारी दल राजनीतिक फ़ायदा उठाते हैं।लोकतांत्रिक मूल्यों और स्वतंत्रता के संदर्भ में इसके बड़े नकारात्मक प्रभाव होते हैं।इससे देश में राजनीतिक माहौल ज़हरीला हो रहा है।अल्पसंख्यकों और विरोधी दलों के नेताओं को कमज़ोर और खलनायक या राष्ट्रविरोधी के रूप में दिखाया जा रहा है।”