जानें क्या होगा आरक्षण का….?

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नई शिक्षा नीति से पिछड़ों,वंचितों के आरक्षण पर खतरा उत्पन्न करने की संघीय चाल।संयुक्त सचिव के बाद अब प्रोफेसर पद पर लेटरल इंट्री से भर्ती,आरक्षण नियमावली का नहीं होगा पालन।भाजपा सरकार आरक्षण को खत्म व निष्प्रभावी करने में जुटी।

लौटनराम निषाद

लखनऊ। देश को 34 साल बाद मिली नई शिक्षा नीति को सरकार आने वाले समय में शिक्षा क्षेत्र में क्रांति का संकेत बता रही है तो कुछ लोगों की अपनी आशंकाएं भी हैं।भारतीय पिछड़ा दलित महासभा के राष्ट्रीय महासचिव लौटनराम निषाद ने कहा है कि नई शिक्षा नीति से शिक्षण संस्थानों में आरक्षण नीति समाप्त करने का षडयंत्र भाजपा सरकार संघ के इशारे पर कर रही है।केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय का कहना कि नई शिक्षा नीति में आरक्षण बरकरार रहेगा,आशंका को जन्म ही नहीं दे रहा,बल्कि आज के दैनिक जागरण की खबर से साफ हो गया है कि ओबीसी,एससी, एसटी आरक्षण पर तलवार चलाने की तैयारी हो गयी है।

केन्द्र सरकार ने 3 चरणों मे केन्द्र सरकार के मंत्रालयों व विभागों में विशेषज्ञता के नाम पर निजी क्षेत्रों से लेटरल इंट्री द्वरा संयुक्त सचिव, उपसचिव व डायरेक्टर बिना प्रतियोगी परीक्षा के नामित कर चुकी है।इस पद पर पहुंचने के लिए काफी कठिन दौर से गुजरना पड़ता है।यूपीएससी की त्रिस्तरीय प्रतियोगी परीक्षा पास करने के बाद बने आईएएस को इस पद पर पहुंचने में 16-17 वर्ष का समय लगता है।आज के जागरण के समाचार के आधार पर साफ हो गया है कि अब सीधे बिना विशेष डिग्री,डिप्लोमा के विशेज्ञता के नाम पर आरक्षण नियमावली के बिना पालन के प्रोफेसर नामित किये जायेंगे।निषाद ने कहा कि अब भाजपा सरकार लेटरल इंट्री द्वारा प्रोफेसर नामित कर पिछड़ों,वंचितों की खुलेआम हकमारी करने की तैयारी कर ली है।कॉलेजियम से वर्गविशेष के न्यायाधीश, लेटरल इंट्री से नीति बनाने वाले प्रशासनिक अधिकारियों को सीधे साक्षात्कार द्वारा नामित करने के बाद नई शिक्षा नीति व सीयूईटी(सेंट्रल यूनिवर्सिटी एंट्रेंस टेस्ट) के माध्यम से वंचित वर्ग का प्रतिनिधित्व व उच्च शिक्षा छिनने की संघीय रणनीति तैयार हो गयी है।

नई शिक्षा नीति में आरक्षण शब्द का जिक्र नहीं है
केन्द्र सरकार नई शिक्षा नीति को लाकर ओबीसी,एससी और एसटी का आरक्षण खत्म करने के लिए आगे बढ़ गयी है। सरकार भले भरोसा दिलाया रही है कि आरक्षण खत्म नहीं होगा,लेकिन यह उसका झूठा दिलासा है।केंद्र की मोदी सरकार नई शिक्षा नीति 34 साल बाद देश को देकर इस नीति को सरकार शिक्षा के क्षेत्र में क्रांति का आगाज बता रही है तो लौटनराम निषाद ने इसे 85 प्रतिशत बहुजन विरोधी नीति बताया है। उन्होंने कहा कि सबसे ज्यादा चिंताएं आरक्षण को लेकर है क्योंकि नई शिक्षा नीति में आरक्षण शब्द का एक बार भी उल्लेख नहीं हुआ है। इसकी आशंका पर जब सवाल खड़ा हुआ था तो तत्कालीन शिक्षा मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक ने ये कहकर दिया था कि आरक्षण महज शब्द नहीं भाव है जो पूरी नीति में निहित है।


निषाद का कहना है कि नई शिक्षा नीति में आरक्षण के सवाल को दो तरह से देखने की जरूरत है। आरक्षण शब्द का जिक्र न करके इसे बहस से ही गायब कर दिया गया है।संवैधानिक रूप से लागू आरक्षण के आधार पर भी केंद्रीय और राज्य विश्वविद्यालयों में भर्तियां नहीं होती हैं, और अब तो आरक्षण को ही नीतिगत रूप से गायब कर देना सामाजिक न्याय की राह को और कठिन बनाना है।दूसरी बात यह है कि शिक्षा नीति दलित, पिछड़े, आदिवासियों से शिक्षा के अवसर को छीनने की संघीय साज़िश है।प्राइवेट शिक्षण संस्थान आज भी एक बड़े समुदाय की पहुंच से बाहर हैं।स्कूलों को मेटा स्कूल बनाना और ग्रेडेड आटोनॉमी बनाना, यह सब निजीकरण करने की दिशा में है और प्राइवेट शिक्षण संस्थानों में किसी तरह का कोई आरक्षण लागू नहीं है।

निषाद का कहना है कि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) की साल 2017-18 की वार्षिक रिपोर्ट के आधार पर देश के केंद्रीय विश्वविद्यालयों, राज्य विश्वविद्यालयों और डीम्ड विश्वविद्यालयों में मिलाकर अन्य पिछड़े वर्ग (ओबीसी) के 19 फीसदी अध्यापक हैं, अनुसूचित जाति के 12 फीसदी और अनुसूचित जनजाति के 4 फीसदी अध्यापक हैं।केंद्रीय विश्वविद्यालयों का आंकड़ा देखें तो प्रोफेसर और एसोसिएट प्रोफेसर के पद पर नब्बे फीसदी से अधिक सवर्ण जाति के अध्यापक काबिज हैं और असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर तकरीबन पैंसठ फीसदी से अधिक है।केंद्रीय विश्वविद्यालयों में एक भी प्रोफेसर, एसोसिएट प्रोफेसर नहीं हैं।उन्होंने कहा कि नई शिक्षा नीति से सामाजिक न्याय पर गहरी चोट पहुंचाने में केन्द्र सरकार जुटी हुई है।


निषाद ने बताया कि नई शिक्षा नीति के 14वें अध्याय से साफ है कि सरकार की दलित और पिछड़ों के लिए क्या मंशा है?इसमें ‘उच्च शिक्षा में समता और समावेश’ में अनुसूचित जाति-जनजाति, ओबीसी और अल्पसंख्यक जैसी अस्मिताओं को हटा दिया गया है।ये सब अस्मिताएं प्राइमरी और सेकेंडरी शिक्षा वाले अध्याय में रखी गयी हैं। इन संवैधानिक समूहों की अस्मिताओं को खत्म करके उनकी जगह ‘सामाजिक-आर्थिक वंचित’ अस्मिता का प्रयोग क्यों किया गया है? संविधान में परिभाषित समूहों को सरकार अपने नीतिगत दस्तावेज से कैसे हटा सकती है।साथ ही पूरे ड्राफ्ट में कहीं भी आरक्षण शब्द का प्रयोग नहीं है।सामाजिक न्याय के तहत मिलने वाले आरक्षण अधिकार कैसे तय होंगे?यह साफ जाहिर करता है कि कैसे आरक्षण को शिक्षा व्यवस्था से खत्म करने की सोची समझी रणनीति बनाई गई है।देश की 80 फीसदी आबादी दलित, मुस्लिम, ओबीसी, आदिवासी और अति पिछड़ा वर्ग की है। उनमें से ज्यादातर छात्र जो कक्षा एक में दाखिला लेते हैं वो 12वीं तक की पढ़ाई पूरी नहीं कर पाते। सबसे ज्यादा खराब हालत आदिवासी समुदाय की है, जो गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहे हैं और आरक्षण के जरिए ही उनके बच्चे उच्च शिक्षा हासिल कर पाते हैं।आरक्षण के होने के बावजूद केंद्रीय विश्वविधालयो में आदिवासी प्रोफेसर मात्र 0.7 फीसदी और दलित 3.47 फीसदी है आने वाले दिनों में नई शिक्षा नीति में आरक्षण के नाम नहीं होने से इसका असर इन दोनों समुदाय के प्रतिनिधित्व पर भी पड़ेगा। नई शिक्षा नीति जिस तरह से निजीकरण को बढ़ावा दे रही है, उससे यह पूरा तबका ही शिक्षा से वंचित रह जाएगा।