रघुकुल और मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम

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अंजना सिंह सेंगर

किसी भी देश का जीवन दर्शन उस देश की सभ्यता और संस्कृति से स्पष्ट होता है।महान पुरुषों का प्रभाव देश की जातीय चेतना तथा लोक-संस्कृति पर पड़ता है। तीज-त्योहार तथा विविध पर्व भी हमारी सभ्यता तथा संस्कृति को द्योतित करते हैं। हमारे देश की संस्कृति में राम कण-कण में समाए हुए हैं। जन्म से लेकर मरण तक राम नाम की अनुगूंज हर किसी को ध्यान में रहती है। भारत की संस्कृति में राम शब्द की महत्ता सर्वविदित है। कुछ लोग राम और राम के पूर्वजों पर भी प्रश्न-चिह्न लगाकर इतिहास को काल्पनिक बनाने पर तुले हुए हैं, जबकि राम भारत के जीवनाधार हैं। राम भारत की आत्मा हैं। राम भारत के सम्बल हैं। लोक में राम का इतिवृत्त इतना गहरा है कि उसे विदेशी आक्रांताओं की मार-काट भी धुँधला नहीं कर सकी है। यों तो इतिहास में तोड़-मरोड़ हो सकती है, लेकिन राम-कथा लोक में संव्याप्त है। जैसे कोई भी आक्रमण संस्कृति को नष्ट नहीं कर सकता है, वैसे ही संस्कृति का स्रोत शाश्वत तथा प्राणवान् है।


राम के पूर्वजों की बात करें, तो ‘ब्रह्मा’ जी का नाम सर्वप्रथम आता है। सृष्टि के नव निर्माण की आकांक्षा में ब्रह्मा जी से ‘मरीचि’ का प्रादुर्भाव हुआ, जिन्होंने तपस्या, कर्मनिष्ठ ध्येयी होने का प्रमाण दिया। मरीचि के पुत्र ‘कश्यप’ हुए, जिन्होंने अपनी जीवनी-शक्ति के सहारे ब्रह्मविद्या का संस्पर्श किया। ‘कश्यप’ के पुत्र ‘विवस्वान’ थे। ‘विवस्वान’ के ‘वैवस्वत मनु’ हुए।’विवस्वान’ के पुत्र को ‘वैवस्वत’ ही कहा जाएगा, क्योंकि व्याकरण से यही पुष्ट होता है। कहा जाता है कि’ वैवस्वत मनु’ के समय जल-प्रलय हुआ था। जल-प्लावन की घटना विश्व-विश्रुत है। इसी कथानक को जयशंकर ‘प्रसाद’ ने इस तरह लिखा है :—
“हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर बैठ शिला की शीतल छाँह।
एक पुरुष भीगे नयनों से देख रहा था प्रलय-प्रवाह ।।
नीचे जल था, ऊपर हिम था, एक तरल था एक सघन।
एक तत्त्व की ही प्रधानता कहो उसे जड़ या चेतन।।१

मनु के 10 पुत्रों में से एक यशस्वी पुत्र ‘इक्ष्वाकु’ हुए। ‘इक्ष्वाकु’ की उदारचेता वृत्ति से ‘इक्ष्वाकु वंश’ भी ख्यात हुई। ‘इक्ष्वाकु’ ने ‘अयोध्या’ को अपनी राजधानी के रूप में चुना। ‘इक्ष्वाकु’ के पुत्र ‘कुक्षि’ हुए। ‘ कुक्षि’ के पुत्र का नाम ‘विकुक्षि’ था। नवीं पीढ़ी में ‘विकुक्षि’ के पुत्र ‘बाण’ हुए। ‘बाण’ के पुत्र ‘अनरण्य’ थे। ‘अनरण्य’ का अर्थ है ‘अरण्य रहित’। ग्यारहवीं पीढ़ी में ‘अनरण्य’ के पुत्र का नाम ‘पृथु’ था। बारहवीं पीढ़ी में ‘पृथु’ से ‘त्रिशंकु’ का प्राकट्य हुआ। ‘त्रिशंकु’ के पुत्र ‘धुँधुमार’ हुए । चौदहवीं पीढ़ी में ‘धुँधुमार’ के पुत्र का नाम ‘युवनास्व’ था 15 वीं पीढ़ी में ‘युवनास्व’ के पुत्र ‘मांधाता’ हुए। ‘ मांधाता’ का औदात्यपूर्ण व्यक्तित्व तथा कर्म भारतीय संस्कृति की गौरवशाली परम्परा का बोधक है। ‘मांधाता’ की दानवीरता, सत्यवादिता तथा कर्मशीलता की मिसाल अत्यंत दुर्लभ है। ‘वाल्मीकि-रामायण’ में बालकांड के अंतर्गत बारहवें श्लोक में राम के लिए जो बात कही गई है, वह ‘मांधाता’ के गरिमामय व्यक्तित्व के लिए भी सही जान पड़ती है —
“धर्मज्ञ: सत्यसंधश्च प्रजानांचहितेरत:।।
यशस्वी ज्ञानसम्पन्न: शुचिर्वश्य: समधिमान।।”२

सोलहवीं पीढ़ी में ‘मांधाता’ से ‘सुसंधि’ पैदा हुए। सत्रहवीं पीढ़ी में सुसंधि के दो पुत्र हुए — ‘ध्रुवसंधि’ तथा ‘प्रसेनजित’। अठारहवीं पीढ़ी में ध्रुवसंधि के पुत्र ‘भरत’ हुए, जिनकी तेजस्विता तथा शूरवीरता ख्यात हुई। उन्नीसवीं पीढ़ी में

भरत के पुत्र ‘असित’ हुए। बीसवीं पीढ़ी में ‘असित’ के ‘सगर’ हुए। इक्कीसवीं पीढ़ी में ‘सगर’ के पुत्र ‘असमंज’ उत्पन्न हुए। इसी क्रम में ‘असमंज’ के पुत्र ‘अंशुमान’ हुए। तेइसवीं पीढ़ी के अंशुमान के पुत्र ‘दिलीप’ हुए, जो अत्यधिक धर्मनिष्ठ तथा दानवीर माने गए।
“एक बार रावण महाराज दिलीप से युद्ध की लालसा लेकर उनके सम्मुख उपस्थित हुआ। तब महाराज दिलीप ने एक कुश लेकर अभिमंत्रित जल छिड़क कर दक्षिण दिशा में फेंका। इस पर रावण में नेहवश पूछा —“यह क्या किया।” महाराज दिलीप ने कहा कि दक्षिण दिशा में एक शेर गाय पर हमला करने को व्यग्र है। इसलिए मैंने उस गाय की प्राण-रक्षा के लिए ऐसा किया है। इतना ही नहीं, दक्षिण दिशा में लंकापुरी है, जहां रावण के महल में जलते हुए दीपक से आग लगी है, जिसे बचाने के लिए मैंने शर-संधान किया है।
रावण वहां से प्रस्थित हुआ, और उस ने वैसा ही देखा, जैसा महाराज दिलीप ने कहा था। इस संपूर्ण विवरण का इतिवृत्त ‘भक्तमाला’ में उल्लिखित है —
“महामहीप दिलीप को, सप्तदीप किय राज।।
एक बार रावण तहाँ, आयो रण के काज।। पूजन करत रह्यो नृप जहँवा। विप्र रूप धर आयो तहँवा।।
पूजन करि यक कुश कर लै कै। फेंक्यो दिशि दक्षिण जल छै कै।।
तब रावण करि कै संदेहू। पूँछेहु नृपहिं देखावत नेहू।।
कह्यो दिलीप धेनु वन माँही। चरत रही नाहर तिन का हीं।।
धरन लग्यौ तिनहित मैं बाना। फेंक्यो करिकै मंत्र विधाना।।
बाण बाघ हनि धेनु बचाई। कहँ यक लंका है तहँ जाई।।
तहँ इक द्विज रावण आस नामा। पावक दिय लगाइ तेहि धामा।।
तिहि बापुरौ भवन जरि जै है। मम फेंको जल पाइ बुझै है।।
यह सुन रावण करि अति शंका। देख्यो जाइ धेनु अरु लंका।।
यथा दिलीप कह्यो तस देख्यो। अपने मन अचरज अति लेख्यो।।
पुनि न बहुरि संगरहि आयो। नृपहिं मनहिं मन सदा डरायो।।
ऐसो मो दिलीप महराजा। त्रिभुवन महँ यश जासु दराजा।।३

चौबीसवीं पीढ़ी में ‘दिलीप’ के पुत्र ‘भगीरथ’ हुए अपने अत्यधिक तप से भगीरथ ही गंगा को स्वर्ग से पृथ्वी पर लाए थे। इसी कारण से गंगा का एक नाम भागीरथी भी है। भगीरथ प्रज्ञावान्, धर्मनिष्ठ तथा तत्त्व-चिंतक थे। उन्होंने अपनी श्रम-साधना से गंगा को पृथ्वी पर अवतरित कराया। इस के लिए उन्होंने भगवान् महादेव को प्रसन्न किया और जनजीवन के उद्धार का ऐतिहासिक कार्य किया। इसीलिए गंगा को भागीरथी कहा गया है। ‘भगीरथ’ के पुत्र ‘ककुत्स्थ’ हुए, जो स्थितप्रज्ञ बन कर प्रशंसित हुए। ‘ककुत्स्थ’ के ‘रघु’ हुए जिनके नाम पर ‘रघुकुल’ का उन्मेष हुआ। राम को राघव इसीलिए कहा जाता है, क्योंकि ‘रघु’ राम के पूर्वज थे। ‘रघु’ के ‘प्रवृद्ध’ थे। ‘प्रवृद्ध’ के पुत्र ‘शंखण’ थे।’शंखण’ के ‘सुदर्शन’ थे, जो आध्यात्म-विद्या में निष्णात तथा पारंगत थे।’सुदर्शन’ के पुत्र का नाम ‘अग्निवर्ण’ था, जो पराक्रमी तथा तेजवान थे। इकतीसवीं पीढ़ी में ‘अग्निवर्ण’ के पुत्र ‘शीघ्रग’ हुए। ‘शीघ्रग’ के पुत्र ‘मरु’ ख्यात हुए।’मरु’ के पुत्र ‘प्रशुश्रुक’ थे। ‘प्रशुश्रुक’ के पुत्र ‘अम्बरीष’ थे। ‘अम्बरीष’ की भक्ति-भावना का विस्तार सभी को विदित है। ‘भक्तमाला’ में ‘अम्बरीष’ राजा के गुणों का वर्णन है। वे विष्णु-भक्त थे और परम विरागी थे। वे चक्रवर्ती सम्राट् तथा ब्राह्मणों के हित-साधक थे। उनके राज्य में सभी वर्णों को पर्याप्त सम्मान था। कहा जाता है कि अंबरीष की संकल्प-शक्ति से ही सारे कार्य सिद्ध हो जाते थे।’भक्तमाल’ में लिखा है—

“अम्बरीष मो भक्त महाना। जान्यौ नहिं विवाह भगवाना।।
राज करत बीत्यो बहु काला। पायो प्रजा न नेकु कसाला।।
कबहुँ न राजकाज नृप कीन्हों। निशि दिन हरि सेवक मन दीन्हो।।
जानि अनन्य उपासक राजै। हरि शासन दिय चक्र दराजै।।
नृप मम सेवन निरत निशंका। तकत न आपन सुयश कलंका।।
ताते तुम ताकर सब काजू। रहौ सुधारे तासि आकाजू।।
तब ते चक्रकाज सब करतो। मित्रन मोद अमित्रन दरतो।।
यहि बिधि बीति गयो बहु काला।नृपहि न लग्यो जगत जंजाला।।
समय एक भो कार्तिक मासा। भूप अवध तजि सहित हुलासा।।
मज्जन हित मथुरा महँ आयो। विधिमुत कातिक मास नहायो।।
जब प्रबोध एकादशि आई। राजा हरि उत्सव मन लाई।।
करि उत्सव निर्जल व्रत कीन्हो। जाति विताइ शर्वरी दीन्हो।।४

‘अम्बरीष’एकादशी के प्रसिद्ध व्रती थे। एक बार द्वादशी पारायण को लेकर ऋषि दुर्वासा ने उन पर कोप किया। दुर्वासा ने‘कृत्या’ शक्ति को प्रकट कर ‘अम्बरीष’ को मार डालने का यत्न किया। इस पर भगवान विष्णु ने अपने चक्र से ‘कृत्या’ का वध किया। चक्र ने दुर्वासा का पीछा किया। दुर्वासा शंकर जी के पास गए, ब्रह्मा जी के पास गए, किंतु किसी ने उन्हें शरण प्रदान नहीं की। अंत में दुर्वासा विष्णु जी की शरण में गए। विष्णु जी ने कहा कि तुमने मेरे भक्त ‘अम्बरीष’ का अपमान किया है। ‘अम्बरीष’ से क्षमा मांगने पर ही तुम्हारी प्राण-रक्षा संभव है। तब दुर्वासा ‘अम्बरीष’ के पास गए और क्षमा-प्रार्थना की। अमरीश द्वारा क्षमा-दान करने पर ही चक्र शांत हुआ इस प्रकार दुर्वासा की प्राण-रक्षा हुई थी। ‘अम्बरीष’ की भक्ति बेमिसाल है, बेजोड़ है, क्योंकि भगवान श्रीहरि ने भी उनको मान दिया है। यह संदर्भ ‘भक्तमाला’ से उद्धृत किया जा रहा है —

“चक्र तेज ते जरत हौं, ठौर न और देखाइ।। विधि हरि हर रक्ष्यों नहीं, लीन्हों तोहि तकाइ।।

महाराज अब मोहिं बचावो। दीनहि देख दया उर लावो।।
देखि दशा दुर्वासा केरी। नृप के दाया भई घनेरी।।
पकरि पाणि लीन्ही मुनि केरो। कह्यो न गहहु चरण प्रभु मेरो।।
मैं तो रहौं रावरो दासा। यह अनुचित करियै दुर्वासा।।
पुनि नृप लख्यो चक्र की वोरा। मनहुँ उदित दिननाथ करोरा।।
अंबरीष तब दोउ कर जोरी। चक्रहिं प्रस्तुति कियो निहोरी।।
करहु क्षमा द्विजकर अपराधा। यदुपति आयुध कृपा अगाधा।।
मोहि कलंक यह लागत भारी। जो तुम दियो विप्र कहँ जारी।।
जो कछु होइ सुकृत प्रभु मोरी। तो द्विज बचे तापते तोरी।।
जो द्विज पद सेवक कुल मोरा। तो द्विज होइ दुखी नहिं भोरा।।
जो सुर सब मो पर अनुकूला। द्विजहि होहु तौ नहिं प्रतिकूला।।
मोहिं ब्रह्मण्य कहै जो कोई। तो सुनाभ शीतल हठि होई।।
तन मन औरहु वचन ते, होहुँ जो मैं हरिदास।।
मो पर होहि प्रसन्न हरि, तो मुनि होय अत्रास।।”५

‘अम्बरीष’ के पुत्र का नाम ‘नहुष’ था, जो पैतीसवीं पीढ़ी में हुए थे। छत्तीसवीं पीढ़ी में ‘नहुष’ के पुत्र ‘ ययाति’ हुए। ‘ययाति’ के ‘नाभाग’ सैंतीसवीं पीढ़ी में हुए। ‘नाभाग’ के पुत्र का नाम ‘अज’ था, जो अड़तीसवीं पीढ़ी में हुए थे।उनतालीसवीं पीढ़ी में ‘अज’ के पुत्र ‘दशरथ’ हुए। ‘दशरथ’ की महत्ता का वर्णन केशवदास जी ने ‘रामचंद्रिका’ में किया है। जिसमें उनकी तुलना अपने पूर्ववर्ती राजा राजा दिलीप से की गई है। दशरथ को दानी, शूरवीर, पवित्र-आत्मा के रूप में चित्रित करते हुए आचार्य कवि केशवदास ने कहा है —

विधि के समान है विधानी कृत राजहंस , विविध विविधजुत मेरु सो अचलु है।
दीपति दिपति अति सातों दीप दीपियत, दूसरो दिलीप-सो सुदच्छिना को बलु है।।६

राजा दशरथ ने वशिष्ठ जी के कहने पर ‘श्रृंगी’ ऋषि से शुभ पुत्र कामेष्ठि यज्ञ करवाया, तब यज्ञ फल के प्रभाव से तथा ‘श्रृंगी’ ऋषि के आशीर्वाद से दशरथ के चार पुत्र उत्पन्न हुए — राम, भरत, शत्रुघ्न, लक्ष्मण। वैसे तो महाराज दशरथ के चारों पुत्र तेजस्विता और गुणों की अक्षय निधिहैं, लेकिन उनमें राम की यशास्विता उन्हें ब्रह्म निरूपित करती है। जीवन-संघर्ष की अपराजेय जिजीविषा और कर्म-बोध की समता संसार में किसी से नहीं की जा सकती है।
पवित्र चैत्र महीने की नवमी तिथि में शुक्ल पक्ष और भगवान के प्रिय अभिजित् मुहूर्त में दोपहर के समय राम का जन्म हुआ। उस समय शीतल, मंद, सुगंधित पवन बह रहा था। देवता हर्षित थे और संतों के मन में उल्लास था। श्रीराम का तभी प्राकट्य हुआ —

“नौमी तिथि मधु मास पुनीता। सुकल पच्छ अभिजित हरिप्रीता॥
मध्यदिवस अति सीत न घामा। पावन काल लोक बिश्रामा॥
सीतल मंद सुरभि बह बाऊ। हरषित सुर संतन मन चाऊ।।
बन कुसुमित गिरिगन मनिआरा। स्त्रवहिं सकल सरिताऽमृतधारा।।७

गोस्वामी तुलसीदास जीने ‘रामचरितमानस’ में राम की जिजीविषा, त्याग, कर्तव्य-परायणता, उत्साह, पराक्रम, नीति-सिद्धांतों में निपुणता, प्रजावत्सलता, भक्तवत्सलता, न्याय-प्रियता इत्यादि का बड़ा ही विशद् वर्णन किया है। वास्तव में राजा होने के बाद भी एक पत्नीव्रत होने का राम का आदर्श अनुपमेय तथा आदरणीय है। राम पहले ऐसे शासक हैं, जिन्होंने जनता की भलाई के लिए कार्य किए थे। उनके राज्य में समानता, सहिष्णुता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का परिपूर्ण दर्शन पाया जाता है। इसीलिए ‘राम-राज्य’ की अवधारणा का संकल्प-बोध आज भी प्रतीक्षित है। रावण द्वारा सीता-हरण के पश्चात् राम ने अपने भाई भरत से सैन्य-सहायता की मांग नहीं की अपितु स्थानीय जनता के सहयोग से अत्याचार का प्रतिरोध किया। राम चाहते तो पिता दशरथ द्वारा वनवास दिए जाने का प्रतिवाद करते, किंतु उन्होंने ऐसा नहीं किया। पिता की आज्ञा को सहर्ष स्वीकार किया। रावण की आसुरी शक्तियों को परास्त कर उन्होंने मानवता के भविष्य का मार्ग प्रशस्त किया। जनकनंदिनी सीता को रावण से मुक्त करा कर राम ने नारी जाति के गौरव की रक्षा की। बाद में अयोध्या का राजा बनने के बाद धोबी के कहने पर उन्होंने सीता को निर्वासित कर दिया। उस समय सीता गर्भवती थी।

राम का यह कार्य जनता की दृष्टि से भले ही एक व्यक्ति के सिद्धांत का पोषण करता हो, किंतु शासक के रूप में सोचने को विवश करता है। सीता के प्रति राम की एकनिष्ठा वृत्ति शब्दातीत थी। सीता राममय थीं और राम सीतामय थे। दोनों का अनुराग, निश्छल साहचर्य सदैव आदर्श की कसौटी है, किंतु जनता की निर्णय-वृत्ति उन्हें सर्वोपरि थी। जनता के एक व्यक्ति या परिवार की बात भी उन्हें ग्राह्य थी, भले ही इसके लिए उन्हें अपनी सहधर्मिणी का परित्याग करना पड़ा। राम की इन अभूतपूर्व कर्मवादिनी दृष्टि के कारण ही भारत की संस्कृति राममय है। राम एक शासक के रूप में ही नहीं, अपितु धर्मनिष्ठ तपोव्रती के रूप में भी अमर हैं। सीता के दो पुत्र ‘लव’और ‘कुश’ भी वीरता के आगार थे। कहा जाता है कि राम द्वारा छोड़े गए अश्व को लव-कुश ने पकड़ लिया था। लव-कुश ने भरत, शत्रुघ्न, लक्ष्मण सहित अनेक योद्धाओं को परास्त किया। राम द्वारा युद्ध में जाने पर सीता द्वारा परिचय कराया गया, तब वाल्मीकि के प्रबोधन से राम ने उन्हें अपनाया। लक्ष्मण भरत शत्रुघ्न के भी दो-दो पुत्र हुए। इस प्रकार राम की पूर्वज-परम्परा तथा वंश-परम्परा का इतिवृत्त इतिहास को नए पथ का बोध कराने में समर्थ हुआ।

संदर्भ :-
1- कामायनी : जयशंकर ‘प्रसाद’
2- बालकाण्ड-वाल्मीकि रामायण
3- भक्तमाला’ श्री महराज रघुराज सिंह देवजूबहादुर कृत, लक्ष्मिबेंकटेश्वर छापाखाना, कल्याण-मुंबई। पृष्ठ: 132-133)
4- ‘वही’ पृष्ठ : 83-84
5- ‘वही’ पृष्ठ : 88-89
6- रामचंद्रिका : केशवदास
7- ‘रामचरितमानस’, तुलसीदास जी, गीताप्रेस गोरखपुर, बालकाण्ड, पृष्ठ :175