मुंहफट थे नेकदिल फिराक साहब- श्याम कुमार

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बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं। तुझे ऐ ज़िंदगी हम दूर से पहचान लेते हैं।।

वैसे तो फिराक गोरखपुरी मुझसे हमेशा बहुत शालीनता से पेष आते थे, किन्तु मैंने अपने पिछले संस्मरण ‘फिराक से कहा-जूता मारूंगा’ में ‘नयन’ वाली जिस घटना का उल्लेख किया है, उसके बाद फिराक साहब मुझे बहुत विद्वान मानने लगे थे और कभी-कभी हिन्दी के किसी शब्द के बारे में पूछते थे। मैं हिन्दी के अनगिनत शब्दों की गहराई व महत्व उन्हें बताता था और कहता था कि किसी जगह सही शब्दों का इस्तेमाल होने से शब्द बोलने लगते हैं। जिस प्रकार मंत्रों में शक्ति होती है, वैसे ही शब्दों में भी अभिव्यक्ति की शक्ति समाई होती है। मैंने उनसे कहा था कि हिन्दी के साथ संस्कृत की अत्यंत समृद्ध एवं सशक्त आधार वाली पृश्टभूमि है। प्राण चले जाने से सम्बंधित अनेक शब्द हिन्दी में हैं, किन्तु सबके उपयोग भिन्न हैं। जैसे, हिन्दी में शब्द हैं, मृत्यु, मौत, देहांत, देहावसान, निधन, प्रयाण, महाप्रयाण आदि। दिवंगत, स्वर्गवासी, गोलोकवासी आदि अन्य शब्द भी मौजूद हैं। किसी दुर्घटना में मरने पर ‘मृत्यु’ अथवा ‘मौत’ षब्द का प्रयोग होना चाहिए। इसी प्रकार शाक व्यक्त करने के लिए ‘मौन रहकर’ प्रयुक्त होता है। वहां ‘चुप रहकर’ का प्रयोग अनुचित होगा। मैंने उनसे कहा कि वह ‘चंद्र’ शब्द का प्रयोग नहीं करते हैं, सिर्फ ‘चांद’ का इस्तेमाल करते हैं। लेकिन आवष्यकतानुसार दोनों ही शब्दों का प्रयोग किया जाना चाहिए। जैसे ‘चंद्रमुखी’ को ‘चांदमुखी’ कहना अटपटा लगेगा।

एक मुद्दत से तिरी याद भी आई न हमें। और हम भूल गए हों तुझे ऐसा भी नहीं।।

फिराक साहब मेरी बात बहुत ध्यान से सुनते थे। मैंने उनसे कहा था कि हिन्दी में अत्यंत उच्चकोटि का लिखा जा रहा है, संभव हो तो पढि़ए। उन्हें इस आशय की शिकायत थी कि हिन्दी के कवि अपनी कविताओं में अकसर क्रिया का प्रयोग नहीं करते हैं, जो बहुत गलत है। मैंने उन्हें समझाया था कि हर भाशा की अपनी प्रकृति विकसित होती है। बहुत-सी बातें हिन्दी की ब्रज, अवधी, भोजपुरी, कुमाउंनी, गढ़वाली, राजस्थानी आदि बोलियों में हैं, जो खड़ी बोली से भिन्न हैं। खड़ी बोली का जितना विस्तार होता गया, उसमें उसकी अपनी षैली विकसित होती गई। इसी से हिन्दी संस्कृत से ऊर्जा तो लेती है, लेकिन उसकी पिछलग्गू नहीं रह गई है।

इस बार मैंने फिराक साहब से कहा कि वह गौर करें कि गालिब, मीर आदि उर्दू के महान शायरों की पुस्तकें जब देवनागरी लिपि में छपीं, तभी देशभर में अधिकांश लोगों को उनके बारे में जानकारी हुई और उन्हें भारी शोहरत हासिल हुई। इस पर उन्होंने सहमति में सिर हिलाया, लेकिन कहा कि देवनागरी लिपि में नुक्तों का प्रयोग छोड़ दिया गया है, जो उर्दू के शाब्दों के लिए बहुत गलत है। मैंने उनसे कहा था कि ऐसा लिपि को आसान बनाने के लिए हुआ है। हालांकि मेरा मत है कि चूंकि उर्दू हिन्दी की ही एक षैली है, इसलिए देवनागरी लिपि में आवष्यकतानुसार नुक्तों का प्रयोग होना चाहिए।

कम से कम मौत से ऐसी मुझे उम्मीद नहीं। ज़िंदगी तू ने तो धोके पे दिया है धोका।।

एक दिन फिराक साहब ने कहा कि लेटरबक्स के लिए ‘पत्रपेटी’ शब्द इस्तेमाल होना चाहिए। मैंने उनसे सहमति व्यक्त करते हुए कहा कि अगर और आसान बनाना है तो ‘चिट्ठीबक्स’ कहा जा सकता है। उन्होंने लॉन में एक ओर बांस की पर्णकुटी बनवाई थी। मुझसे उन्होंने उसका नामकरण करने के लिए कहा तो मैंने ‘बंसवाड़ी’ नाम का सुझाव दिया था। एक दिन किसी झोंक में मैंने फिराक साहब से यह उल्लेख किया कि उन्होंने लिखा है कि सर्वश्रेश्ठ हास्य उर्दू में ही लिखा गया है तथा उदाहरण दिया है-‘जुगनू मियां की दुम जो चमकती है रात में, सब देख-देख उसको बजाते हैं तालियां।’ मैंने कहा कि इसमें हास्य कहां है, बल्कि आपके ‘सर्वश्रेश्ठ हास्य’ के इस उदाहरण को देखकर हंसी आने के बजाय सिर पीट लेने का मन करता है। मैंने सोचा कि आज फिराक साहब से फिर भिड़ंत होगी, लेकिन वह खामोश रहे।

फिराक साहब बंगले में अपना कमरा बदलते रहते थे। कभी सामने वाले कमरे में, कुछ समय बाद बाएं वाले कमरे में, जिसके कुछ समय बाद पीछे वाले कमरे में। कुछ समय बाद दाहिनी ओर वाले कमरे में और फिर सामने वाले कमरे में। वह सुबह से ही दारू की घूंट पीने लगते थे। उनकी शराब में बीज की तरह कुछ पड़ा रहता था, जो शायद कोई पौश्टिक पदार्थ था। इलाहाबाद साहित्यकारों का बहुत बड़ा गढ़ था, इसलिए प्रायः ‘रंगभारती’ के सदस्यगण बाहर से इलाहाबाद आते थे और साहित्यकारों से मिलवाने के लिए मुझसे कहते थे। ‘रंगभारती’ ने एक अखिल भारतीय कहानी-प्रतियोगिता आयोजित की थी, जिसमें कानपुर की एक लेखिका भी विजेता हुई थीं। एक बार वह इलाहाबाद आईं और उनके अनुरोध पर मैं उन्हें फिराक साहब से मिलवाने ले गया। भीतर बंगले का छड़दार दरवाजा बंद था। मैंने घंटी बजाई तो फिराक साहब दरवाजा खोलने आए। वह पूरी तरह नंगे थे और उन्होंने सामने दोनों हाथों से तौलिया पकड़ रखा था। किसी प्रकार दरवाजा खोलकर जब वह पीछे मुड़े तो उधर तौलिया भी नहीं था। उन्होंने तुरंत लुंगी और बनियान पहन ली। फिराक साहब को सिविललाइन-स्थित कॉफी हाउस से बहुत लगाव था और वहां भी वह प्रायः लुंगी पहने पहुंच जाते थे।

एक बार मैं घर से निकलने को था, उसी समय ‘रंगभारती’ का सदस्य एक विद्यार्थी आ गया। वह इलाहाबाद विष्वविद्यालय में स्नातक का छात्र था। उसने पूछा कि कहां जा रहे हैं? मैं जा तो रहा था फिराक साहब के पास, लेकिन उससे कह दिया कि सुमित्रानंदन पंत के पास। उसके अनुरोध पर मैंने उसे साथ ले लिया। फिराक साहब के यहां मैं लगभग डेढ़ घंटे तक रहा। जब लौटने लगा तो वह विद्यार्थी बोला- ‘‘मैंने तो सुन रखा था कि पंत जी बड़े कोमल हैं, लेकिन आज पता लगा कि वह तो अजीब हैं और उनकी आंखें चढ़ी हुई रहती हैं। वह षराब भी पीते हैं।’’ तब मैंने हंसते हुए बताया कि मैं पंत जी के यहां नहीं, फिराक साहब के यहां गया था। वह इस बात पर बहुत खुश हुआ कि पंत जी न सही, इतनी बड़ी दूसरी हस्ती से आज वह मिला।

श्यामनंदन प्रसाद सिन्हा इलाहाबाद के वरिश्ठ पुलिस अधीक्षक होकर आए। आगे चलकर वह उत्तर प्रदेष के पुलिस महानिदेशक बने थे। मेरी उनसे पुरानी मित्रता थी। एक दिन वह मेरे आवास पर आए तो उन्होंने बताया कि वह महादेवी वर्मा और फिराक साहब से शिश्टाचार-भेंट करके आ रहे हैं। उन्होंने बताया कि उन दोनों को बड़ा आष्चर्य हो रहा था और विष्वास नहीं हो रहा था कि वरिश्ठ पुलिस अधीक्षक का उनके प्रति सम्मान व्यक्त करने के लिए आगमन हुआ है। .श्यामनंदन प्रसाद सिन्हा ने उस समय बहुत ऊंची बात यह कही थी कि इलाहाबाद में इतने महान साहित्यकार हैं कि अफसर तो उनके पांव की धूल भी नहीं हैं। फिर भी यह देष का दुर्भाग्य है कि हमारे यहां अफसरों का अधिक मान होता है, जबकि विदेशो में बिलकुल उलटी स्थिति है।

फिराक साहब अपनी बदजुबानी के लिए चाहे जितने मशहूर रहे हों, लेकिन दिल के बहुत नेक थे। एक बार उन्होंने अपने आवास पर एक पार्टी रखी, जिसमें मुझे भी आमंत्रित किया। अन्य लगभग दो दर्जन लोग आमंत्रित थे। बंगले में बाहर लॉन में पार्टी का प्रबंध था। चारों ओर कुरसियां लगी हुई थीं, जिन पर आगंतुक बैठे। बीच में घास पर दरी व चादर बिछी हुई थी, जिस पर फिराक साहब बैठे। वह मूड में थे ही, बहुत कुछ सुनाने लगे और तमाम रोचक संस्मरण सुनाए। बड़ी ही खुशनुमा पार्टी हुई। लेकिन लोग एक महत्वपूर्ण बात नहीं समझ पाए। फिराक साहब ने मेहमानों को सम्मान देने के लिए कुरसियों पर बिठाया तथा स्वयं विनम्र मेजबान के रूप में जमीन पर बैठे। यह उनका बड़प्पन था।