सत्ता कुर्सियों में नहीं बल्कि जनता के बीच होती है Power is not in the chairs but among the people

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लोकनायक जयप्रकाश नारायण की पुण्यतिथि पर विशेष-

शिवकुमार शुक्ला

लोकतंत्र में कोई भी चीज खत्म नहीं होती है वह लोकतंत्र के अनुभव कोष में एकत्रित होती जाती है और जब भी भविष्य में लोकतंत्र को कोई चुनौती आती है तो यह अनुभव कोष उससे मुकाबला करने के लिए एक बड़ी ताकत इक्कट्ठा कर देता है।।1975 के आपातकाल में लोकतंत्र के समक्ष एक बहुत बड़ी चुनौती आई जिसका लोकतंत्र ने अपनी तरह से मुकबला किया। उस चुनौती ने हमें आगाह कर दिया था कि भविष्य में लोकतंत्र अगर सुरक्षित रहेगा तो जनता के हाथ में सुरक्षित रहेगा। दलों की बनाई हुई सरकारों में यह सुरक्षित नहीं।

1974 का जो संपूर्ण क्रांति आंदोलन था जिसे हम जेपी आंदोलन के नाम से जानते हैं, उसकी व्याख्या दो प्रकार के लोगों द्वारा की जाती है- एक तो वे लोग लोग जो इस आंदोलन के विरोध में थे। और दूसरे वे लोग जो आंदोलन के समर्थन में तो थे लेकिन इस आंदोलन को जयप्रकाश जी जिधर ले जाना चाहते थे उस कोशिश को न तो वे लोग समझते थे और न उससे सहमत थे। जयप्रकाश जी 1974 के आंदोलन से एक बड़े प्रयोग की तरफ जाने की कोशिश कर रहे थे। अगर हम उस कोशिश को नहीं समझेंगे तो हम इस आंदोलन को नहीं समझ सकते।

हमको एक बात अच्छी तरह से समझ लेनी चाहिए कि जयप्रकाश जी ने अपने में कभी सत्ता की राजनीति नहीं की। उन्होंने राजनीतिक दल बनाए, उनका नेतृत्व किया, उनको देशभर में फैलाया भी, उनको चुनाव लडवाया, लेकिन खुद कभी कोई चुनाव नहीं लड़े। जब कभी कुर्सी तक पहुंचने का मौका आया,वे पीछे हट गए और अपने आप को उस सफलता से अलग कर लिया और दूसरों को आगे जाने का मौका दिया। यह सिर्फ एक व्यक्ति नहीं बल्कि एक एक दर्शन की बात है, जिसकी शुरुआत भारतीय राजनीति में महात्मा गाँधी ने की। महात्मा गांधी ने भारतीय राजनीति में एक नया दर्शन प्रस्तावित किया कि दरअसल में सत्ता कुर्सियों में नहीं जनता के बीच में होती है। इसलिए बड़ी से बड़ी कुर्सियां भी उस मौलिक क्रांतिकारी के लिए बेमानी हैं जो सच्चे अर्थों में जनता के बीच रहता है और उसकी ताकत को पहचानता हैं।

1974 के आंदोलन ने पहली बार लोगों के बीच यह बात स्थापित कर दी कि अगर मजबूत विकल्प दिया जाए तो लोकतंत्र को राजनीतिक दलों की पकड़ से बाहर निकाला जा सकता है। लोकतंत्र का अर्थ लोक को बड़ा बनाना और तंत्र की ताकत को सीमित करना है। ये मौलिक प्रयोग गाँधी जी का था जयप्रकाश जी ने 1974 में आकर उसे एक नई दिशा देने की कोशिश की। जयप्रकाश जी ने इस आंदोलन के द्वारा यह स्थापित कर दिया कि लोकतंत्र में मतदाता एक डायनामिक फोर्स है जो 365× 24×7 काम करता हैं। वो जब चाहे तब राजनीतिक प्रक्रिया में हस्तक्षेप कर सत्ता में बैठे लोगों को हटा सकता है और अपनी पसंद के दूसरे लोगों को चुन सकता है। जयप्रकाश जी ने कहा कि जनता की सक्रिय भागीदारी लोकतंत्र का अविभाज्य हिस्सा है। लोकतंत्र का मतदाता, लोकतंत्र का सिर्फ रक्षक ही नहीं है, उसका सहभागी ही नहीं है बल्कि लोकतंत्र को असली निर्माता है।

जयप्रकाश जी ने जिस राजनीतिक स्वरूप कल्पना थी वह उन्हें गांधी जी से मिली थी। उनका व्यक्तित्व बहुत ही प्रकाशमान था। वे जहां पहुंचते थे वहां एक अलग तरह की आभा छिटक जाती थी। उनके पास रहने को खुद का मकान भी नहीं था। वे चरखा समिति में एक कमरे में रहते थे और उसका भी किराया देते थे। सत्ता का आकर्षण उन्हें कभी नहीं रहा। जवाहरलाल नेहरू उन्हें अपने मंत्रिमंडल में उप प्रधानमंत्री पद देने की कोशिश की जिसे उन्होंने स्वीकार नहीं किया। 1962 में चीनी हमले के समय जब नेहरू जी की लोकप्रियता गिर रही थी, उस समय राष्ट्रपति डॉ राधाकृष्णन, जयप्रकाश जी से मिलने पटना गए। उन्होंने जयप्रकाश से कहा कि अब किस बात का इंतजार कर रहे हो? देश बहुत खतरे में है इसको आप ही संभालिए। जयप्रकाश जी ने कहा कि जब भाई ( नेहरू जी) इतनी कमजोर स्थिति में हैं तब मैं उनका फायदा नहीं उठाऊंगा। मैं इतना छोटा आदमी नहीं हूं। फिर उनको जनता सरकार में राष्ट्रपति बनाने का प्रस्ताव आया। उन्होंने यह प्रस्ताव भी यह कहकर ठुकरा दिया कि मैं दूसरे के लिखे भाषण को पढ़ने के लिए पैदा नहीं हुआ। जयप्रकाश जी ने कहा कि अहिंसा के जिस रास्ते को गांधी जी ने सुझाया था उसमें एक यह बात भी शामिल है की बड़ी कुर्सियों पर जाना तो दूर की बात है उनकी ओर देखना भी हिंसा है। अहिंसा की साधना तो कुर्सी के बगैर ही होती है।

जयप्रकाश जी की भाषा बहुत ही परिष्कृत और सुंदर थी। उनकी पढ़ाई अमेरिका में हुई इसलिए अंग्रेजी पर उनका बहुत अच्छा कमांड था। इंडियन एक्सप्रेस के चीफ एडिटर फ्रेंक मॉरेस ने अपने संस्करण में लिखा है कि जयप्रकाश नारायण ऐसे व्यक्ति थे, जिनके लेख मेरी टेबल पर जब आते थे तो मैं डिक्शनरी भी निकाल कर रख लेता था। क्योंकि इसमें कई शब्द ऐसे होते थे जिनके लिए मुझे डिक्शनरी की जरूरत पड़ती थी। जितने भी उनके समय के साहित्यकार थे उन सब के साथ उनके बहुत नजदीकी संबंध थे। बिहार के एक बड़े साहित्यकारों में रामवृक्ष बेनीपुरी का नाम भी आता है जिन्होंने उस दौर में जयप्रकाश जी की जीवनी लिखी जो अपने आप में एक अद्भुत उदाहरण मानी जाती है। रामधारी सिंह दिनकर जिनकी कविता सिंहासन खाली करो कि जनता आती है जयप्रकाश जी के ऊपर ही लिखी गयी। राम बहादुर राय, प्रभाष जोशी, वालेश्वर अग्रवाल, सुधांशु रंजन, राजेन्द्र माथुर, विनोद कुमार आदि उस समय के पत्रकार जेपी आंदोलन से निकले।

वे एक बहुत अच्छे पत्रकार भी थे। जब वे सोशलिस्ट पार्टी में थे उन्होंने अपना अखबार ‘जनता’ के नाम से निकाला। वे इसके संपादक थे। आज भी समाजवादी आंदोलन का इतिहास अगर कोई खोजना चाहे , तो उसे ‘जनता’ की फाइलों को पढ़े बगैर कुछ नहीं मिलेगा। जब वे बिहार आंदोलन का वातावरण निर्मित कर रहे थे तो उन्होंने ‘एवरी मेंस’ के नाम से एक अखबार अंग्रेजी साप्ताहिक के रूप में प्रारंभ किया। इस अखबार के पहले संपादक सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय थे। फिर उन्होंने ‘ प्रज्ञा नीति’ के नाम से हिंदी में एक नया अखबार शुरू किया जिसके संपादक प्रभाष जोशी थे। इस प्रकार अखबार के द्वारा लोक शिक्षण करना यह परंपरा जो गांधी जी ने दक्षिण अफ्रीका से शुरू की थी जयप्रकाश जी उसी परंपरा के एक प्रतिनिधि थे।

प्रेस स्टेटमेंट देना आजकल करीब-करीब खत्म हो चुका है। एक दौर था जब प्रेस स्टेटमेंट अपने समय की चीजों पर कमेंट करने का एक बहुत बड़ा हथियार था। अगर इसका इतिहास कभी देखा जाएगा तो शायद जयप्रकाश जी जैसे गहरे प्रेस स्टेटमेंट बहुत कम लोगों ने दिए होंगे। अंतरराष्ट्रीय घटनाओं से लेकर राष्ट्रीय घटनाओं तक उनका अपना एक अलग असर था। इसलिए वे जब अपने इलाज के लिए अमेरिका गए और अमेरिका सरकार ने उन्हें अंतरराष्ट्रीय मेहमान की तरह जिस तरह उनकी अगवानी की, उस समय अमेरिका की प्रेस को यह समझ में ही नहीं आया कि ये आदमी कौन है….? यह न तो राष्ट्रपति है और ना ही प्रधानमंत्री है। जब अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति ने वहां के विदेश मंत्री को हॉस्पिटल भेजा और कहा कि आप खुद जाकर उनके उपचार की व्यवस्था देखें। तब जय प्रकाश जी ने विदेश मंत्री से पूछा कि न तो में राष्ट्रपति हूं और ना ही प्रधानमंत्री हूं, आप यहां क्यों आये हैं? मैं तो कुछ एक साधारण सा नागरिक हूँ। तब अमेरिका के विदेश मंत्री ने मुस्कराते हुए कहा आप मुझे मत समझाइए कि आप कौन हैं। मैं जानता हूं कि आप कितने बड़े आदमी है। तो दुनिया भर की जो बड़ी सत्ताएं हैं वो इस बात को समझती हैं कि एक नैतिक शक्ति होती है जो बहुत पावरफुल होती है। जयप्रकाश जी अपने दौर की दुनिया की नैतिक शक्ति के प्रतीक थे। एक आदमी जो साहित्य,कला, संस्कृति सबके साथ जुड़ा हुआ था अपने वक्त का सबसे प्रतिनिधि था। उसके साथ जिन लोगों को रहने का और आंदोलन करने का मौका मिला इससे बड़ा सौभाग्य उनका क्या हो सकता है। 8 अक्टूबर 1979 को पटना में जयप्रकाश नारायण जी का निधन हो गया। उनकी पुण्यतिथि पर उन्हें सादर नमन।

संदर्भ- कुमार प्रशांत अध्यक्ष, गांधी शांति प्रतिष्ठान के भाषण के अंश गांधी दर्शन