महर्षि धौम्य की चिंता

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टीकेश्वर सिन्हा “गब्दीवाला”

          अपने गुरू महर्षि धौम्य की आज्ञा पाकर आज शाम को आरूणि खेत गया। खेत पहुँचकर देखा कि मेड़ कटी हुई है। पानी खेत से निकल रहा है। बारिश भी हो रही है; और थमने का कोई आसार नहीं। रात गहरी होती जा रही है। उसने आश्रम लौटना उचित समझा। गुरु धौम्य अपने सभी शिष्यों के साथ चिंतित खड़े वर्षा रुकने की प्रतीक्षा कर रहे थे और वर्षा रुकने का नाम नही ले रही थी। उन्होंने अपने शिष्यों से कहा “लगता है इस भीषण वर्षा के कारण हमारी फसल नष्ट हो जायेगी और इस वर्ष आश्रम का खर्च नही चल पायेगा”।

          आरूणि को देखते ही महर्षि धौम्य ने पूछा- “वत्स ! खेत ठीक तो है न ? फसल कैसी है ?”

          “ठीक है गुरुदेव ! पर एक समस्या है वहाँ।” गहरी साँस लेते हुए आरूणि बोला।

          “क्या वत्स ? कहो ?” महर्षि धौम्य के श्रीमुख से स्नेहपूर्वक वाणी निकली।

          आरूणि बोला- “खेत की मेड़ कट गयी है गुरुदेव। खेत से पानी निकल रहा है। बहाव भी बहुत तेज है। मूसलाधार बारिश भी हो रही है। ऐसी विषम परिस्थिति में मैं मेड़ को कैसे बाँधता; और पानी रोकता।”

          “प्रयत्न तक नहीं किया पुत्र ?” ऋषिवर धौम्य ने कहा- “मिट्टी डालकर देखना था तुम्हें; कदाचित पानी रूक जाता। वर्षा रुकने की थोड़ी प्रतिक्षा कर लेते।”

          “इतना क्या है गुरुवर, इस वर्ष फसल नहीं पक पाएगी तो। खेत केवल न तो आपकी है; न ही मेरी। फिर इतनी चिंता क्यों कर रहे हैं आप? हानि तो पूरे आश्रम को उठानी पड़ेगी न। मैं खेत की मेड़ बाँधने तो नहीं आया हूँ आश्रम में। मैं तो विद्या ग्रहण करने आया हूँ।” आरूणि के स्वर में बड़ी तीक्ष्णता थी। महर्षि धौम्य आरूणि की बातें सुन कुछ नहीं बोले। सोच में डूब गये कि वे अपने से अपेक्षित इस समाज को भला कैसे समझाए। आज से पहले उन्हें इतनी चिंता कभी नहीं हुई थी।