स्वाधीनता प्राप्ति के पश्चात् भारतीय राजनीति का आधुनिक स्वरूप विकसित हुआ। अतः यह संभावना व्यक्त की जाने लगी कि देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था स्थापित होने पर भारत से जातिवाद समाप्त हो जायेगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ बल्कि जातिवाद ने न केवल समाज में बल्कि राजनीति में भी प्रवेश करके उग्र रूप धारण कर लिया है। भारत में जातिवाद ने न केवल यहाँ की आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक प्रवृतियों को ही प्रभावित किया है, बल्कि राजनीति को भी पूर्ण रूप से प्रभावित किया है। भारत की राजनीति में जाति ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। केन्द्र ही नहीं राज्यस्तरीय राजनीति भी जातिवाद से प्रभावित है, जो लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए बहुत ही खतरनाक है, क्योंकि इसके कारण राष्ट्रीय एकता एवं विकास मार्ग अवरुद्ध हो रहा है।
भारत में समाज की अवधारणा नहीं बल्कि जातियों का जमावड़ा है। यहां समाज जैसी किसी संकल्पना का उदय नहीं हो सका और जाति को ही समाज के रूप में स्वीकार कर लिया गया।भारतीय समाज हज़ारों वर्षों से वर्ण-व्यवस्था एवं उसके विस्तृत रुप-जाति व्यवस्था के द्वारा भी जाना जाता रहा है। भारतीय सामाजिक व्यवस्था जाति के ताने-बाने से गुंँथी हुई है । भारत में रहनेवाले न केवल हिंदू बल्कि मुसलमान व ईसाई भी जातिगत संरचना से किसी-न-किसी रूप में प्रभावित हुए हैं । डॉ. भीमराव अंबेडकर के जाति उन्मूलन सपने को पूरा कर पाने में स्वयंभू अंबेडकरवादी न सिर्फ नाकाम रहे हैं, बल्कि अपनी-अपनी जातियों के पक्ष में मजबूती से खड़े भी दिखाई देते हैं। ये जातिवाद को कोसते जरूर हैं,पर अपनी जाति को छोड़ने से परहेज भी रखते हैं। दलितों ने डॉ. अंबेडकर के राष्ट्र निर्माण और मानवतावादी विचार को भुला कर उन्हें आरक्षण का पर्याय बनाकर उनकी छवि को नुकसान पहुंचाने से भी परहेज़ नहीं किया है। भारतीय समाज में जातियों का जमावड़ा
जाति का प्रादुर्भाव कब, कहां और कैसे हुआ इसकी कोई सर्वमान्य वैधता नहीं है। दुनिया में अमीरी और गरीबी के आधार पर वर्ग सदा से थे और इसमें बदलाव संभव था। वर्ण और जाति भारत की अपनी संकल्पना है, इसे दैवीय मानकर परिवर्तनशीलता से इन्कार भी किया जाता है। दुनिया के रंग और नस्ल भेद भी अपनी मौत मर गए मगर भारत में जाति जिंदा है और जल्द मरने के कोई आसार दिखाई नहीं देते। भारत में समाज नाम की कोई चीज नहीं बल्कि जातियों का जमावड़ा है। इसकी वजह से यहां समाज जैसी किसी संकल्पना का उदय नहीं हो सका और जाति को ही समाज मान लिया गया। जाति व्यवस्था में ‘भारतीय समाज’ की संकल्पना बेमानी ही होगी। जाति से खंडित राष्ट्र में राष्ट्रवाद की संकल्पना भी परवान नहीं चढ़ सकेगी। जाति नागरिकता पर हावी होते हुए अव्वल और दोयम दर्जे की नागरिकता को भी परिभाषित करती है।
जैसी हमारी जानकारी है उसमें जाति का जनक मनुवाद और ब्राह्मणवाद को माना जाता है। जाति में ऊंच-नीच है। असमानता है। शोषण और अत्याचार है। इसलिए सभी बुद्धिजीवी और जाति व्यवस्था से पीड़ित दलित मनुवाद व ब्राह्मणवाद की कड़ी आलोचना करते हैं। वे जाति का नाश चाहते हैं। समानता और भाईचारा चाहते हैं। समतामूलक समाज के लिए यह उचित भी है। बावजूद इसके दलित खुद अपनी जातियों से बड़ी शिद्दत से न केवल चिपके हैं बल्कि जाति की विरासत को ढो भी रहे हैं। कुछ दलित जातियां अपने आपको श्रेष्ठ और महान भी बता रही हैं। अपनी जाति की महानता के सुर मंचों और मीडिया से सुना रही हैं। इसके बावजूद वे अपने आपको अंबेडकरवादी भी मानते हैं। दलितों में भी जाति क्रम, वर्ण व्यवस्था की तर्ज पर मौजूद है। हम दलितों को ‘स्वयं-जाति-उन्मूलन’ की दिशा में उत्प्रेरित कर सकते थे, लेकिन ऐसा हुआ नही। क्योंकि प्रगतिशील, बुद्धिजीवी और अंबेडकरवादी कहलाने वाले लोग खुद तो अपनी जाति में बने रहना चाहते हैं, अगर दलित सच में जाति उन्मूलन चाहते हैं तो पहले अपनी जातियों का उन्मूलन कर उदाहरण प्रस्तुत करें तब दूसरों से ऐसी अपेक्षा करें। जबतक दलितों में जाति भेद है तब तक दलित एकता पर भी प्रश्न-चिन्ह ही रहेगा।
यह सत्य है कि मनुवाद और ब्राह्मणवाद समाज के लिए हानिकारक है। अपने आपको अंबेडकरवादी और ज्योतिबा फूलेवादी कहने वालों के पास मनुवाद को कोसने के सिवाय विकास या समतामूलक समाज का कोई कार्यक्रम और नीति नहीं है। 75 वर्ष की आजादी के बाद भी दलित मैला ढोने के अमानवीय कार्य में संलिप्त न होते। डॉ. अंबेडकर के विचारों की बारीकियों को उनके तथाकथित अनुयायियों ने भुला दिया है। डॉ. अंबेडकर की शिक्षाओं में अन्याय और अत्याचार के खिलाफ प्रतिकार है, लेकिन सामाजिक घृणा और अलगाव नहीं। राजनैतिक संरक्षण और लंबे समय से आरक्षण के लाभ से संपन्न दलित जातियों ने जाति-उन्मूलन के एजेंडे को हाशिये पर धकेल दिया है। जाति की पहचान का प्रदर्शन करने की कतार में आगे-आगे चलने वाले तथाकथित अंबेडकरवादी ही हैं। और यह पहचान दलित या बहुजन के तौर पर नहीं बल्कि जाति के तौर पर है। दलितों में जातिसूचक उपनामों से जातियों का भी एक ‘वाद’ बन गया है।
समता और समानता की जुगाली करने वाले और बात-बात पर संविधान की दुहाई देने वाले दलितों को अपने अंदर झांकना होगा कि क्या दलितों में परस्पर समानता है? और आरक्षण को प्रोत्साहन और प्रतिनिधित्व कहने वालों को यह भी सुनिश्चित करना होगा कि यह प्रोत्साहन और प्रतिनिधित्व सभी दलित जातियों को समान रूप से मिल रहा है या चंद जातियां ही इसका लाभ ले पा रही हैं। जाति के जूस की टपकती हुई आरक्षण की एक एक बूंद इन्हें हिन्दू और जातिवादी बने रहने के लिए विवश करती है। मनुवाद और ब्राrाणवाद को गालियां देने वालों को अहसास तक नहीं है कि अगड़ी जातियां पिछड़ी जातियों को साथ लेकर गम-खुशी तथा खान-पान में एक साथ होती हैं। पिछड़ी जातियां, जो संख्या बल में सबसे अधिक हैं वे भी गम-खुशी और खान-पान मे एक साथ होती हैं। वहीं दूसरी ओर दलित जातियां, खान-पान तो दूर की बात, गम और खुशी में एक साथ नहीं होती हैं।1आरक्षित सीटों से संसद एवं विधान सभाओं में पहुंचने वाले सामाजिक न्याय के कर्णधारों ने कभी भी मैला ढोने जैसे अमानवीय प्रथा के खिलाफ संसद और विधान सभाओं में मुखर होकर आवाज नही उठाई। देश में सफाई पेशा जातियों के हालात बंधुआ मजदूरों जैसे हो गए हैं। इनकी सुध लेना वाला कोई नहीं है।
आरक्षण-संपन्न दलित जातियों द्वारा सफाई पेशा जातियों के साथ सवर्ण जातियों जैसा ही अपृश्यता का व्यवहार किया जाता है और जाति के नाम पर शोषण भी किया जाता है। आज देश में सफाई पेशा जातियां सवर्णो और अवर्णो सबके लिए अछूत हैं। सवर्णो द्वारा किए जाने वाले शोषण और अत्याचार के विरुद्ध तो अनुसूचित जाति/जन जाति अत्याचार निवारण अधिनियम है, किन्तु इन दलित मनुवादियों के विरुद्ध भी अनुसूचित जाति/जन जाति अत्याचार निवारण अधिनियम प्रभावी बनाया जाए। ताकि इन्हें भी न्याय और सम्मान मिल सके। दलितों में परस्पर समानता के अभाव में बहुजन का नारा निर्थक है।
भारत में समाज नाम की कोई चीज नहीं बल्कि जातियों का जमावड़ा है। इसकी वजह से यहां समाज जैसी किसी संकल्पना का उदय नहीं हो सका और जाति को ही समाज मान लिया गया। जाति व्यवस्था में ‘भारतीय समाज’ की संकल्पना बेमानी ही होगी। जाति से खंडित राष्ट्र में राष्ट्रवाद की संकल्पना भी परवान नहीं चढ़ सकेगी।भारत में समाज नाम की कोई चीज नहीं बल्कि जातियों का जमावड़ा है। इसकी वजह से यहां समाज जैसी किसी संकल्पना का उदय नहीं हो सका और जाति को ही समाज मान लिया गया। जाति व्यवस्था में ‘भारतीय समाज’ की संकल्पना बेमानी ही होगी। जाति से खंडित राष्ट्र में राष्ट्रवाद की संकल्पना भी परवान नहीं चढ़ सकेगी। भारतीय समाज में जातियों का जमावड़ा