प्रदेश की पॉलिटिक्स में यादवों की पहचान सपा से

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 “मुलायम सिंह यादव से पहले भी यादव राजनीतिक रूप से जागरूक थे, लेकिन उनके आने के बाद वे एकदम से गोलबंद हो गए. इसीलिए बीजेपी इन पर डोरे डाल रही है और कुछ चुनावी सर्वे बताते हैं कि वो इसमें कामयाब भी दिख रही है. एक और बड़ा तर्क ये है कि मुलायम सिंह और अखिलेश पूरे यूपी के यादवों को बराबरी की नजर से शायद नहीं देख पाए. इसलिए वो यादव बीजेपी की तरफ गए.”

उत्तर प्रदेश की पॉलिटिक्स में यादवों की पहचान सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव और उनके परिवार से ही है, जबकि बिहार में लालू प्रसाद यादव और उनके परिवार से. सियासी विश्लेषक मानते हैं कि इन दोनों की वजह से यादवों का विकास अन्य पिछड़ी जातियों के मुकाबले ज्यादा हुआ. और यही वो चोर दरवाजा है जिसकी चाभी बीजेपी के हाथ लग गई है. यानी बीजेपी ने यादवों को छोड़ अपना फ़ोकस उन ओबीसी जातियों पर किया जिन्हें इन दोनों नेताओं ने उपेक्षित कर दिया था.यादव वो हैं जिन्होंने ठाकुर-ब्राह्मण राजनीतिक नेतृत्व को उत्तर प्रदेश की सत्ता से न सिर्फ बेदखल किया बल्कि मंडल आंदोलन के बाद मायावती को छोड़ दें तो सबसे बड़ी आबादी वाले राज्य की सत्ता में लगातार बने रहे. 2014 में मोदी की आंधी आई और यूपी की यादव सत्ता सिर्फ मुलायम परिवार के कुछ सांसदों तक ही सिमट गई. 2017 का विधानसभा चुनाव ज्यादा बुरे नतीजे लेकर आया. 2012 में 224 सीटें जीतने वाली सपा सिर्फ 47 सीटों पर सिमट गई. जबकि 47 सीटें जीतने वाली भाजपा आखिर कैसे 324 सीटें जीतने में कामयाब रही, आखिर ये किसके हिस्से का वोटर था जिसे बीजेपी ने हड़प लिया था?

सपा की तरफ क्यों हैं सबसे ज्यादा यादव…?”यादव सभी पार्टियों में हैं लेकिन यूपी में ज्यादा झुकाव इसलिए सपा की तरफ है क्योंकि इसमें यादव लीडरशिप है. पिछड़ों की लड़ाई लड़ते हैं. झुकाव हिस्सेदारी से तय होता है. 2014 में कुछ यादव उम्मीदों की लहर पर सवार होकर जरूर बीजेपी की तरफ गया था.”

उत्तर प्रदेश में ज्यादातर यादव सपा से जुड़े हैं लेकिन बीजेपी ने गैर यादव ओबीसी के साथ-साथ इस वोटबैंक में भी सेंध लगाना शुरू कर दिया है. उसे इसका परिणाम भी 2014 के लोकसभा और 2017 के विधानसभा चुनाव में देखने को मिला. विश्लेषकों के मुताबिक यादव वोटबैंक का एक हिस्सा सपा से बीजेपी में शिफ्ट हुआ है. इसीलिए बीजेपी ने भूपेंद्र यादव को पार्टी में महासचिव पद की जिम्मेदारी दी है. केंद्र में दो यादवों को मंत्री भी बनाया. रामकृपाल को ग्रामीण विकास और हंसराज अहीर को गृह विभाग में राज्यमंत्री का पद दिया.

उत्तर प्रदेश की तमाम ओबीसी जातियों में यादवों की हिस्सेदारी क़रीब 20% है. उत्तर प्रदेश की कुल आबादी में करीब 8 से 9% यादव वोटर इतने गोलबंद हैं कि मंडल से पहले और उसके बाद, राजनीति के दोनों कालखंडों में उनका असर रहा है. यूपी में पांच बार उनके सीएम रहे हैं. छोटी बड़ी 5 हजार से अधिक जातियों वाले समूह ओबीसी में सबसे ज्यादा राजनीतिक चेतना यादवों में देखी गई है. इसीलिए यूपी जैसे राज्य, जहां आजादी के बाद से लगातार सवर्ण ही सीएम बनते आ रहे थे, वहां 1977 में रामनरेश यादव के हाथ सत्ता की बागडोर लग गई. उधर, हरियाणा जैसे जाट बहुल प्रदेश में राव बीरेंद्र सिंह मुख्यमंत्री बन गए. पड़ोसी देश नेपाल में भी यादवों ने पकड़ बना रखी है. नेपाली कांग्रेस के नेता रामबरन यादव वहां के राष्ट्रपति रह चुके हैं. उपेंद्र यादव वहां डिप्टी प्राइम मिनिस्टर हैं.

फिलहाल उत्तर प्रदेश की पॉलिटिक्स में यादवों की पहचान सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव और उनके परिवार से ही है, जबकि बिहार में लालू प्रसाद यादव और उनके परिवार से. सियासी विश्लेषक मानते हैं कि इन दोनों की वजह से यादवों का विकास अन्य पिछड़ी जातियों के मुकाबले ज्यादा हुआ. और यही वो चोर दरवाजा है जिसकी चाभी बीजेपी के हाथ लग गई है. यानी बीजेपी ने यादवों को छोड़ अपना फ़ोकस उन ओबीसी जातियों पर किया जिन्हें इन दोनों नेताओं ने उपेक्षित कर दिया था.

उत्तर प्रदेश में ज्यादातर यादव सपा से जुड़े हैं लेकिन बीजेपी ने गैर यादव ओबीसी के साथ-साथ इस वोटबैंक में भी सेंध लगाना शुरू कर दिया है. उसे इसका परिणाम भी 2014 के लोकसभा और 2017 के विधानसभा चुनाव में देखने को मिला. विश्लेषकों के मुताबिक यादव वोटबैंक का एक हिस्सा सपा से बीजेपी में शिफ्ट हुआ है. इसीलिए बीजेपी ने भूपेंद्र यादव को पार्टी में महासचिव पद की जिम्मेदारी दी है. केंद्र में दो यादवों को मंत्री भी बनाया. केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्री भूपेंद्र यादव, रामकृपाल को ग्रामीण विकास और हंसराज अहीर को गृह विभाग में राज्यमंत्री का पद दिया.