संविधान भारत का राजधर्म

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संविधान खात्मे की बहस व्यर्थ
संविधान खात्मे की बहस व्यर्थ

भारत का संविधान, हमारे राज्य का धर्म है। यह अंतिम कानूनी और नैतिक संहिता है। यह धर्म, अधर्म या अराजकता की स्थिति से अलग है। राजधर्म का मतलब है कि समाज अपनी मर्यादा में रहे। राजधर्म में किसी के भी धर्म को नाश करने की इच्छा करना हिंसा है। इस हिंसा को नष्ट करना राजधर्म है।

हृदयनारायण दीक्षित
हृदयनारायण दीक्षित


संविधान भारत का राजधर्म है। संविधान सभा ने 26 नवंबर 1949 के दिन संविधान पारित किया था। भारत के लिए यह तिथि चिर स्मरणीय है। संविधान जन गण मन का भाग्य विधाता है। संविधान में विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका प्रतिष्ठित संस्थाएं हैं। संविधान में विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, विधि के समक्ष समता सहित सभी मौलिक अधिकार हैं। संविधान में भारतीय संस्कृति को भी महत्वपूर्ण स्थान मिला है। संविधान की हस्तलिखित प्रति में राम, कृष्ण, हड़प्पा काल की मोहरों व वैदिक काल के गुरुकुल आश्रम के चित्र हैं। श्रीराम का लंका विजय व श्रीकृष्ण अर्जुन के सुन्दर चित्र भी हैं। बुद्ध, महावीर, सम्राट अशोक, गुप्तकाल, शिवा जी, गुरु गोविन्द सिंह आदि सभी के चित्र आकर्षित करते हैं। संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ० राजेन्द्र प्रसाद ने अपने आखिरी भाषण में कहा कि, ‘‘संविधान उपबंध करे या न करे, राष्ट्र कल्याण उन व्यक्तियों पर निर्भर करेगा जो देश पर शासन करेंगे।” डॉ० आम्बेडकर ने अंतिम भाषण दिया और कहा कि, ‘‘एक समय था जब भारत गणराज्यों से सुसज्जित था। भारत संसदीय प्रक्रिया से भी अपरिचित नहीं था।” संविधान सभा में राष्ट्रजीवन की सभी समस्याओं पर चर्चा हुई थी। जम्मू कश्मीर विषयक अनुच्छेद 370 संविधान का अस्थाई उपबंध बना। जम्मू कश्मीरी विशेष उपबंध की व्यवस्था ठीक नहीं थी। इस व्यवस्था का खात्मा नरेन्द्र मोदी की सरकार ने 2019 में किया। भारतीय संविधान की रचना में देश के चोटी के विद्वानों ने हिस्सा लिया था। सभी विषयों पर जमकर चर्चा हुई थी। अल्पसंख्यक अधिकार समिति के सभापति सरदार पटेल ने अपनी सिफारिशें सभा में रखी थीं। यह हिस्सा ऐतिहासिक महत्व का है। यों तो संविधान सभा की पूरी बहस रोमांचकारी है। लेकिन बहस का एक मजेदार किस्सा संविधान में ’ईश्वर’ को शामिल करने का है। संविधान भारत का राजधर्म


राष्ट्रपति की शपथ के प्रारूप मसौदे में ‘ईश्वर’ का उल्लेख नहीं था। एच0वी0 कामत ने ईश्वर को जोड़ने का संशोधन प्रस्ताव रखा, “मेरे मन में भावना उठी कि इसमें कुछ कमी है। ईश्वर को विधान में स्थान मिलना चाहिए। मेरी धारणा थी कि प्रस्तावना का ही आरम्भ ईश्वर की स्तुति से होना चाहिए था। कदाचित् यह ईश्वर की इच्छा थी कि विधान उसके नाम से वंचित होना चाहिए।” कामत ने कहा, “हम भगवान को जितना दूर हटाते हैं, उतना ही वह हमारा पीछा करता है।” महावीर त्यागी ने ईश्वर के नाम पर या निश्चयपूर्वक सत्यनिष्ठा से शपथ लेने का संशोधन रखा। उन्होंने कहा “इसका अर्थ यह होगा कि जो भगवान में विश्वास करते हैं वे उसके नाम में शपथ लेंगे और जो इस मत के हैं कि ईश्वर के विषय में न कुछ जाना जा सका है और न जाना जा सकता है उन नास्तिकों को केवल गम्भीरतापूर्वक निश्चयोक्ति करने की स्वतंत्रता होगी।”


यह बहस भारत के इतिहास का अंग है। त्यागी ने कहा, “ब्रिटिश संसद भी प्रार्थना से शुरू होती है। उनकी व्यवस्था साम्प्रदायिक राज्य नहीं है।“ काजी करीमुद्दीन ने कहा, “मैं बहुत प्रसन्न हूं कि उन्होंने ईश्वर के पक्ष में तर्क उपस्थित किये हैं कि ईश्वर को हमारे विधान से नहीं मिटाना चाहिए। मेरा निवेदन है कि यदि उनका संशोधन स्वीकार कर लिया जाये तो हम उन लोगों को अलग कर रहे होंगे जिन्हें ईश्वर में विश्वास नहीं है। इस देश में और अन्यत्र ऐसे बहुत से लोग है जिन्हें ईश्वर में विश्वास नहीं होता।” प्रो0 के0टी0 शाह ने कहा, “ईश्वर का नाम रखने की प्रबल इच्छा के बावजूद मैं समझता हूं, हम अन्य लोगों की मूर्खताओं को दोहरा सकते हैं। मुझे भय है कि ईश्वर के नाम की केवल उपस्थिति मनुष्य की निर्बलता के विरूद्ध प्रतिभूति नहीं होगी।”
धर्म और ईश्वर के नाम पर झगड़ों की चर्चा भी हुई। आर0के0 सिंघवा ने कहा, “मुझे ईश्वर के अस्तित्व तथा धर्म में भी दृढ़ विश्वास है। हम ईश्वर का आशीर्वाद मांगते हैं, केवल इसीलिये परमात्मा का नाम विधान में रखना उचित नहीं होगा। यदि आपको ईश्वर पर सच्चा विश्वास है तो वह सर्वत्र व्यापक है। ईश्वर के विधान में रखने मात्र से संतोष अनुभव करने से कोई लाभ नहीं है। प्रधान (राष्ट्रपति) ईश्वर के नाम पर शपथ लें तथा बाद में ईश्वर के उपदेशों के विरूद्ध कोई कार्य करे। मैं अपने मित्र करीमुद्दीन के विचारों से सहमत नहीं हूं कि असाम्प्रदायिक राज्य में ‘ईश्वर’ शब्द आ ही नहीं सकता। असाम्प्रदायिक राज्य का यह अर्थ नहीं है कि कोई व्यक्ति भगवान में विश्वास ही नहीं कर सकता। हम कहते हैं कि धर्म का हमारे विधान से कोई सम्बन्ध नहीं होगा। धर्म व्यक्तिगत मामला है। मैं भगवान पर विश्वास करता हूं। मैं धर्म को निजी मामला समझता हूं। मुझे यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि भगवान पर किस रूप में किस प्रकार विश्वास करते हैं। ईश्वर धर्म का प्रतीक है। श्रीमान्, हम जानते ही हैं कि धर्म के नाम पर इस देश में कैसी नाशकारी बातें होती रही हैं।”


के0एम0 मुंशी बोले “यदि भारतीय संस्कृति का कुछ भी आशय है तो यही कि ईश्वर है। भारत धर्म-परायण ही रहेगा और भारत का राज्य धर्म-विरोधी होने के अर्थ में कभी असाम्प्रदायिक नहीं बन सकता। इसका यह अर्थ नहीं कि ईश्वर पर विश्वास करने वाला देशसेवा की प्रतिज्ञा करते समय ईश्वर की शपथ नहीं ले सकता।” दिलचस्प दलील देते हुए तजम्मुल हुसैन ने कहा, “समस्त धर्म कहते हैं कि ईश्वर की इच्छा के बिना कुछ नहीं होता। मेरे माननीय मित्र श्री कामत ईश्वर की इच्छा से ही ईश्वर के नाम को रखने का प्रस्ताव रखने के लिए खड़े हुए थे और मैं भी यहां ईश्वर की इच्छा और आज्ञा से ही यह कहने आया हूं कि वह अपना नाम यहां बिल्कुल नहीं चाहता।” उन्होंने कहा, “हम सब जानते हैं कि भगवान एक है किन्तु हमने हजारों ईश्वरों की उत्पत्ति कर दी है। आप किसके भगवान को रखेंगे…?”


डाॅ0 अम्बेडकर ने कहा, “जहां तक मेरा अध्ययन है, ‘ईश्वर’ शब्द का विभिन्न धर्मो में विभिन्न महत्व है। ईसाई और मुसलमान ईश्वर को एक कल्पना के समान ही नहीं मानते बल्कि ऐसी शक्ति मानते हैं जो संसार पर राज्य करती है। अस्तिकों के नैतिक और आध्यात्मिक कार्यो पर शासन करती है। जहां तक हिन्दू धर्म का सम्बन्ध है, मेरे विचार से और मैं पूर्णतः गलती पर हो सकता हूं। मैं इस विषय का ज्ञानी होने का दावा नहीं करता – मेरा ख्याल था कि ‘ईश्वर’ शब्द और बड़ा शब्द प्रयोग करें तो ‘परमेश्वर’ एक आशय का, एक कल्पना का निचोड़ ही है। मुझे प्रसन्न्ता है कि यह संशोधन पेश किया गया है। कुछ सदस्यों ने संशोधन पर आपत्ति की है। उन्हें भय है कि ‘ईश्वर’ शब्द के रखने से असाम्प्रदायिक राज्य के गुण में अंतर पड़ जायेगा। मेरे विवेकानुसार ‘ईश्वर’ शब्द के रख देने से वह प्रश्न तो उठता नहीं। उन्होंने कहा, “यदि प्रधान (राष्ट्रपति) सोचता हो कि ईश्वर एक विश्वसनीय मंत्री है और यदि उसके नाम से शपथ नहीं लेगा तो वह अपने कर्तव्य के प्रति सच्चा नहीं रहेगा, तो हमें चाहिए कि उसे ईश्वर के नाम पर शपथ लेने की स्वतंत्रता दें। यदि कोई ऐसा व्यक्ति हो जो ईश्वर को विश्वसनीय मंत्री नहीं समझता तो हमें उसे निश्चयोक्ति के आधार पर कर्तव्य करने की स्वतंत्रता देनी चाहिए।” संविधान भारत का राजधर्म