उच्च न्यायालय का विचित्र आदेश

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श्याम कुमार

जोश के साथ होश का संतुलन बहुत जरूरी होता है। यदि जोश हो और होश न हो तो गाड़ी पटरी से उतर जाती है तथा यदि होष हो और जोष न हो तो गाड़ी का संचालन मुष्किल होता है। दिल्ली उच्चन्यायालय ने पिछले दिनों एक अजीबोगरीब बात की, जिसमें जोश की मात्रा अधिक तथा होश की मात्रा कम परिलक्षित हुई है। दिल्ली उच्च न्यायालय ने ब्लैक फंगस की दवा लिपोसोमल
एम्फोटेरिसिन-ंउचयबी की वितरण-ंउचयनीति पर सवाल उठाते हुए आदेष दिया कि दवा के वितरण में युवाओं को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। अदालत ने टिप्पणी की कि बुजुर्गाें ने अपना जीवन जी लिया है, पर युवाओं के सामने पूरा जीवन पड़ा है।


वे देश का भविष्य हैं, अतः देश को आगे बढ़ाने के लिए जरूरी है कि हम युवाओं की रक्षा करें। बुजुर्ग उम्र के आखिरी पड़ाव पर हैं, इसलिए हमें भविश्य की रक्षा के लिए युवाओं को प्राथमिकता देनी पड़ेगी। उन्हें बचाना चाहिए। न्यायालय-ंउच्चपीठ ने उदाहरण दिया कि प्रधानमंत्री को विषेश सुरक्षा समूह(एसपीजी) की सुरक्षा दी गई है, जिसका आधार यह है कि उनके हाथ में देश की कमान है, इसलिए वह महत्वपूर्ण व्यक्ति हैं। इसी प्रकार युवाओं के हाथ में देश का भविश्य है, इसलिए वे महत्वपूर्ण हैं और उन्हें प्राथमिकता दी जानी चाहिए।


न्यायालय का उपर्युक्त आदेश विचित्रताओं से परिपूर्ण है तथा यह कहा जा सकता है कि उसमें जोश की अपेक्षा होश की कमी है। उक्त आदेश समानता के सिद्धांत का स्पश्ट उल्लंघन तो करता ही है, उसका परिणाम खतरनाक हो सकता है। सबसे पहला प्रष्न यह है कि युवा किसे माना जाय? व्यक्ति उम्र से बूढ़ा नहीं होता, विचारों से बूढ़ा होता है। कितने ही युवा माने जाने वाले ऐसे लोग हैं, जो जीवित हैं, लेकिन मृतक के समान हैं। बिलकुल मरे-ंउचयमरे, बु-हजये-ंउचयबु-हजये। इसके विपरीत उत्तर प्रदेश के राज्यपाल पद पर राम नाईक थे, जिन्हें वृद्ध माना ही नहीं जा सकता था।


लगभग 90 वर्श की उम्र में भी वह सुबह से रात तक जितना व्यस्त रहते थे और कठोर परिश्रम करते थे, वह युवा कहलाने वाला कोई व्यक्ति नहीं कर सकता। उनका सक्रिय जीवन किसी भी युवा से अधिक महत्वपूर्ण था। इसी प्रकार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सत्तर वर्श की अवस्था में भी दिनरात जितना कठोर परिश्रम करते हैं, उतना कोई कम उम्र वाला युवा नहीं कर सकता। उनकी तुलना उन पप्पुओं से करके देखा जा सकता है, जो उनकी अपेक्षा कम अवस्था वाले हैं। वे पप्पूगण बिलकुल
निकम्मे और ठलुआ प्रतीत होते हैं तथा उनकी एकमात्र दिनचर्या वातानुकूल कोठियों में बैठे रहकर नित्यप्रति मोदी को कोसते रहना और गाली देना है। दिल्ली उच्च न्यायालय की बात से समानता के सिद्धांत का तथा इस उक्ति का उल्लंघन होता है कि सभी की जान कीमती है। न्यायालय के आदेष से देश में विद्यमान उस अराजकता को समर्थन मिलता है, जिसमें जुगाड़(सोर्स) का बोलबाला
है। पिछले दिनों कोरोना महामारी के चरमकाल में यही तो हुआ। जिसका जुगाड़ था, उसे इलाज मिल पाया, अन्यथा लोग काल का ग्रास बन गए। इलाज में वृद्धजनों की अपेक्षा युवाओं को प्राथमिकता दी जाय, इस नीति से जुगाड़ की विकृति को और बल मिलेगा। लोग युवाओं को प्राथमिकता दिए जाने के नाम पर जाने क्या-ंउचयक्या गुल खिलाएंगे तथा भ्रश्टाचार खूब ब-सजय़ेगा। डाॅक्टर एवं अस्पताल मनमानी करने की और भी छूट ले लेंगे। सबकी जान कीमती है, इस सिद्धांत का अंत हो जाएगा।


दिल्ली उच्च न्यायालय का आदेष भारतीय संस्कृति के उस मूलतत्व पर आघात करने वाला है, जिसमें बुजुर्गाें को विषेश सम्मान एवं प्रतिश्ठा दी जाती है। वैसे भी, पष्चिमी सभ्यता के दुश्प्रभाव से हमारे यहां भौतिकतावाद का जबसे बोलबाला हुआ है, तब से परिवारों में बुजुर्गाें की बहुत उपेक्षा होने लगी है। बच्चे की ममता में उसके लिए सर्वस्व स्वाहा कर देने के बावजूद बच्चा उस
बुजुर्ग की तरह-ंउचयतरह से उपेक्षा एवं प्रताड़ना करता है। ऐसे दिल दहलाने वाले अनगिनत उदाहरण देखे जा सकते हैं, जिनमें बहू-ंउचयबेटे द्वारा बुजुर्ग को बुरी तरह सताया जाता है तथा घर से निकालकर निराश्रित छोड़ दिया जाता है अथवा वृद्धाश्रम में भेज दिया जाता है। दिल्ली उच्च न्यायालय के रवैये से बुजुर्गाें के प्रति अत्याचार की घटनाओं को बहुत छूट मिल जाएगी। इलाज के लिए उन्हें बहुत तरसना पड़ेगा। कुछ लोगों का कहना है कि हमारी न्यायापालिका पष्चिमी सभ्यता के रंग में रंगती जा रही है, इसलिए कभी ‘लिव इन रिलेषन’ को जायज ठहरा देती है तो
कभी दिल्ली उच्च न्यायालय का बुजुर्गाें का सर्वनाष कर देने वाला आदेश सामने आता है।

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दिल्ली उच्च न्यायालय के ‘उपयोगिता सिद्धांत’ का अनुसरण किया जाय, तब तो इलाज में युवाओं को भी नहीं, बच्चों को प्राथमिकता मिलनी चाहिए, क्योंकि युवा तो फिर भी आधी या उससे अधिक जिंदगी जी चुके हैं, जबकि तुलना में बच्चों के सामने समस्त जीवन बाकी रहता है। इसी प्रकार जन्मे हुए बच्चे की तुलना में गर्भस्थ शिशु को प्राथमिकता मिलनी चाहिए, क्योंकि उसने तो सांसारिक जीवन अभी देखा ही नहीं है। यह भी प्रष्न उठता है कि किसका जीवन अधिक बाकी है, यह कोई नहीं जानता। बहुत से बुजुर्ग सौ साल की उम्र में भी सक्रिय देखे जा रहे हैं, जबकि तमाम लोगों की युवावस्था में ही अचानक मृत्यु हो जाती है। बाप के कंधे पर बेटे की षवयात्रा के कई उदाहरण सामने आ चुके हैं। इसी प्रकार बचपन में भी तमाम मौतें हो जाया करती हैं। अतः सबके प्राण समान रूप से कीमती मानकर उनकी रक्षा की जानी चाहिए तथा इसके लिए समानता के सिद्धांत के अलावा अन्य कोई आधार नहीं होना चाहिए। सर्वाेच्च न्यायालय को दिल्ली उच्च न्यायालय के इस विचित्र आदेश पर रोक लगानी चाहिए, अन्यथा उस आदेष का दुश्परिणाम बहुत घातक होगा, जो एक दिन उच्च न्यायालयों एव सर्वाेच्च न्यायालय के न्यायाधीषों को भी भुगतना पड़ सकता है। अधिक उम्र वाले उन न्यायालधीषों की तुलना में इलाज के लिए निचली अदालतों के युवा न्यायिक
मजिस्ट्रेटों को विषेश प्राथमिकता मिलने लगेगी।


प्रो. विवेक कुमार का कहना है कि हमारे सामाजिक मूल्यों और परम्पराओं को देखते हुए इस तरह का फैसला करना मुमकिन नहीं होगा। हमारे यहां वृद्धावस्था समाज पर बो-हजय नहीं, बल्कि अनुभव का वह वटवृक्ष है, जिसकी छांव में कई पी-िसजय़यां खुद को महफूज पाती हैं। ऐसे वृद्धों की तुलना में युवाओं को तरजीह देने की बात कहना ठीक वैसा ही है, जैसेकि तने या टहनियों को बचाने के लिए जड़ों को काट दिया जाय। ‘सेंटर फाॅर सोषल रिसर्च’ की निदेशक डाॅ. रंजना कुमारी अदालत की टिप्पणी को कम सोचविचार के बाद की गई टिप्पणी बताते हुए कहती हैं कि यह तर्कसंगत नहीं है। देष में तमाम परिवार ऐसे हैं, जिनमें आज भी परिवार का भरणपोशण वृद्ध कर रहे हैं। संभव है कि किसी वृद्ध के बचने की संभावना ज्यादा हो, लेकिन अदालत के निर्देष के मुताबिक उसे दवा ही नहीं दी जाय और उसकी मौत हो जाय। मनोविज्ञानी डाॅ. मेघना बंसल का कहना है कि दवा की किल्लत के चलते वृद्धों को दवा नहीं देने की नीति का विचार खौफनाक है। भला किसी की उपयोगिता या उसके परिवार में उसकी महत्ता उसकी उम्र से कैसे तय की जा सकती है?