जातियाँ अपरिवर्तनीय है क्यों….?

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शिया,सुन्नियों का झगड़ा है। औरत, पुरुष का झगड़ा है। गरीब,अमीर का झगड़ा है। सबका झगड़ा है लेकिन सबमें गुंजाइश है परिवर्तन की मगर जातियों में कोई गुंजाइश नहीं है। सभी धर्मों में सुधारवादी लोग कार्यरत हैं मगर हिन्दू समाज में ज़मीन पर सुधारवादी लोगों को सबसे पहले अधर्मी तथा अराजक घोषित किया जाता है।

समाज की बुराई है कि वह दूसरे के विचार से असहमत है। खुद से दूसरे को अलग मानता है, अलग करता है। हिन्दू समाज की बुराई है कि एक-दूसरे को एक तो मानते हैं पर स्वीकारते नहीं। ईश्वर एक है चाहे अनेक, उपासना पद्धति एक हो चाहे अनेक, विचार एक हो चाहे अनेक फर्क नहीं पड़ता लेकिन सभी लोग किसी भी कार्यक्रम में एकसाथ सम्मिलित नहीं हो सकते। यहां बुराई पर विमर्श नहीं होता बस इनके पास इधर,उधर की बातें तथा आरक्षण, संरक्षण के आरोप, कुतर्क भरपूर हैं लेकिन जाति विहीन समाज की सोच, अवधारणा तथा विकल्प नहीं है।

आपको बता दूं कि वेद, धर्मशास्त्र लाखों वर्ष पुराने बताये जाते हैं। हिन्दू धर्म अथवा संस्कृति भी पसनातन। महाकाव्य और पुराण भी प्राचीन। फिर देखो सुधारवादी संगठन जैसे आर्य समाज की स्थापना 1875, कांग्रेस की स्थापना 1885, हिन्दू महासभा 1915, आरएसएस 1925, जनसंघ 1951, विहिप 1964, भाजपा 1980, बजरंग दल 1984 बाक़ी इसके अलावा भी असंख्य हैं। बताओ किसी ने कोई जातपात तोड़क कार्यक्रम, अधिवेशन, उद्घोषण किया हो? भारतीय संविधान 1950 को छोड़कर बाक़ी कोई दस्तावेज तथा डॉ अम्बेडकर को छोड़कर तत्काल सामाजिक परिवर्तनकर्ता यदि कोई हो तो उसका नाम बताइये।

बाक़ी समाज सुधारकर तो दयानन्द, विवेकानंद से लेकर तिलक, सावरकर, मालवीय तक बने और ब्रांड एम्बेसडर तो गांधीजी से लेकर मोदीजी तक बने पर असल में इतने वर्षों में एक परिवर्तन या कार्यक्रम भी यदि जाति तोड़क के नाम पर न हो तो सब बयानबाजी केवल हवाबाज़ी है। आज जब स्त्री भी पुरुष बन सकते हैं और पुरुष भी स्त्री बन सकते हैं तब भी जातियाँ अपरिवर्तनीय है क्यों? क्योंकि धर्म, धर्मशास्त्र, धर्मयोगी तथा धर्मरक्षक इसकी इजाजत नहीं देते हैं। इसके सच्चाई के अतिरिक्त समस्त कुतर्क एक आत्मसंतुष्टि है जो वास्तविकता से बहुत परे है।